बनवारी

एक सामाजिक समस्या के राजनीतिकरण के क्या परिणाम हो सकते हैं, यह दलित शब्द को लेकर छिड़े हुए संग्राम से देखा जा सकता है। एक याचिका पर विचार करते हुए मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने केंद्र सरकार से कहा था कि वह अनुसूचित जातियों के लिए दलित शब्द का व्यवहार करने के औचित्य के बारे में सोचे। इसी तरह का एक सुझाव मध्य प्रदेश का उच्च न्यायालय भी दे चुका है। इस पर विचार करके केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सभी टी.वी. चैनलों से आग्रह किया कि वे अनुसूचित जातियों के लिए दलित शब्द का व्यवहार न करें। समाज कल्याण मंत्रालय ने भी एक परिपत्र जारी करके सब सरकारी प्रतिष्ठानों को निर्देश दिया था कि वे संविधान में उल्लिखित अनुसूचित जाति शब्द का ही व्यवहार करें और दलित शब्द का व्यवहार न किया जाए। इस पर दलित संगठनों और दलित नेताओं ने घोर आपत्ति की। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने यहां तक घोषणा कर दी कि वे इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे। दलित नेताओं ने कहा कि अब यह शब्द उनकी पहचान बन गया है। अनुसूचित जाति कहने से उनकी कोई पहचान नहीं बनती। अनुसूचित जाति के आधार पर सरकार निचली जातियों को कुछ सुविधाएं देकर सामाजिक सुधार का मार्ग अपना रही है। जबकि दलित आंदोलन समाज सुधार में विश्वास नहीं रखता। वह समाज परिवर्तन चाहता है। यह एक विद्रोही स्वर अवश्य है, लेकिन यह तर्क देते हुए दलित नेता भूल जाते हैं कि समाज परिवर्तन का अर्थ समाज की दृष्टि में परिवर्तन ही हो सकता है। समाज की दृष्टि में परिवर्तन उसकी दृष्टि में सुधार ही है। इसलिए एक शब्द को लेकर पैदा हुए इस विवाद का कोई आधार नहीं है।
दलित शब्द पर आपत्ति करने वाले लोग भी निचली मानी जाने वाली जातियों के ही हैं। उनका कहना है कि दलित शब्द एक तरह की हीनता का बोधक है। यह शब्द उन्हें स्थायी तौर पर एक हीन कोटि में डाल देता है। निचली मानी जाने वाली जातियों के अधिकांश लोगों की भी यही भावना है। उन्हें अपने में यह आत्मविश्वास है कि वे अच्छी शिक्षा या अपने कौशल के बल पर समाज में अपनी स्थिति सुधार कर औरों के बराबर आ सकते हैं। अब शहरी क्षेत्रों में तो कोई यह नहीं पूछता कि आपकी जाति क्या है। गांवों में सबको सबके बारे में मालूम होता है। लेकिन यह जो धारणा बना दी गई है कि समाज में निचली जाति के लोगों पर सदा अत्याचार ही होते रहे हैं, यह पूरी तरह सही नहीं है। जातीय प्रताड़ना की भावना को अंग्रेजी काल में खूब प्रचारित किया गया था। अंग्रेजों ने यह पाया कि भारतीय समाज में छुआछूत है और उसके आधार पर भेदभाव होता है। इसे उन्होंने एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उपयोग करना आरंभ किया। 1857 से पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद उनकी सारी कोशिश भारतीय समाज को विभाजित करने की थी। उसका एक आधार तो हिन्दू और मुसलमानों के बीच बने हुए सामाजिक पूर्वाग्रह थे। एक लम्बे समय तक मुस्लिम शासन में रहने के बावजूद हिन्दू सामाजिक रूप से अपने आपको श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय समाज को बांटने का दूसरा आधार उन्हें जातीय भेदभाव में मिल गया। यह आवश्यक नहीं था कि जातीय भेदभाव हमेशा उत्पीड़न में फलित हो। लेकिन अंग्रेजों ने उसे यह रूप दे दिया। उन्होंने उन्हें डिप्रेस्ड क्लासेज कहना आरंभ किया। फिर यह तय किया गया कि उन जातियों की एक सूची बनाई जाए। अंग्रेज चाहते थे कि इन जातियों का एक राजनीतिक वर्ग बनाकर वे उन्हें शेष हिन्दू समाज से अलग कर देंगे। सूची बनाते समय उन्होंने इन जातियों को अलग से राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात भी उठाई। बाद में गोलमेज कांफ्रेेंस में सवर्ण, अवर्ण और अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के नाम पर भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने के कांग्रेस के अधिकार को अमान्य करने और भारतीय समाज को विभाजित करने की नींव डाल दी गई।
अंग्रेज प्रशासक जब डिप्रेस्ड जातियों के नाम पर एक अनुसूची बनाने का प्रयत्न कर रहे थे तो उसका उन्हीं जातियों द्वारा बहुत विरोध किया गया। उन जातियों के नेताओं और उनकी पंचायतों का कहना था कि वे तो विपत्तिवश उन व्यवसायों में आ गए हैं, जिन्हें समाज में और व्यवसायों से कुछ हीन माना जाता है। उनके पुरखे उच्च जातियों के थे। उन्हें अनुसूची में डालकर उन पर स्थायी हीनता आरोपित की जा रही है। इन जातियों की प्रतिक्रिया इतनी तीखी थी कि उन्होंने अपने जाति नाम के आगे राजपूूत आदि शब्द लगाने आरंभ कर दिए। उदाहरण के लिए लोध अपने आपको लोध राजपूत कहने लगे। इन जातियों के अनेक लोगों ने अपने नामों के आगे शर्मा, वर्मा या गुप्ता आदि लगाना आरंभ कर दिया। ब्रिटिश सरकार को इन सभी जातियों की ओर से बहुत सारे ज्ञापन दिए गए। वे ज्ञापन आज भी अभिलेखागार में देखे जा सकते हैं। यह सब लोग मानते थे कि जातीय नाम व्यवसायगत हैं। लेकिन ऐसा नहीं होता कि किसी व्यावसायिक जाति के सभी लोग उसी व्यवसाय में लगें। सभी परिवारों में अलग-अलग प्रतिभा और कुशलता के लोग पैदा होते रहते हैं। वे अपनी प्रतिभा और कुशलता के आधार पर कोई और व्यवसाय चुन सकते हैं। जब तक वे उसी क्षेत्र में रहते हैं, उनकी व्यावसायिक जाति का नाम उनसे चिपका रहता है। पर किसी और क्षेत्र में जाकर वे अपने व्यवसाय के अनुरूप अपना जाति नाम बदल सकते हैं। इस तरह जातियां कोई स्थिर इकाइयां नहीं रही हैं। उनमें विभिन्न कुलों का आना-जाना लगा रहता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी जाति को शिक्षा प्राप्त करने या उत्पादक संपत्ति हासिल करने और व्यवसाय बदलने से रोका नहीं जाता। बल्कि गांव में इस बात का ध्यान रखा जाता रहा है कि सबके पास कुछ न कुछ खेती की जमीन हो या कोई स्थायी व्यवसाय हो, ताकि वे गांव में बने रहें और उसे यथासंभव आत्मनिर्भर बनाते हुए पूर्णता प्रदान करें। अंग्रेजों ने 19वीं सदी के आरंभ में पंजाब, कलकत्ता और मद्रास प्रेसीडेंसी में शिक्षा संबंधी सर्वेक्षण करवाए थे। श्री धर्मपाल ने उन्हें अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ब्यूटीफुल ट्री में दिया है। इन सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि भारतीय विद्यालयों में न केवल छात्रों में निचली बताई गई जातियों का अच्छा प्रतिनिधित्व था बल्कि शिक्षकों में भी उन जातियों का अच्छा अनुपात था। इन सर्वेक्षणों से यह तो स्पष्ट है ही कि भारत में शिक्षा का जितना विस्तार था, उतना संसार में और कहीं नहीं था। भारत के गांव-गांव में विद्यालय थे और शिक्षा देते समय कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। शिक्षा में जिस भेदभाव की बात की जाती है, वह वेद के अध्ययन को लेकर है। लेकिन वेद में जो कुछ है वह अधिक सहज और सरल रूप में रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में है और उन्हें पढ़ने की किसी को मनाही नहीं है। जिन लोगों की आध्यात्मिक जिज्ञासा होती थी वे अक्सर कथा प्रवचनों के माध्यमों से ही वह ज्ञान प्राप्त कर लेते थे। साधकों में सभी जातियों के लोग थे और यह बात कबीर, रविदास आदि की अपने समय में जो ख्याति रही है, उसी से समझा जा सकता है।
भारतीय गांव के बारे में हमारे पढ़े-लिखे लोगों में भारी अज्ञान फैला हुआ है। सभी गांवों में अनेक जातियों के लोग रहते हैं। अपनी पंचायतों के द्वारा वे जातियां न केवल आंतरिक अनुशासन बनाए रखती थीं, बल्कि अपने ऊपर होने वाले अन्याय का प्रतिकार भी करती थीं। गांव के भीतर अनेक तरह के बल थे। किसी जाति के परिवारों के पास खेती की जमीन अधिक थी तो किसी के पास व्यापार से मिली संपन्नता। किसी जाति को अपनी संख्या का अभिमान रहता था तो किसी जाति में कोई साधु स्वभाव का पुरुष पैदा हो जाता था और वह उस जाति का मान बढ़ा देता था। गांव में अनेक तरह के कौशल थे, जो परिवारों को एक-दूसरे पर निर्भर बनाते थे। भारतीय गांव इस तरह से संगठित थे कि हर जाति की कोई न कोई भूमिका थी। गांव की पहरेदारी का काम सामान्यत: निचली जाति के व्यक्ति को दिया जाता था। निचली जाति का व्यक्ति ही किसानों की उपज से उन भागों को अलग करता था जो सार्वजनिक व्यवस्थाओं को चलाने में काम आते थे। इस परंपरा से चली आ रही परिपाटी की कुछ क्षति मुस्लिम शासन में हुई। लेकिन अंग्रेजों ने तो अपना प्रशासनिक और सैनिक तंत्र ऊंची जातियों से ही बनाया था क्योंकि उनके यहां केवल कुलीन लोगों को राजकीय तंत्र में लिया जाता था। इससे समाज में एक तरह का असंतुलन पैदा हो गया। सरकारी तंत्र में गए ऊंची जाति के लोगों ने ब्रिटिश शासन के निर्देश पर अधिक से अधिक कर वसूलने के लिए विशेषकर निचली जातियों पर काफी अत्याचार किए। इससे अंग्रेजों ने दोहरा फायदा उठाया। उन्होंने अपने प्रशासन की क्रूरता को ढकने के लिए भारतीय समाज की विषमता को तूल देना शुरू किया।
भारतीय समाज में कुछ गंभीर दोष पैदा हो गए थे। उसका सबसे बड़ा दोष तो अस्पृश्यता ही थी, जो विधि नियम शुचिता के लिए बने थे और ब्राह्मण उनसे बंधे हुए थे उन्हें अन्य लोगों के स्पर्श से बचाने के लिए उन्हें अस्पृश्य बना दिया गया था। कालांतर में यह अस्पृश्यता उन जातियों पर भी डाल दी गई जो दूषणजन्य व्यवसायों में लगी थीं। मल या मृत चर्म से संबंधित व्यवसाय इसी श्रेणी में आते थे। इस तरह के व्यवसायों में लगे लोगों को ही नहीं उनकी पूरी जाति को अस्पृश्य बना दिया गया। यह सामाजिक अविवेक की ऐसी समस्या थी, जिसका कोई आसान हल नहीं था। उनसे सामाजिक भेदभाव किया जाने लगा। महात्मा गांधी को अपने साबरमती आश्रम तक में इस अविवेक से जूझना पड़ा। शुरू में स्वयं कस्तूरबा इस अविवेक से मुक्त नहीं थीं। इस तरह का अन्याय कब और कैसे आरंभ हुआ, इस पर बहुत माथापच्ची करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे उदाहरण हर काल में मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें समाज का अविवेक बताने वाले संत-महात्माओं और विवेकी पुरुषों की भी कभी कमी नहीं रही। इस अन्याय का शिकार समाज के दस-पंद्रह प्रतिशत लोग रहे। पर भारत की सभी जातियां स्वायत्त इकाइयां थीं। वे अपने अनुशासन में बंधी थीं और अपनी पंचायतों के द्वारा वे न्याय-अन्याय का भेद कर सकती थीं। इसलिए अस्पृश्यता और उससे पैदा हुआ भेदभाव सदा उत्पीड़न में बदलता रहा, यह धारणा अनुचित है। इन जातियों से सदा ऐसे लोग पैदा होते रहे, जिनका सबके द्वारा सम्मान हुआ। इन जातियों को अपने दायरे में पूरी स्वतंत्रता थी। समाज भी उन पर अनेक कामों के लिए निर्भर था। इसलिए उन्हें अधिक दबाया नहीं जा सकता था। सबसे बड़ी बात यह कि सभी जातियों में गतिशीलता बनी रहती थी। इसलिए यह कहना कि समाज के कुछ वर्ग सदा से दबाए कुचले जाते रहे हैं, सही नहीं है।
स्वतंत्र भारत में अस्पृश्यता और भेदभाव को अपराध बना दिया गया। यह सही है कि उसके बाद भी इन जातियों की अवमानना के उदाहरण सामने आते ही रहते हैं। ऐसी प्रवृत्तियों को सख्ती से दबाने की कोशिश की जानी चाहिए। यह जिम्मेदारी समाज की सभी संस्थाओं को उठानी चाहिए कि व्यवसाय के आधार पर ऊंच-नीच का निर्धारण न हो। लेकिन हमने अपने समाज और उसकी सभी संस्थाओं को तो निष्क्रिय बना रखा है। अंग्रेजों ने इस समस्या का राजनीतिकरण करना आरंभ किया था। आज यह राजनीतिकरण इतना बढ़ गया है कि समाज का हर वर्ग अपने आपको दलित या पिछड़ा बताकर राज्य से कुछ न कुछ सुविधाएं पाना चाहता है। हमारी राजनीति ने जातियों को कुछ वर्गों में बांटने की कोशिश की है। लेकिन वह सफल हो रही हो, यह दावा कोई नहीं कर सकता। दलित राजनीति के नाम पर जितने भी नेता उभरे वे केवल अपनी जाति के नेता भर रहे। पिछले सात दशक में गांव बदल गए हैं, व्यवसायों का स्वरूप बदल गया है। ये परिवर्तन अच्छे भी हैं और बुरे भी। पुरानी व्यवस्थाएं टूट रही हैं, लेकिन नई व्यवस्थाएं बन नहीं रहीं। गांव और जातियां समाज को एक नैतिक अनुशासन में बांधती रही हैं। आज हमारे पास ऐसी कोई संस्था नहीं है, जो समाज के नैतिक अनुशासन को बनाए रख सके। हमने जातीय विषमता का राजनीतिकरण करके जातीय पूर्वाग्रहों को और बढ़ा दिया है। दलित आंदोलन उसी की प्रतिक्रिया है। लेकिन वह नकारात्मक है और उससे किसी बड़े परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती। भारतीय समाज की मूल इकाई कुल है। कुलाचार ही उसकी आधारशिला है। इसे समझकर समाज का कुछ पुनर्गठन किया जा सकता है। लेकिन उसके लिए सामाजिक और आध्यात्मिक लोगों को भी सामने आना होगा। अभी की सभी कोशिशें विग्रहकारी हैं। समाज का पुनर्गठन करने के लिए सकारात्मक दृष्टि चाहिए।
भारत एक बहुजातीय समाज है। हर जाति अपने आपको स्वायत्त मानती है। विभिन्न अवसरों पर वे अन्य जातियों से समीकरण अवश्य बनाते हैं। लेकिन जातियों को राजनीतिक वर्गों में नहीं बदला जा सकता। अब तक निचली जातियों के जितने नेता उभरे हैं वे अपनी जाति के नेता भर होकर रह गए हैं। सभी निचली जातियों की गोलबंदी करने में वे कभी सफल नहीं हुए। भीमराव अम्बेडकर से कांशीराम तक सब चुनावी राजनीति में असफल ही रहे। मायावती की सफलता का कारण अग्रणी जातियों से किया गया एक राजनीतिक समझौता था। अब शायद ही वे उसकी पुनरावृत्ति कर पाएं। यह भी ध्यान देने की बात है कि भीमराव अम्बेडकर को न केवल जीवनभर अग्रणी जातियों के व्यक्तियों से प्रोत्साहन मिला, बल्कि उनका विवाह भी एक ब्राह्मण कन्या से हुआ। बाबू जगजीवन राम के पैर छूने में उनके क्षेत्र के ब्राह्मणों को कोई संकोच नहीं होता था। मायावती की तीखी भाषा और आक्रामक राजनीति के बावजूद उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनवाया था। यह भारतीय समाज के लचीलेपन का उदाहरण है। दूसरी तरफ जातीय अहंकार के उदाहरण भी काफी मिल जाएंगे। यह भी याद रखना चाहिए कि जातीय भेदभाव का शिकार केवल निचली जातियां नहीं रही। सभी जातियों के भीतर एक तरह का स्तरीकरण हो जाता है। ब्राह्मणों तक में ऊंच-नीच के अनेक कारण पनपते रहे हैं। लेकिन यह स्तरीकरण कोई स्थायी नहीं होता। यह सही है कि इसकी तुलना अस्पृश्यता से नहीं की जा सकती। वह तो भारतीय समाज का कलंक है ही। हमने निचली जातियों को एक वर्ग बनाकर और अनुसूचित जाति, हरिजन या दलित जैसे नाम देकर उनका कोई विशेष भला नहीं किया। उनमें एक स्थायी हीनताभर पैदा की है और अन्य लोगों में उनके प्रति पूर्वग्रह। ऊंच-नीच का भाव एक तरह का रोग है। भारतीय समाज जिन उदात्त धारणाओं पर गठित हुआ है, उसमें ऐसे भेदभाव की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। पर इस दोष को विग्रहकारी राजनीति के जरिये तो सुधारा नहीं जा सकता। 