पं. भानुप्रतापनारायण मिश्र

हमारे और आपके कम से कम एक गुरु तो होते ही हैं। लेकिन कभी आपने सुना है कि किसी ने 24 गुरु बनाए हों? जिनको उन्होंने अपना गुरु बनाया उन्हें आप और हम भी बना सकते हैं? उनके गुरु दिन-रात हमारे समाने रहते हैं, शरीर में रहते हैं, उन्हें अपने सामने देखते हैं, उन्हें अनुभव करते हैं। मन की भिन्न- भिन्न अवस्थाओं में उनसे संवाद स्थापित करते हैं। गम गलत करते हैं। सुखद सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थ भरे रास्तों के अनुभव चिन्तामुक्त होकर बताते हैं। हमें मालूम हैं कि वे एहसान नहीं जताते हैं, उन्हें हमारी सहानुभूति की भी आवश्यकता नहीं।

वे हमारी प्रशंसा के मोहताज भी नहीं हैं। वे तो केवल यही चाहते हैं कि हम आनंद का अनुभव करें। चिन्ता न करें, चिन्तन करें। हम और आपमें से बहुत से लोगों ने यदा कदा अनुभव किया होगा लेकिन उस ईश्वरीय क्षण को पकड़कर नहीं रखा। जिन लोंगो ने उस क्षण को पकड़ लिया वे बाल्मीकि, तुलसीदास, मीरा,  कबीर, रैदास, गुरुनानक, रामकृष्णपरमहंस, विवेकानंद, सार्इं और ओशो हो गए। बहुत से ऐसे भी हैं जिनके बारे में हम और आप नहीं जानते हैं। वे पूर्णरूप से मुक्त जो हो गए, अपने में ही डूब गए। किसी किसी पुण्यात्मा को अचानक उनके दर्शन होते भी हैं।

अब बात 24 गुरु बनाने वाले की दिव्य अवतार की करते हैं। श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त उद्धव के पूछे सवालों के जवाब देने के लिए, जनसाधारण को शिक्षा देने के लिए उन्हें परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और अपने पूर्वज राजा यदु के संवाद का बड़ा ही मोक्षकारक, ज्ञानवर्धक वर्णन किया है। इन्हीं दत्तात्रेय जी की जयन्ती मार्गशीर्ष पूर्णिमा 13 दिसंबर को मनाई जा रही है। ईश्वर और गुरु की एकरूपता यानी श्री दत्तात्रेय, जिन्हें गुरुओं का श्री गुरुदेवदत्त या सद्गुरु भी कहते हैं।

शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों ही संप्रदायों को एकजुट करने वाले श्री दत्तात्रेय का प्रभाव हजारों सालों से महाराष्ट्र में ही नहीं, वरन विश्व में छाया हुआ हैं। एकमुखी दत्त यानी विष्णुरूपी दत्तात्रेय महासती अनुसूया और ऋशि अत्रि के आश्रम में जन्म लेकर ब्रह्मा और महेष तो अंतर्ध्यान हो गए, लेकिन विष्णु वहीं रह गए। सो विष्णुरूपी श्री दत्तात्रेय के नाम से जाने गए।

ऋशि अत्रि और सती अनुसूया के यहां जन्मे भगवान श्री दत्तात्रेय ईष्वर का साधक को दिया वरदान है। मान्यता है कि प्रयाग सिंहाचल के समीप आश्रम से वे रोज पाचालेष्वर में स्नान व कोल्हापुर में भिक्षा मांगने के उपरांत मादुरगढ़ में सोने के लिये जाते हैं।

पुराणों के अनुसार दत्तात्रेय के शिष्य भी चैबीस हैं और चैबीस ही गुरु। शिष्यों में आप एक से एक महान प्रतिभाएं देखेंगे लेकिन गुरु के संबंध में उनकी धारणा अनूठी ही है। उन्होंने छोटे मोटे कीट-पतंगों से लेकर अति बलशाली जीवजंतुओं को अपना गुरु बनाया। ऐसे गुरुओं की संख्या 24 हैं। इन गुरुओं में सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी से लेकर कीड़े, कबूतर, अजगर, मधुमक्खी, हाथी, हिरण, मछली तक शामिल है। इन गुरुओं में प्रत्येक से एक संदेश और संस्कार लेकर अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। दत्तात्रेय के चयन में यह विशेषता स्पष्ट दिखाई देती है। साधु संगठनों के परम आराध्य दत्तात्रेय के प्रति गृहस्थ भी पूरी श्रद्धा और निष्ठा रखते हैं।

त्रिदेवों-विष्णु, ब्रहमा और शिव के अंश, दत्तात्रेय का जन्म माता लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के अंहकार की समाप्ति पर हुआ था। सती अनसूया जी और महर्षि अत्रि के पुत्र हैं। राजा यदु ने एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत को देखा तो पूछा- आप कर्म तो किसी भी प्रकार का नहीं करते, फिर इतनी निपुण बुद्धि कहां से प्राप्त हुई? हैं आप परम विद्वान लेकिन बिल्कुल बालक के समान संसार में घूमते हुए नजर आते हैं। धर्म, अर्थ, काम और तत्व-जिज्ञासा में भी किसी प्रकार उत्सुक नजर नहीं आते। बिल्कुल जड़, उन्मत्त, पिशाच के समान रहते हैं। कुछ नहीं करते। पुत्र, स्त्री, धन आदि से मतलब नहीं हैं। बताइये, अपनी आत्मा में ऐसे अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव आपको कैसे होता है?

तब दत्तात्रेय जी ने कहा- मेरे बहुत से गुरु हैं। उनके नाम हैं- पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चंद्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगे,भौंरा-मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हिरण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुंआरी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट हैं। इनसे ली शिक्षा से ही इस लोक में किस प्रकार सबसे व्यवहार करना है, तय किया।

पृथ्वी से मैंने धैर्य और क्षमा की शिक्षा ली। लोग पृथ्वी पर कितने तरह के उत्पात करते हैं पर वह सदैव पर्वत और वृक्ष की भांति परोपकार ही करती है।

शरीर के भीतर रहनेवाली प्राणवायु से सीखा जितने से जीवन-निर्वाह हो जाए उतना ही भोजन करें। आकाश से सीखा कि सब कुछ उसकी दृष्टि में है भी और नहीं भी। आग लगती है, पानी बरसता है, वायु की प्रेरणा से बादल आते और चले जाते हैं लेकिन आकाश सबसे अछूता रहता है।

जल स्वभाव से ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करना होता है। अग्नि से सीखा कि किसी के भी दोष अपने में न आने दें। चंद्रमा से सीखा कि जैसे उसकी काल के प्रभाव से कलाएं घटती और बढ़ती हैं, वह न घटता है और न बढ़ता ही है वैसे ही जन्म से लेकर मरने तक परिवर्तन सिर्फ शरीर का होता है, आत्मा से उसका कोई संबंध नहीं होता।

सूर्य से शिक्षा मिली कि समय पर विषयों को ग्रहण करो और समय आने पर उनका त्याग-दान कर दो। कबूतर से सीखा कि किसी के साथ अत्यन्त स्नेह नहीं रखना चाहिए। अजगर से सीखा कि जो मिल जाए उसी में प्रसन्न रहो, उदासीन रहो। समुद्र से सीखा कि सदैव प्रसन्न और गंभीर रहना चाहिए।

पतंगे से सीखा कि जैसे वह रूपपर मोहित होकर आग में कूद जाता है वैसे ही अगर मनुष्य को मोक्ष चाहिए तो अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना चाहिए, सुंदरता पर मोहित होकर नहीं मरना चाहिए। भौंरे से सीखा कि बुद्धिमान मनुष्य को छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उसका सार ले लेना चाहिए। मधुमक्खी से सीखा कि संन्यासी को किसी दूसरे दिन के लिए भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए, संग्रह से बचना चाहिए। अगर करेगा तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही अपना जीवन भी गंवा बैठेगा।

हाथी ने मुझे यह ज्ञान दिया कि संन्यासी को कभी चित्र रूपी स्त्री का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए अन्यथा वह मोक्षमार्ग खो बैठेगा। हाथी को पकड़ने वाले तिनकों से ढके हुए गड्ढे पर कागज की हथिनी खड़ी कर देते है। हाथी उसे देखकर आता है और गडढे में गिरकर फंस जाता है।

मधु निकालने वाले से यह शिक्षा ली कि लोभी पुरुष बड़ी तकलीफ उठाकर धन का संचय करने में जुटे रहते हैं किन्तु उस धन से न तो दान करते हैं और न खुद के लिए उपयोग। उनके धन को कोई दूसरा ही भोगता है। हिरण से सीखा कि वनवासी संन्यासी को विषय संबंधी गीत नहीं सुनने चाहिए अन्यथा वह मोह में पड़कर ऋष्यश्रृंग मुनि के समान नारी के हाथ की कठपुतली बन जायेंगे। मछली से सीखा कि किसी भी प्रकार के लोभ से दूर रहना चाहिए अन्यथा जैसे मछली मांस के टुकड़े खाने के लोभ में जान गंवा देती है वैसे ही संन्यासी अगर रसनेन्द्रिय को वश में नहीं कर पाता है तो अपना सब कुछ नष्ट कर लेता है।

पिंगला वेश्या से यह सीखा कि मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के बंधनों को काटकर शान्ति लाभ करता है। आशा ही सबसे बड़ा दुख है, निराशा ही सबसे बड़ा सुख है। कुरर पक्षी ने ज्ञान दिया कि प्रिय वस्तु के त्याग से ही सुख मिलता है। बालक से यह शिक्षा ली कि अपने में ही रमे रहो, अपने साथ ही खेलते रहो। इसलिए मैं मौज में रहता हूं। कुमारी कन्या से यह सीखा कि दोनों हाथों में एक-एक चूड़ी की भांति अकेले ही विचरना चाहिए, बहुत लोग या किसी एक आदमी के साथ भी नहीं रहना चाहिए।

बाण बनाने वाले ने मुझे सिखाया कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अ•यास के द्वारा अपने मन को वश में करके उसे परमात्मा में लगाओ,उसी तरह जिस तरह से बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय होता है कि उसे आसपास हो रही किसी भी गतिविधि की सुध नहीं रहती है। वह अपने में ही डूब जाता है।

सांप ने यह बताया कि संन्यासी को अकेले ही विचरण करना चाहिए, मंडली नहीं बनानी चाहिए, मठ नहीं बनाना चाहिए। मकड़ी अपने मुंह के द्वारा जाला फैलाती है, विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है वैसे ही ईश्वर जगत को उत्पन्न करते हैं, जीवरूप में विहार करते हैं और उसे अपने में फिर लीन कर लेते हैं। और अंत में भृंगी, बिलनी कीड़े से यह शिक्षा ली कि स्नेह, द्वेष, भय से किसी में एकाग्ररूपसे अपना मन लगा दे तो वह उसी वस्तु के समान हो जाता है इसलिए मनुष्य को केवल परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिए।

इसके अलावा मुझे मेरे शरीर ने विवेक और वैराग्य की शिक्षा दी। मरना और जीना तो इसी के साथ लगा रहता है। इसे अपना मत समझो। इसके लिए किसी भी प्रकार के सुख की व्यवस्था मत करो। कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियां दोनों ही सताती हैं। विषय भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं लेकिन मनुष्य शरीर पाकर मरने से पहले मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न केवल बुद्विमान मनुष्य ही करते हैं।