केंद्र सरकार ने खरीफ की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी है। मोटे तौर पर धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में करीब 13 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है, पिछले साल के मुकाबले। यह सबसे महत्वपूर्ण फसल है और इसमें आम तौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद हो जाती है। दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में करीब 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई है। सोया के भाव करीब 11 प्रतिशत बढ़ाए गए हैं। बाजरे में यह बढ़ोतरी करीब 37 प्रतिशत की रही है। ज्वार में यह बढ़ोतरी 43 प्रतिशत की रही है। मक्का में यह बढ़ोतरी 19 प्रतिशत की रही है। इन घोषणाओं के कार्यान्वयन के लिए सरकार को करीब 15,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च वहन करना पड़ेगा।

गन्ना बनाम जिन्ना का संदर्भ
जैसा प्रत्याशित था, सरकार ने इस बढ़ोतरी को अभूतपूर्व करार दिया है और विपक्ष ने इसे जुमला घोषित कर दिया है। खेती इस तरह से खबरों में नहीं होती। न्यूनतम समर्थन मूल्य की खबरें आम तौर पर वित्तीय आर्थिक अखबारों के पहले पेज पर और सामान्य अखबारों के आखिरी पेजों पर होती रही हैं। पर लोकसभा चुनावों से ठीक पहले के साल में खेती से जुड़ी छोटी से छोटी खबर इन दिनों पहले पेज की खबर है। खेती की हर खबर में अर्थशास्त्र देखा जा रहा है और उस अर्थशास्त्र के राजनीतिक निहितार्थ देखे जा रहे हैं। कुछ समय पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आयोजित कैराना-उपचुनाव में गन्ना बनाम जिन्ना संदर्भ आया। गन्ने के भावों को लेकर किसान परेशान थे, जिन्ना को लेकर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की चर्चा थी। गन्ना इस मुल्क में राजनीति का विषय है इसलिए गन्ने के मामले बुरी तरह उलझ गए हैं।
केंद्र सरकार ने खरीफ की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की, तो यह घोषणा व्यापक चर्चा चिंतन का विषय बनी। वजह साफ है। चुनाव सिर पर हों, तो किसान की याद करना हर पार्टी का नैतिक और राजनीतिक कर्तव्य बन जाता है।

खरीफ की फसलों के लिए सरकार ने जो घोषणाएं की हैं, उनमें सरकार के मुताबिक पुराना वादा पूरा कर दिया गया है, जिसमें लागत की डेढ़ गुनी कीमत की बात की गई थी। यानी अगर लागत सौ रुपये होगी, कीमत कम से कम डेढ़ सौ रुपये रखी जाएगी। सरकार इस वादे पर खरी उतरती दिखती है। पर मसला सिर्फ यह नहीं है। तमाम तरह की लागतें हैं तमाम तरह की कीमतें हैं। तमाम तरह की समस्याएं हैं।

न्यूनतम समर्थन मूल्य के मायने
समर्थन मूल्य मोटे तौर पर वह व्यवस्था है जिसके जरिये सरकार संकेत देती है कि इस तय कीमत से नीचे दाम पर संबंधित फसल नहीं बिकनी चाहिए। जैसे अगर सामान्य धान का समर्थन मूल्य हाल में घोषित किया गया है-1,750 रुपये प्रति कुंतल। तो सरकार की मंशा है कि यह कीमत कम से कम किसान को मिले। यानी सरकार इस मूल्य का समर्थन करती है अगर बाजार में यह कीमत किसान को नहीं मिलेगी, तो सरकार खुद खरीदेगी। सरकार की इस घोषणा से यह पक्का हो जाता है कि यह घोषित न्यूनतम कीमत किसान को मिल ही जाएगी। समर्थन मूल्य की घोषणा एक बात है, पर उसका कार्यान्वयन दूसरा मसला है। ऐसी भी रिपोर्टंे आती हैं कि समर्थन मूल्य की घोषणा हो गई, पर उस कीमत पर खरीदार बाजार में नहीं है। सरकार खुद भी नहीं खरीद पा रही है उस कीमत पर। ऐसी सूरत का एक इंतजाम मध्य प्रदेश सरकार ने निकाला भावांतर स्कीम के नाम से। यानी सरकार अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदारी न कर पा रही हो, तो बाजार भाव और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी भाव का अंतर सरकार किसान को दे देगी। बाजार में अगर धान 1500 रुपये कुंतल पर आ गया है और सरकार 1750 रुपये कुंतल के समर्थन मूल्य पर खरीद न कर पा रही हो, तो 250 रुपये के भाव का अंतर सरकार किसान को दे देगी। मध्य प्रदेश सरकार की इस भावांतर स्कीम के कई पहलू सामने आए हैं, जिन पर व्यापक चर्चा होनी बाकी है। भावांतर स्कीम किसी भी सरकार के खजाने पर बहुत असर डालती है। खजाने की बड़ी रकम इस पर जाने के कारण बाकी विकास कार्यों के लिए कितनी रकम बच पाती है, यह अपने आप में एक अलग सवाल खड़ा हो जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अगर बाजार कीमतें समर्थन मूल्य के मुकाबले 20 प्रतिशत कम हो जाएं तो भावांतर जैसी स्कीम पर अमल के लिए ही एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का खर्च करना होगा। यह बहुत बड़ी रकम है। पर कुल मिलाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को संकेत है कि सरकार संबंधित फसल के भाव घोषित मूल्य से नीचे नहीं जाने देना चाहती।

महंगाई बनाम किसान हित
तमाम फसलों की कीमतों से जुड़े कई पेंच हैं, जिन्हें समझकर खेती की स्थिति को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। महंगाई बढ़ती है लगभग हर सेवा और सामान की कीमतों में। जैसे डॉक्टर की फीस बढ़ जाती है, लोग देने को तैयार हो जाते हैं। मकानों के किराये बढ़ते हैं, लोग देने को तैयार हो जाते हैं। स्कूटर, कार, ट्रक के भाव बढ़ते हैं, लोग देने के तैयार हो जाते हैं पर खाने की वस्तुओं के भावों में बढ़ोतरी संवेदनशील मुद्दा है। चावल गेहंू के भाव आसमान छू जाएं, तो किसानों का हित सध सकता है पर कोई सरकार ऐसा नहीं होने दे सकती क्योंकि इस सूरत में सरकार के अपने हित खतरे में पड़ जाएंगे। इस मुल्क को याद है कि नमक के भावों और प्याज के भावों पर सरकारें गिरी हैं। सरकार के हित में है कि किसानों को न्यूनतम मिले पर किसान के हित में है उसे अधिकतम मिले। जैसे ही किसी खाद्य आइटम के भाव देश में बढ़ने लगते हैं सरकारें आयात करना शुरू कर देती हैं। यानी किसान को बाजार आधारित महंगाई का फायदा नहीं मिल पाता है, जबकि बाजार आधारित महंगाई के नुकसान उसे लगातार झेलने पड़ते हैं। किसान के बेटे की स्कूल फीस बाजार भाव से बढ़ती है। किसान जो दवाई खाता है, वह बाजार भाव से महंगी होती जाती है। इस पूरे तंत्र में किसान बाजार का शिकार है, बाजार जहां किसान के हित में काम करना शुरू करता है यानी उसके उत्पाद के भाव बढ़ना शुरू होते हैं, वहीं पर सरकार आ जाती है और उस आइटम का आयात शुरू कर देती है। यह सिलसिला लगातार चलता जाता है। परेशान किसान अपना आलू, प्याज टमाटर सड़क पर फेंक कर चला जाता है। नाराज किसान का फायदा विपक्षी दल उठाते हैं और उन्हें बताते हैं कि यह सरकार ही बेकार है। वह विपक्षी दल जब खुद सरकार में आ जाता है, तो समझ में आता है कि मुफ्त बिजली पानी के वादे, कर्जमाफी के वादे समस्या का हल नहीं हैं। क्योंकि समस्या यह है कि किसान को उसके आइटमों को बाजार आधारित भाव नहीं मिल पाता। ऐसी व्यवस्था बने कि किसान अपनी मर्जी से भाव वसूल सके, जैसे बाकी उद्योगपति वगैरह करते हैं और आर्थिक तौर पर विपन्न तबके के लिए सस्ते अन्न का इंतजाम हो, राशन की दुकान इसीलिए स्थापित की गई थी। पर राशन की दुकान की बदहाली एक अलग विषय है।

कर्ज माफी के मसले
अर्थशास्त्र के अपने नियम होते हैं, राजनीति की अपनी विवशताएं होती हैं। यूपी में चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने किसानों की कर्जमाफी का दांव खेला करीब 36,000 करोड़ रुपये की यूपी के किसानों की कर्जमाफी का मसला अब सिर्फ यूपी का नहीं रहा। कर्नाटक में अभी हाल में कुमार स्वामी ने किसानों के कर्ज की माफी पर काम शुरू किया है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को बार बार विपक्षी दल याद दिला रहे हैं कि कर्ज माफी कीजिए जल्दी कीजिए। भाजपा के आंतरिक विरोधियों जैसे शिवसेना और बाहरी विरोधियों जैसे कांग्रेस को पूरा मौका मिला है कि जहां-जहां भाजपा सरकार है, वहां पर किसानों के कर्ज की माफी की मांग को बुलंद करें। कर्जमाफी की मांग ऐसी मांग है, जिसका विरोध करते हुए कोई राजनीतिक पार्टी दीखना नहीं चाहती है। कुछ सालों में फिर कर्ज और फिर कर्जमाफी- ये ही सिलसिला चलता रहता है। खेती की समस्याओं का पक्का हल नहीं निकलता। राजनीति के कई आयाम हैं। विजय माल्या 9,000 करोड़ रुपये कर्ज लेकर भाग सकते हैं तो किसानों की कर्जमाफी में क्या दिक्कत है। कर्जमाफी और समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी ये दो उपाय ऐसे हैं जिन पर लगातार चर्चा होती रहती है। कर्जमाफी को लगातार उपाय के तौर पर प्रयुक्त करने के खतरे क्या हैं, समर्थन मूल्यों में लगातार बढ़ोतरी के परिणाम क्या हैं, इन पर व्यापक चर्चा अभी नहीं हो पाई है।

बहुत गहराई से देखें, तो खेती की समस्या कर्ज नहीं है, बल्कि समस्या यह है कि किसानों को उनकी उपज का सही भाव नहीं मिल पाता है। उपज का सही भाव मिले, किसान कमाए, तो कर्ज भी चुका सकता है। उपज का भाव नहीं मिलता तो रियायती कर्ज भी चुका पाना असंभव हो जाता है। कुछ आंकड़े देखें- दिसंबर, 2015 से दिसंबर, 2016 के बीच अरहर की दाल की कीमत में 63 प्रतिशत की कमी आई। कुछ समय पहले अरहर उपभोक्ता के लिए हाहाकार मचा रही थी अब सस्ती अरहर किसान के लिए हाहाकार मचा रही थी। एक चक्र है। एक बरस किसी वस्तु के दाम आसमान छूते हैं, पब्लिक हाहाकार करती है। अगले साल वह वस्तु इतनी उपजती है कि खरीदार नहीं मिलते और किसान उन आइटमों को सड़क, रेलवे ट्रैक पर फेंक रहे होते हैं। कुछ समय पहले मध्य प्रदेश में सोयाबीन 2500-2700 रुपये प्रति कुंतल पर बिक रहा था, इसकी लागत 3,000 रुपये प्रति कुंतल है। इस अर्थशास्त्र पर काम कर रहे किसी भी व्यक्ति को कितना भी कर्ज दो, चुका पाना असंभव है। यही वजह है कि जो मध्य प्रदेश खेती के विकास में दस फीसदी से ज्यादा की दर का दावा करता है, वहां किसान अपने अर्थशास्त्र को लेकर उद्वेलित हैं। कर्ज किसान को परेशान करेगा ही।

किसानों की आत्महत्या पर कुछ समय पहले किताब आई है- जिसके शीर्षक का हिंदी में आशय है- विदर्भ की विधवाएं। किताब पढ़कर कोई शहरी स्तब्ध रह सकता है जितनी रकम में एक बढ़िया एप्पल का फोन आता है, उसकी आधी रकम के कर्ज के लिए गांव में किसान आत्महत्या कर लेता है। पेज 106 में दर्ज है कि गणेश सावनकर पचास हजार का एक कर्ज बैंक को वापस करने में असमर्थ था और निजी साहूकारों का कुछ कर्ज भी था उसके ऊपर। किसान की आत्महत्या के बाद की खबर यह होती है कि गणेश सावनकर की विधवा जयश्री ने बताया कि जिन कर्जों की वजह से उनके पति ने आत्महत्या की, उन्हीं कर्जों की अदायगी की मांग निजी साहूकारों ने की। यानी संस्थागत उधारी की व्यवस्था छोटे किसान तक नहीं पहुंच रही है। इस वजह से वह निजी साहूकारों पर निर्भर है। यह खेती की समस्या का विकट एंगल है।

दीर्घकालीन हल
किसी भी मसले का अर्थशास्त्र अगर दुरुस्त नहीं है, तो दीर्घकालीन हल नहीं आ सकते। कुछ समय बाद फिर कर्जमाफी की मांग उठेगी। सोचना यह है कि किसानों की कीमत का अर्थशास्त्र दुरुस्त कैसे हो। किसानों से टमाटर लेकर कैचप बनाने वाली कंपनी अगर भरपूर मुनाफे में है, किसानों से आलू लेकर चिप्स बनाने वाली कंपनी अगर धुआंधार मुनाफे में है, तो इस मुनाफे का बड़ा हिस्सा किसान को क्यों नहीं मिलता। इस सवाल का जवाब आर्थिक और मार्केटिंग के समीकरणों में छिपा है। बाजार में ब्रांड कमा रहे हैं, दूधवाले नहीं कमाते, जितना अमूल का ब्रांड कमाता है। यानी अमूल जैसे गुजरात के तजुरबों को पूरे भारत में लाने की जरूरत है। सब कमाएं। छोटा किसान भी कमाए, उसके आलू को चिप्स में बदलकर ब्रांडेड चिप्सवाला भी कमाए। इस पूरी चेन में अभी किसान को जगह नहीं है। अभी सारी मलाई बिचौलियों की है या कारोबारियों की है। आलू खेत से दो रुपये किलो चलता है दिल्ली में तीस रुपये किलो भी बिकता है। दो रुपये और तीस रुपये में फर्क 28 रुपये का है। यह 28 रुपये किसान को नहीं मिल रहे हैं। इसके अलावा सरकार को यह भी देखना है कि अगर बाकी आइटमों में महंगाई बर्दाश्त करने के लिए अर्थव्यवस्था का एक तबका तैयार है, तो खेती से जुड़े आइटमों में वो महंगाई क्यों बर्दाश्त नहीं करेगा। इस मुल्क के जिस हिस्से के सामने खाद्य पदार्थों का संकट है, उसे सस्ते गेहूं-चावल दिए जाने की व्यवस्था है और वह व्यवस्था और दुरुस्त होनी चाहिए। इस मुल्क का बड़ा हिस्सा अगर बच्चों की स्कूल की फीस, डॉक्टरों की फीस, सिनेमा के बढ़े भाव बर्दाश्त करता है, तो उसे गेहूं, अरहर के बढ़े भाव बर्दाश्त करने में क्या दिक्कत है। पर इस सवाल का जवाब यह है कि गेहूं, अरहर या और आइटमों के भावों को न गिरने देने के लिए उन्हें रोककर रखने की सामर्थ्य किसानों में होनी चाहिए, तभी तो वो कीमत वसूल पाएंगे। छोटा किसान तो जैसे तैसे जो भाव मिले, उस पर बेचकर निकल लेते हैं। यानी रुके रहने की शक्ति तब ही आएगी जब व्यापक संगठन होगा- अमूल जैसा। यानी संगठित तौर पर काम करना होगा। बाजार का नियम है कि छोटे की पिटाई होती है। बाजार का यह नियम आप तोड़ नहीं सकते। संगठित कंपनियां, संगठित सहकारी संगठन अपने हिसाब से खरीद-बेच सकता है, पर छोटा किसान यह नहीं कर सकता। तो छोटे किसान को मिलकर बड़ा बनना होगा। हाल में आए आर्थिक सर्वेक्षण में साफ किया गया था कि खेती का विकास मुश्किल से साल में दो प्रतिशत हो पा रहा है। मुल्क के सकल घरेलू उत्पाद में खेती और संबंधित क्षेत्रों का अनुपात करीब 15 प्रतिशत है, पर इस पर आश्रित लोगों की जनसंख्या मुल्क की जनसंख्या की करीब 65 प्रतिशत है। गरीबी के सूत्र यहां से मिलते हैं। खेती-किसानी बेहतर नहीं होगी, तो गरीबी पूरे तौर पर उन्मूलित करना मुश्किल होगा। प्रधानमंत्री मोदी किसानों की आय दोगुनी करने की जो बात करते हैं, उसमें गरीबी के पूरे उन्मूलन के सूत्र छिपे हैं। पर बातों से गरीबी दूर होनी होती, तो जाने कब की हो गई होती। खेती किस तरह से लाभप्रद हो, इस विषय पर ठोस कर्म की जरूरत है। एक बरस टमाटर इतना सस्ता कि किसान सड़क पर फेंक रहा है, दूसरे बरस इतना महंगा कि खरीदनेवाला रो रहा है। यह सब बदले तो किसान को भी राहत मिले और खरीदनेवाले को भी। किसानों की स्थिति पर अभी बहुत ठोस काम होना बाकी है। पर खेती की हालत को बेहतर बनाए बगैर गरीबी पर अंतिम चोट नहीं की जा सकती। खेती किसान को इतना गरीब बना रही है कि कुछ आत्महत्या तक करने की ओर चले जाते हैं। तो खेती पर एक व्यापक अभियान छेड़े जाने की जरूरत है। संसद में आठ-दस दिन का अधिवेशन सिर्फ खेती पर हो तो इससे जुड़े हर पक्ष पर चर्चा संभव हो।