दुरुपयोग का भय या बेवजह बवाल

अनूप भटनागर

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव नजदीक आने के साथ ही जहां अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न रोकथाम) संशोधन कानून में प्रदत्त गिरफ्तारी संबंधी प्रावधान के बारे में सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले से पहले की स्थिति बहाल करने के केंद्र सरकार के निर्णय के खिलाफ समाज के कई वर्ग एकजुट हो रहे हैं, वहीं इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के जुलाई 2014 के फैसले का हवाला देकर इस कानून के तहत किसी भी अपराध के लिए सात साल से कम की सजा होने की स्थिति में भी आरोपी को तत्काल गिरफ्तार न करने की व्यवस्था का पालन करने का निर्देश देकर सभी को चौंका दिया है। दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार के वकील ने हाई कोर्ट को भरोसा दिलाया कि शीर्ष अदालत के फैसले का पालन किया जाएगा। उनके इस आश्वासन से एक बात तो साफ हो गई है कि आने वाले समय में इस कानून के तहत दर्ज कराई गई शिकायत में लगे आरोपों में अगर सात साल से कम सजा का प्रावधान हुआ तो आरोपी को तत्काल गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। इसका यह भी अर्थ लगाया जा सकता है कि अदालत को दिया गया यह आश्वासन शायद समाज के दूसरे वर्गों में व्याप्त असंतोष को कम करने में मददगार हो।
अनूसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न से रोकथाम) कानून की धारा तीन में इन समुदायों के सदस्यों के प्रति दूसरे समुदाय के सदस्यों के कतिपय अपराधों को सूचीबद्ध किया गया है। इनमें कम से कम 15 तरह के अपराध ऐसे हैं जिनकी दोष सिद्धि होने पर छह महीने से लेकर पांच साल की सजा अथवा जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान है। इस तरह के अपराधों के लिए कानून में प्रदत्त सजा के प्रावधान के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट की 2 जुलाई, 2014 की व्यवस्था के बारे में भी जानना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने तब अपने फैसले में कहा था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में प्रदत्त प्रावधान के आलोक में सात साल या उससे कम सजा के दंडनीय अपराध में आरोपी को अनावश्यक गिरफ्तार न किया जाए। न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद (भारतीय प्रेस परिषद के मौजूदा अध्यक्ष) और न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष की पीठ ने 2 जुलाई, 2014 को अपने फैसले में कहा था कि ऐसे सभी मामलों में जहां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1) के तहत व्यक्ति को गिरफ्तार करने की आवश्यकता नहीं है तो ऐसे मामले में आरोपी को एक निश्चित स्थान और समय पर हाजिर होने के लिए पुलिस अधिकारी को उसे नोटिस देना होगा। ऐसे नोटिस के जवाब में आरोपी इसमें बताए गए स्थान पर नियत समय पर उपस्थित होने के लिए बाध्य है।
शीर्ष अदालत ने सभी राज्य सरकारों को अपने पुलिस अधिकारियों को यह हिदायत देने का निर्देश दिया था कि सात साल या उससे कम की सजा के दंडनीय अपराध के मामलों मेंं पुलिस पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में प्रदत्त पैमाने के तहत आरोपी की गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में खुद को आश्वस्त करे। शीर्ष अदालत ने इस फैसले में दंड प्रक्रिया संहिता में वर्ष 2009 में शामिल की गई धारा 41ए का जिक्र करते हुए कहा था कि किसी भी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करने अथवा ऐसे व्यक्ति के सिर पर लटक रही गिरफ्तारी की आशंका दूर करने के लिए ही इस धारा को जोड़ा गया था। यही नहीं, अदालत ने यह भी कहा था कि सभी पुलिस अधिकारियों को धारा 41(1)(बी) में दी गई सूची उपलब्ध कराई जाए और ये अधिकारी आरोपी को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करते समय उसकी गिरफ्तारी की आवश्यकता की वजहों और सामग्री के साथ यह सूची भी उन्हें सौंपेंगे। पीठ ने यह भी कहा था कि यह प्रावधान स्पष्ट करता है कि ऐसे सभी मामलों में जहां धारा 41(1) के तहत व्यक्ति की गिरफ्तारी जरूरी नहीं है, पुलिस अधिकारी को आरोपी एक निश्चित समय और स्थान पर पेश होने के लिए नोटिस देना होगा। उन मामलों में जहां ऐसा व्यक्ति नोटिस पर अमल करता है और इसका पालन करता है तो उसे नोटिस में उल्लिखित अपराध के सिलसिले में उस समय तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक कि पुलिस अधिकारी की राय में ऐसा करना जरूरी न हो। यदि ऐसा व्यक्ति किसी समय नोटिस का पालन करने में विफल रहता है या फिर खुद की शिनाख्त कराने का इच्छुक नहीं है तो सक्षम अदालत के आदेश से पुलिस अधिकारी नोटिस में दर्ज अपराध के आरोप में उसे गिरफ्तार कर सकता है।
शीर्ष अदालत की यह व्यवस्था हालांकि भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए (पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा विवाहिता को दहेज की खातिर उत्पीड़न) और दहेज निरोधक कानून की धारा चार के तहत दर्ज मामले में दी थी लेकिन न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ये निर्देश ऐसे सभी मामलों में लागू होगा जिनमें आरोपी को दंडनीय अपराध के लिए सात साल या उससे कम की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है। इस व्यवस्था पर कारगर तरीके से अमल सुनिश्चित करने और अनावश्यक ही किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की संभावना पर विराम लगाने के इरादे से न्यायालय ने इस फैसले की कॉपी सभी राज्यों के मुख्य सचिवों, पुलिस महानिदेशकों और हाई कोर्टों के रजिस्ट्रार जनरल के पास भेजने का भी निर्देश दिया था। यह तो स्पष्ट नहीं है कि इस फैसले पर राज्य की पुलिस ने किस सीमा तक अमल किया लेकिन हाल की कुछ घटनाओं से तो यही लगता है कि शायद उसे ऐसे निर्देशों की जानकारी नहीं है या फिर उसे इनसे अवगत ही नहीं कराया गया है।
सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले के बाद केंद्र सरकार ने राजनीतिक दबाव और वोट बैंक की राजनीति की वजह से अजा-अजजा (उत्पीड़न से रोकथाम) कानून के तहत शिकायत होने पर तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान फिर से बहाल कर दिया। संसद द्वारा अजा-अजजा (उत्पीड़न से रोकथाम) संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति की संस्तुति मिलते ही इस कानून की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है। आनन-फानन में बनाया गया यह कानून अब न्यायिक समीक्षा के दायरे में है। न्यायमूर्ति एके सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार से छह सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है लेकिन फिलहाल उसने इस कानून के अमल पर रोक नहीं लगाई है। इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं में दावा किया गया है कि राजनीतिक लाभ प्राप्त करने की मंशा से शीर्ष अदालत की व्यवस्था को निष्प्रभावी बनाया गया है। ऐसा करके मौजूदा सरकार ने भी शाहबानो प्रकरण में न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के तत्कालीन राजीव गांधी सरकार जैसी ही भूल की है।
एक बात समझ से परे है कि केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत के 20 मार्च के फैसले पर पहले की स्थिति बहाल करने का निर्णय करते समय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत वैयक्तिक स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने की आजादी के अधिकार की रक्षा के मुद्दे को पूरी तरह नजरअंदाज क्यों किया? शीर्ष अदालत ने तो अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा के साथ जीने के अधिकार की रक्षा करने और किसी को भी गलत तरीके से इस कानून के तहत फंसाने के प्रयासों पर अंकुश लगाने के लिए आरोपी को गिरफ्तार करने से पहले शिकायत की प्रारंभिक जांच करने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में कहा है कि अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा के साथ जीने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सर्वोपरि है और उन्हें इससे वंचित नहीं किया जा सकता है। मगर ऐसा लगता है कि चुनावी गणित और वोट बैंक की खातिर मौजूदा सरकार को इस मौलिक अधिकार की बलि देने से गुरेज नहीं है। सरकार की इसी मंशा का नतीजा है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जनआंदोलन शुरू हुआ जो कहीं न कहीं इस संशोधित कानून का दुरुपयोग होने की आशंका को लेकर व्याप्त भय और असंतोष को उजागर कर रहा है।
अजा-अजजा (उत्पीड़न से संरक्षण) संशोधन कानून में धारा 18ए शामिल करके उत्पीड़न की शिकायत के मामले में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करने या आरोपी को गिरफ्तार करने से पहले मंजूरी लेने का सुप्रीम कोर्ट का निर्देश निष्प्रभावी बनाते हुए धारा 18 के प्रावधान बहाल किए गए हैं। इसी तरह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 का प्रावधान भी इस कानून के तहत दर्ज मामले में लागू नहीं होगा। इस कानून के तहत दर्ज शिकायतों में से अधिकांश में आरोप साबित होने पर छह महीने से लेकर पांच साल तक की सजा हो सकती है लेकिन कुछ ऐसे भी आरोप हैं जिसमें आरोपी को मौत की सजा देने तक का भी प्रावधान है। वैसे मृत्युदंड दुर्लभ में भी दुर्लभतम मामले में ही दिया जाता है। ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि अजा-अजजा कानून के तहत दर्ज शिकायत के आधार पर आरोपी को तत्काल गिरफ्तार करने की आवश्यकता कहां है? एक सवाल यह भी है कि क्या अजा-अजजा कानून दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में प्रतिपादित मानदंड से बाहर है? अजा-अजजा ( उत्पीड़न की रोकथाम) कानून की धारा तीन में अत्याचार के अपराध के लिए सजा का प्रावधान है। इसके दायरे में शामिल अपराधों में अजा या अजजा का सदस्य न होते हुए भी इस वर्ग के किसी सदस्य को खाने के अयोग्य पदार्थ खाने या पीने के लिए बाध्य करना, उसे आहत करने के इरादे से उसके घर या पड़ोस में मानव मल, कचरा, मृत शरीर या कोई अन्य आपत्तिजनक वस्तु डालना, उसे अपमानित करने के लिए जबरन उसके कपड़े उतारना या निर्वस्त्र करना या चेहरा रंग कर परेड कराना या मानव गरिमा को ठेस पहुंचाने वाली कोई अन्य हरकत जैसे जबरन उनके खेत जोत लेना और गलत तरीके से उन्हें उनकी जमीन से बेदखल करना आदि शामिल है।
सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च के अपने फैसले में इस कानून के प्रावधान का दुरुपयोग होने और निर्दोष व्यक्तियों को झूठे मामले में फंसाए जाने की घटनाओं का जिक्र किया था और स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि शोषित वर्ग पर अत्याचार नहीं हो लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि इसके तहत बेवजह किसी निर्दोष व्यक्ति का शोषण भी न हो। संशोधित कानून के जोरदार विरोध को देखते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बचाव की मुद्रा में आ गए हैं। उन्होंने इसका दुरुपयोग न होने देने का आश्वासन दिया है। बावजूद इसके, यह सवाल महत्वूपर्ण है कि केंद्र सरकार ने इस कानून में संशोधन करते समय इसके तहत नागरिकों को झूठी शिकायतों की चपेट में आने से बचाने के लिए कोई प्रावधान करने पर विचार क्यों नहीं किया? उसने झूठी शिकायत दर्ज कराने की स्थिति में शिकायतकर्ता के खिलाफ उचित कार्रवाई या सजा या जुर्माना करने जैसा कोई प्रावधान क्यों नहीं किया? क्या सरकार यह मानती है कि इस कानून के तहत दर्ज कराई जाने वाली सारी शिकायतें पूरी तरह सही होती हैं? या फिर वह इस कानून का दुरुपयोग न होने के प्रति आश्वस्त है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल करते समय या फिर सुनवाई के दौरान सरकार इस कानून के तहत निर्दोष व्यक्तियों को झूठा फंसाए जाने के प्रयासों से सुरक्षा प्रदान करने के उपायों से भी उसे अवगत कराएगी ताकि इस कानून के दुरुपयोग की आशंकाओं पर विराम लग सके। 

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