आगामी 23 अप्रैल को होने वाले मतदान के लिए वोटों का गणित समझने से पहले अररिया के संसदीय इतिहास को जान लेते हैं. अररिया साल 1967 में संसदीय क्षेत्र घोषित हुआ और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया. 1967 से लेकर 1984 तक हुए पांच संसदीय चुनावों में 1977 को छोड़ कर कांग्रेस ने किसी भी दल की दाल नहीं गलने दी.

अररिया से 17वीं लोकसभा में राजद उम्मीदवार सरफराज आलम की एंट्री आसान नहीं है. हालांकि, उनके सामने 2018 में उनसे हार चुके भाजपा के प्रदीप सिंह हैं, लेकिन 2019 में उनका मुकाबला नरेंद्र मोदी से होगा. अररिया में इस बार उम्मीदवार और बाकी मुद्दे गौण हो गए हैं. लड़ाई मोदी समर्थन और मोदी विरोध पर केंद्रित होती दिख रही है. अररिया संसदीय क्षेत्र अंतर्गत छह विधानसभा क्षेत्र फारबिसगंज, नरपतगंज, रानीगंज, जोकीहाट, सिकटी एवं अररिया हैं. 2018 के संसदीय उपचुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के सरफराज आलम ने भाजपा के प्रदीप सिंह को 61,988 वोटों से मात दी थी. भाजपा ने छह में से चार यानी रानीगंज, फारबिसगंज, नरपतगंज एवं सिकटी विधानसभा क्षेत्र में राजद के मुकाबले बढ़त हासिल की थी, लेकिन जोकीहाट और अररिया में राजद उम्मीदवार को मिली भारी बढ़त के चलते भाजपा उम्मीदवार प्रदीप सिंह पिछड़ गए थे.

आगामी 23 अप्रैल को होने वाले मतदान के लिए वोटों का गणित समझने से पहले अररिया के संसदीय इतिहास को जान लेते हैं. अररिया साल 1967 में संसदीय क्षेत्र घोषित हुआ और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया. 1967 से लेकर 1984 तक हुए पांच संसदीय चुनावों में 1977 को छोड़ कर कांग्रेस ने किसी भी दल की दाल नहीं गलने दी. लेकिन, 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस का बोरिया-बिस्तर ऐसा बंधा कि दोबारा उसकी वापसी नहीं हो सकी. 1991 के बाद तो कांग्रेसी उम्मीदवारों को कई बार जमानत तक बचाने के लाले पड़ गए. 2009 में नए परिसीमन के बाद अररिया संसदीय क्षेत्र का गणित पूरी तरह बदल गया. अररिया सामान्य सीट घोषित हुई, तो 40 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका अहम हो गई. 60 प्रतिशत हिंदू मतदाता गोलबंद हुए, तो भाजपा उम्मीदवार प्रदीप सिंह ने 2009 के चुनाव में बाजी मार ली, लेकिन 2014 में भाजपा का गणित गड़बड़ा गया. देश भर में मोदी लहर के बावजूद अररिया में सीमांचल के चर्चित मुस्लिम नेता तस्लीमुद्दीन ने बतौर राजद उम्मीदवार जीत दर्ज की. भाजपा उम्मीदवार प्रदीप सिंह को दो लाख 61 हजार 474 और तस्लीमुद्दीन को चार लाख सात हजार 998 वोट मिले. भाजपा और राजद को मिले वोटों का अंतर बहुत बड़ा था, लेकिन उसमें एक पेंच यह था कि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू भाजपा से अलग थी. जदयू उम्मीदवार विजय कुमार मंडल को भी दो लाख 21 हजार 769 वोट मिले थे. अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू उम्मीदवारों को मिले वोट आपस में जोड़ दिए जाएं, तो आंकड़ा चार लाख 83 हजार 243 पर जाकर ठहरता है. यानी राजद उम्मीदवार तस्लीमुद्दीन से ७५ हजार अधिक वोट भाजपा और जदयू उम्मीदवारों ने मिलकर झटके थे.

राजद के सांसद तस्लीमुद्दीन के निधन से रिक्त हुई अररिया सीट के लिए 2018 में उपचुनाव हुआ, तब तक नीतीश कुमार भाजपा के साथ आ चुके थे. उपचुनाव में भाजपा-जदयू गठबंधन के उम्मीदवार बने प्रदीप सिंह. वहीं राजद ने तस्लीमुद्दीन के बेटे सरफराज आलम को अपना उम्मीदवार बनाया. सरफराज जोकीहाट से जदयू के विधायक थे. उन्होंने लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए जदयू से इस्तीफा दे दिया. इस उपचुनाव में माहौल भाजपा-जदयू गठबंधन उम्मीदवार प्रदीप सिंह के पक्ष में लग रहा था, लेकिन नतीजा राजद के पक्ष में गया. भाजपा को कुल चार लाख 47 हजार 346 वोट मिले और राजद उम्मीदवार सरफराज ने पांच लाख नौ हजार 334 वोट हासिल कर 61 हजार 988 वोटों के अंतर से जीत दर्ज कराई. आंकड़े बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में 2018 के उपचुनाव में भाजपा-जदयू गठबंधन उम्मीदवार प्रदीप सिंह को 35 हजार 867 वोट कम मिले, वहीं राजद के पक्ष में 1,01,356 वोट बढ़ गए. उपचुनाव के आंकड़े से साफ था कि भाजपा-जदयू खेमे के वोट भी राजद में चले गए. अररिया संसदीय क्षेत्र में 40 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं, जिन्होंने गोलबंद होकर राजद उम्मीदवार सरफराज आलम का साथ दिया. वहीं 60 प्रतिशत हिंदू मतदाताओं में एक बड़ा हिस्सा यादवों का है. आंकड़े बताते हैं कि बड़ी संख्या में यादव मतदाताओं ने राजद की लालटेन का बटन दबाया. राष्ट्रीय जनता दल उम्मीदवार सरफराज आलम फिर से मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे मैदान मारने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. भाजपा ने अपने पुराने योद्धा प्रदीप सिंह को मैदान में उतारा है.