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कांग्रेस के कद्दावर नेता निखिल कुमार का टिकट भी क्षेत्रीय दलों के गठबंधन में काटकर दूसरे को दे दिया गया. निखिल मगध में कांग्रेस की साख बचाने की अंतिम उम्मीद थे. उनके पिता पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह सबसे अधिक सात बार यहां से सांसद रहे. 1999 में उनकी पत्नी श्यामा सिंह कांग्रेस से सांसद बनीं.2004 में निखिल कुमार जीते थे. निखिल राज्यपाल भी बनाए जा चुके हैं.

प्राचीन काल से ही मगध देश-प्रदेश की राजनीति का केंद्र रहा है. आजादी के बाद भी मगध अपनी मजबूत राजनीतिक धारा के कारण चर्चा में रहा है. चुनावी राजनीति में मगध शुरू से लेकर 1989 तक कांग्रेस का एक मजबूत गढ़ रहा है. चार संसदीय सीटों वाले मगध के किसी क्षेत्र से कभी-कभार ही दूसरे दल के नेता जीत पाते थे.1989 में वीपी सिंह द्वारा कांग्रेस से बगावत के बाद राजनीति की दिशा ही बदल गई, जिसका असर मगध पर भी पड़ा. साल १९९० के बाद मगध की चार संसदीय सीटों गया, नवादा, औरंगाबाद एवं जहानाबाद के चुनाव में कांग्रेस को बहुत कम देखा गया. केवल औरंगाबाद संसदीय सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी नजर आते थे, लेकिन 2019 के चुनाव में तो मगध से कांग्रेस का नामोनिशान मिट गया है. कांग्रेस के कद्दावर नेता निखिल कुमार का टिकट भी क्षेत्रीय दलों के गठबंधन में काटकर दूसरे को दे दिया गया.

निखिल मगध में कांग्रेस की साख बचाने की अंतिम उम्मीद थे. उनके पिता पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह सबसे अधिक सात बार यहां से सांसद रहे. 1999 में उनकी पत्नी श्यामा सिंह कांग्रेस से सांसद बनीं.2004 में निखिल कुमार जीते थे. निखिल राज्यपाल भी बनाए जा चुके हैं. इसी तरह गया में 1977 के बाद 1980 एवं 1984 में कांग्रेस के राम स्वरूप राम सांसद निर्वाचित हुए. 2009 में यहां से कांग्रेस के संजीव प्रसाद टोनी चुनाव लड़े और तीसरे स्थान पर रहे थे. बाद के चुनावों में भाजपा और राजद की पकड़ मजबूत होती गई.

नवादा संसदीय क्षेत्र भी कांग्रेस का गढ़ माना जाता था. 1980 एवं 1984 में कांग्रेस के कुंवर राम यहां से जीते थे, लेकिन बाद के चुनावों में राजद से गठबंधन के चलते कांग्रेस की यह सीट भी उसके हाथ से चली गई. कांग्रेस ने पिछले ढाई दशकों से यहां अपनी दावेदारी पेश नहीं की. जहानाबाद से भी आखिरी बार 1980 में कांग्रेस के महेंद्र प्रसाद उर्फ किंग महेंद्र सांसद निर्वाचित हुए थे. बाद के दिनों में एक जाति विशेष के बहुसंख्यक वोटरों का रुख भाजपा की ओर हुआ, तो फिर यहां से कांग्रेस की जीत नहीं हो सकी.

मगध ही क्या, पूरे बिहार में कांग्रेस की मौजूदा दुर्गति की मुख्य वजह यह है कि दूसरे दलों से आए नेताओं का वर्चस्व बढ़ता गया, पार्टी में समर्पित कार्यकर्ताओं-नेताओं की उपेक्षा होने लगी.1990 के बाद कुछ नेता अचानक बदले राजनीतिक समीकरण में धैर्य का परिचय नहीं दे सके और 1995 का विधानसभा चुनाव आते-आते राजद से तालमेल करके निजी हित साधने लगे. नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का वोट बैंक बिखरता चला गया. बीते ४ अप्रैल को पटना स्थित कांग्रेस मुख्यालय सदाकत आश्रम में बिहार के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल एवं राज्य चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह के विरोध में निखिल समर्थकों ने जमकर हंगामा किया और उन्हें करकट से टिकट देने की मांग की. अगर यही स्थिति रही, तो सचमुच मगध के लोग भूल जाएंगे कि कांग्रेस नामक कोई पार्टी भी यहां से चुनाव लड़ती थी.