विजय माथुर
सतही तौर पर तो लगता है कि चुनावी फिजां में कांग्रेस का पलड़ा भारी है, लेकिन थोड़ी गहराई में जाकर देखें तो पार्टी में एकता दिखावा भर है और स्थिति ढाक के तीन पात वाली ही बनी हुई है। जिस समय उपचुनावों में मिली सफलता को मजबूती प्रदान करने के लिए विधानसभा चुनावों की रणनीति पर सोच विचार किया जाना चाहिए, उस समय कांग्रेसजन नेतृत्व की दावेदारी तय करने की चिंता में ही दोहरे हुए जा रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस की कमान सचिन पायलट के हाथों में है लेकिन उनके समर्थक गहलोत और पायलट की खींचतान की हवाबाजी कर रहे हैं और इस खींचतान ने ‘मेरा बूथ, मेरा गौरव’ अभियान का तिया पांचा कर दिया है, जबकि प्रादेशिक फलक पर सचिन पायलट पार्टी की राजनीतिक पैठ का कितना विस्तार कर पाए, इसका जवाब नदारद है।
फिर भी सूबे गंवाती कांग्रेस के लिए इस बार के विधानसभा चुनाव राजस्थान फतह करने का पहला और आखिरी मौका हैं। राजनीतिक विश्लेषक दो टूक कहते हैं कि प्रदेश में विधानसभा चुनावों में भाजपा हार भी गई तो उसके लिए कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है, लेकिन यह मौका गंवाने के बाद कांग्रेस के पास अगले दस सालों तक सत्ता के कालीन पर पांव रखने का अवसर नहीं आने वाला। विश्लेषक कहते हैं कि, ‘लब्बोलुआब समझें तो राजस्थान कांग्रेस के लिए देश में सत्ता का प्रवेश द्वार खोल भी सकता है और बंद भी कर सकता है। एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के प्रादेशिक संस्करण के ताजा सर्वेक्षण का निचोड़ समझें तो अशोक गहलोत ही कांग्रेस को इस मुकाम पर खड़ा कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए आलाकमान को सचिन पायलट की आकांक्षा-महत्वाकांक्षा को परे छिटकना होगा। यहां मौके के कुछ सवाल भी पायलट को कठघरे में खड़ा करते हैं कि, ‘पूरे चार साल तक विपक्ष एक तिनके की तरह बना रहा, लेकिन सचिन पायलट कुछ करने की बजाय टुकुर-टुकुर देखते रहे। जबकि सदन में प्रतिपक्ष की तरह सरकार पर जबरदस्त हमलावर घनश्याम तिवाड़ी ही रहे, जो भाजपा के ही कद्दावर विधायक थे। क्या सचिन पायलट अपने दम पर कांग्रेस को जिता सकते हैं? इस पर जनमत यह कहते उद्विग्न ही नजर आया कि, ‘बेशक वे युवा हैं, लेकिन अव्वल तो लोकप्रिय चेहरा नहीं फिर अशोक गहलोत के आगे कहीं नहीं टिकते।’ लोगों का सबसे वजनी उत्तर था कि, ‘जमीनी पहचान तो अशोक गहलोत की है, ग्रास रूट लेवल पर पायलट को कौन जानता है? फिर जातीय समीकरण साधना तो पायलट के बूते की बात ही नहीं है। जबकि चुनाव की सबसे बड़ी रणनीति जातीय समीकरण ही तय करते हैं। गहलोत को अच्छे प्रशासनिक गुणों और रसूख के लिए भी जाना जाता है। सर्वेक्षण भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि, ‘गहलोत जनता के दिलो दिमाग पर बुरी तरह छाए हुए हैं। इस बार के चुनावी महासागर में लहरों का उफान गहलोत ही पैदा कर सकते हैं। अलबत्ता जनमत द्वारा न स्वीकारे जाने की स्थिति भी सचिन पायलट ने खुद ही पैदा की और इसका सबसे बड़ा कारण रहा, प्रादेशिक मुद्दों पर उनका अस्पष्ट रवैया और जनता व कार्यकर्ताओं की पहुंच से परे रहना। सर्वेक्षण में साढ़े पांच करोड़ की आबादी वाले राजस्थान में जयपुर को छोड़ बाकी हिस्से में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद बताया गया है जबकि जयपुर में पसंद के तौर पर वसुंधरा राजे का पलड़ा भारी रहा। भाजपा के लिए सबसे बड़ी मुश्किल एंटी इनकमबेंसी बताई जा रही है तो यह भी तर्क दिया गया है कि, ‘अव्वल तो राजस्थान में हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन का इतिहास रहा है और इस बार पिछले चुनावों की तुलना में मोदी लहर ज्यादा प्रभावी भी नहीं है। एंटीइंकमबेंसी के सवाल पर लोग वसुंधरा सरकार के मंत्रियों पर ही ज्यादा भड़के हुए नजर आए। सर्वेक्षण में अधिकांश लोगों ने इस बात को तो माना कि, ‘सरकार तो बदलेगी, लेकिन राजस्थान में इस बार परिवर्तन का टेंÑड बदलेगा।’ यह नया टेंÑड क्या हो सकता है? इस बाबत लोगों ने चुप्पी ही साधे रखी।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जयपुर यात्रा के दौरान तारीफ के झरते फूलों से पुलकित वसुंधरा राजे को यह रहस्य भी राजनीतिक विश्लेषकों के समझाए ही समझ में आया कि, ‘मोदी ने क्यों अपने भाषण में एक बार भी राज्य सरकार को भाजपा से जोड़कर संबोधित नहीं किया? और आखिर ऐसा क्यों था कि मोदी ने वसुंधरा राजे की पीठ तो थपथपा दी लेकिन उन्हें कुछ कहने सुनने के दो पल भी नहीं दिए? आखिर क्यों वसुंधरा राजे पर तंज कसने का अचूक मौका पायलट भुना नहीं पाए?’ हाल ही में पार्टी के कद्दावर नेता और विधायक नरपत सिंह राजवी ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को पत्र लिखकर हड़कप मचा दिया। राजवी के इस बयान ने राजे की बेचैनी को यह कहकर और बढ़ा दिया कि, ‘मैंने जो कुछ लिखा, साक्ष्यों के आधार पर लिखा।’ इस संवेदनशील मुद्दे को भुनाने का मौका भी पायलट के पास था, लेकिन क्यों कर भूल गए? अभी ताजा-ताजा प्रदेश अध्यक्ष बने मदन लाल सैनी ने एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक को दिए गए साक्षात्कार में पूरे मंत्रिमंडल को पस्ती में डाल दिया कि, ‘इस बार खराब परफारमेंस वाले मंत्रियों, विधायकों के टिकट कट सकते हैं। पायलट ऐसे मंत्रियों की जन्म कुंडली खंगाल सकते थे, लेकिन नहीं खंगाल पाए। जबकि गहलोत इस बात का खासा फायदा उठा सकते थे। वसुंधरा राजे के गिर्द यह अंधड़ तब चल रहा है, जब चुनावी सन्निकटता के मद्देनजर उनके सामने दलित, ब्राह्मण और राजपूतों की नाराजगी दूर करना सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन इनको अपने पाले में बनाए रखने के लिए पायलट ने अब तक क्या किया? उधर, किसानों को लामबंद कर निर्दलीय लेकिन प्रभावी विधायक हनुमान बेनीवाल प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर टिड्डीदल की तरह छाए हुए हैं, लेकिन उनका रुझान तो घनश्याम तिवाड़ी की तरफ है। अलग पार्टी बनाकर भाजपा छोड़ने वाले कद्दावर नेता घनश्याम तिवाड़ी व्यक्तिगत रूप से भी राजे से रार ठाने हुए हैं, इसलिए कहने की जरूरत नहीं कि वे कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं? पायलट को इस नुकसान का जायजा भी तो लेना चाहिए था? तीसरा मोर्चा गठित कर चुके घनश्याम तिवाड़ी के निकटतम सूत्रों की मानें तो भाजपा और कांग्रेस के कई कद्दावर नेता उनसे मिल रहे हैं? जाहिर है कि ये पार्टी से उपेक्षित लोग ही हो सकते हैं? लेकिन निराशा का यह नाद सचिन पायलट क्यों नहीं सुन पाए?
इस उथल-पुथल भरे सियासी माहौल में अगर वसुंधरा राजे के लिए कोई सुकून भरी बात है तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का चुनाव प्रबंधन और शाह अपनी कोर टीम के साथ जयपुर पहुंच कर वार रूम में डेरा डाल चुके हैं। कांग्रेस के लिए यह मुश्किलों की शुरुआत है, जबकि अभी तक सचिन पायलट की अगुवाई में रणनीतिक स्तर की कोई तैयारी नहीं है। राजनीतिक टीकाकार विपिन मणि कहते हैं कि, इस बार चुनाव प्रबंधन के मामले में आक्रामक प्रचार, दनादन बरसने वाले और राजनीति भी कूटनीतिक ढंग से करने वाले महारथी अमित शाह की जटिल बिसात को समझना आसान नहीं है, जबकि इससे गहलोत ही मुकाबिल हो सकते हैं और यह सियासी पैंतरा सिर्फ उन्हीं को आता है कि शाह के सामने गुगली कैसे फेंकी जा सकती है। लेकिन क्या इस गूढ़ रहस्य को कांग्रेस वक्त रहते समझ पाएगी?
मौजूदा विधानसभा की बात करें तो दो सौ में से 163 सीटें भाजपा के कब्जे में हैं। कांग्रेस सिर्फ 21 सीटों पर सिमटी हुई है। इसी स्थिति की बदौलत भाजपा ने राज्य सभा की दस सीटों पर भी कब्जा कर लिया। नतीजतन यह पहला मौका ही रहा जब पहली बार राजस्थान से राज्यसभा में कांग्रेस का कोई सदस्य नहीं है। लोकसभा चुनावों में भाजपा ने सभी 25 सीटों पर कब्जा कर रिकार्ड बनाया लेकिन कांग्रेस को राहत मिली उपचुनावों में दो सीटें जीतने पर। इन उपचुनावों में दो लोकसभा क्षेत्रों के 17 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा का सफाया हो गया था। लेकिन विश्लेषक इसे पायलट का करिश्मा न मानकर ‘एंटीइंकबेंसी’ को वजह बताते हैं। चुनावी दबदबे वाली जाट कौम को भरोसे में लेने के लिए पायलट जिन घोड़ों को अपने अस्तबल में लाए वे तो थके-मांदे सुभाष महरिया और डॉ. हरिसिंह हैं। चुनावी घुड़दौड़ में ये क्या कर पाएंगे? पता नहीं क्यों पायलट युवा तुर्कों पर नजर तक नहीं डाल पाए? कांग्रेस के सामने एक ताजा दुश्वारी है, विधानसभा में प्रतिपक्षी नेता के रूप में रामेश्वर डूडी की निष्क्रियता? इसकी वजह है उनकी जटिल बीमारी। ऐसे में उन्हें बदलना कांग्रेस के लिए पहली और फौरी जरूरत है। अब जब रामेश्वर डूडी बदले जाएं तो क्या इसकी छाया पायलट पर भी पड़ेगी?