नवीन राय

सीलन भरे आठ गुणा छह के कमरे में अपने दो बच्चों के साथ जिंदगी की जंग लड़ रही 87 साल की बासंती बोस खुश हैं। कोलकाता के ताराशंकर सरणी में रहने वाली बोस की आंखों के सामने साल भर पहले अंधेरा छा गया था जब डॉक्टरों ने बताया कि उनके हृदय ने काम करना बंद कर दिया है। तुरंत पेस मेकर लगाना होगा। यह सुनते ही उनके दोनों बेटों के होश उड़ गए। बड़ा बेटा ठेला खींचता है तो छोटा हाथ रिक्शा। दोनों की कमाई से बमुश्किल घर का गुजारा और मां के इलाज का खर्च निकलता था। लाखों रुपये खर्च कर हृदय का प्रत्यारोपण कराना उनके बूते की बात नहीं थी। ऐसे में मेडिकल बैंक मदद के लिए आगे आया। मेडिकल बैंक की पहल पर आरजीकर मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पीटल के डॉक्टर ऑपरेशन करने को तैयार हुए। दो लीड के पेस मेकर का इंतजाम मेडिकल बैंक ने किया और ऑपरेशन सफल रहा। अब 87 साल की बासंती के दिल की धड़कन वैसी ही है जैसी  एक स्वस्थ आदमी की होती है।

कमोबेश यही कहानी वृद्धा गीता अधिकारी की है। बांग्लादेश से विस्थापित होकर अपनी तीन बेटियों के साथ जब गीता कोलकाता आर्इं तो उस वक्त मुश्किल से उन्हें सिर छुपाने की जगह मिली। लोगों के घरों में चौका बर्तन कर अपनी बेटियों को पढ़ाने और शादी कर उनकी जिंदगी बसाने में वह सफल रहीं। लेकिन इस जद्दोजहद में शरीर ने साथ छोड़ दिया। जिन बेटियों की जिंदगी संवारने में गीता ने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी, उन्हीं बेटियों ने बुढ़ापे में उन्हें नारकेल डांगा स्थित दस बाई आठ के कमरे में मरने के लिए छोड़ दिया। गीता की तबियत जब काफी बिगड़ गई तो स्थानीय युवकों की मदद से उनका इलाज शुरू हुआ। डॉक्टरों ने बताया कि उनके हृदय का प्रत्यारोपण करना होगा और इसमें लाखों रुपये का खर्च आएगा। मेडिकल बैंक एक बार फिर मदद को सामने आया।

मेडिकल बैंक के संचालक डी आशीष की पहल पर डॉक्टर ऑपरेशन को तैयार हुए तो पेस मेकर का इंतजाम किया गया। आज गीता स्वस्थ हैं। इलाज के खर्च से बचने के लिए जो बेटियां कल कन्नी काटती थीं, आज वही मां की खोजखबर लेती नजर आती हैं लेकिन गीता को अपनी बेटियों पर भरोसा नहीं है। वह तो सिर्फ मेडिकल बैंक का अहसान मानती हैं।

क्या है पेस मेकर

medical-bank2पेस मेकर को कृत्रिम हृदय कहा जाता है जो हृदय के खराब होने पर दिल की धड़कनों को धड़काता है। यह दो तरह का होता है- सिंगल लीड और डबल लीड। इसकी कीमत 60 हजार से लेकर एक लाख रुपये तक होती है। इन्हें बनाने वाली कंपनियां इसकी लाइफ टाइम गारंटी देती है। अमूमन यह 10 से 12 साल तक काम करता है। इस बीच जरूरत पड़ने पर कंपनी बैटरी बदलने, लीड बदलने या दूसरा पेस मेकर देने का काम करती है। लेकिन सेकंड हैंड में यह सुविधा नहीं मिलती। लिहाजा, मरीज की उम्र देखकर बैंक से पेस मेकर दिया जाता है।

यूं बढ़ा कारवां

साल 1980 में डी आशीष ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया। पहले दिन उन्होंने कॉलेज की दहलीज पर कदम रखा तो उन्हें स्वामी विवेकानंद और सुभाष चंद्र बोस सरीखे महापुरुषों की याद बरबस आ गई। समाज के प्रति उनके योगदान को देखते हुए उन्होंने भी कुछ करने की ठानी। उन्होंने सबसे पहले अपने दोस्तों से इस बारे में चर्चा की। काफी विचार-विमर्श के बाद उन्होंने पाया कि बड़ी आबादी आज भी इलाज से महरूम हैं। ज्यादातर लोग इलाज के दौरान बड़ी मात्रा में दवाओं को फेंक देते हैं। 28 दोस्तों ने मिलकर मेडिकल बैंक की नींव रखी। शुरू में कुछ डॉक्टर इन उत्साही छात्रों की मदद को सामने आए। छुट्टी के दिन ये छात्र लोगों के घरों में जाकर बची हुई दवाओं को इकट्ठा करते और उन दवाओं को मेडिकल कैंप की मार्फत जरूरतमंदो तक पहुंचाते। धीरे-धीरे इसकी शाखा कोलकाता के कई क्षेत्रों में फैलने लगी।

पढ़ाई और जीवन की आपाधापी के बीच शुरुआत के 28 सदस्य मेडिकल बैंक से दूर होते गए। लेकिन समाज सेवा कैंप और एंबुलेंस सेवा के कारण मेडिकल बैंक की सेवा का दायरा बढ़ता गया। इस दौरान मेडिकल बैंक के सदस्यों ने देखा कि खर्चीले हृदय रोग का इलाज गरीबों के बस की बात नहीं। कुछ हृदय रोग विशेषज्ञों से आशीष ने बात की तो पता चला कि हृदय रोग के इलाज में पेस मेकर काफी अहम भूमिका निभाता है। संपन्न आदमी तो पेस मेकर लगा लेता है लेकिन उसकी मौत के बाद वह बेकार हो जाता है। उसका दोबारा इस्तेमाल करने की उनकी सोच से ही पेस मेकर बैंक की शुरुआत हुई।

हृदय रोगियों के लिए वरदान

शुरू में डॉक्टर किसी और के शरीर में लगे पेस मेकर का प्रयोग करने से कतराते रहे। लेकिन जनहित का हवाला देकर जब मेडिकल बैंक ने मुहिम चलाई तो कुछ डॉक्टर तैयार हुए। डॉक्टरों के तैयार होने के बाद मेडिकल बैंक ने श्मशान घाट के अधिकारियों से संपर्क साधा। कोलकाता के विद्युत शवदाह गृह में पेस मेकर के साथ शव को जलाया नहीं जाता क्योंकि विद्युत शवदाह गृह में तेज तापमान पर जब पेस मेकर फटता है तो विस्फोट होता है। इससे तकनीकी गड़बड़ी शुरू हो जाती है। इस वजह से शव को जलाने से पहले पेस मेकर निकाल लिया जाता है। मेडिकल बैंक ने 1995 में स्वयंसेवकों की एक टीम बनाई। यह टीम श्मशान घाट से खबर पाते ही फौरन मौके पर पहुंच जाते हैं और शव से पेस मेकर निकाल लेते हैं। शुरू में साल में केवल पांच पेस मेकर निकालने में सफलता मिली क्योंकि मृतकों के परिजन आपत्ति जताते थे। लेकिन जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी, लोग खुद फोन कर मेडिकल बैंक के स्वयंसेवकों को बुलाने लगे। आज हजारों गरीबों के दिलों की धड़कन का जरिया बन गया है पेस मेकर बैंक।

मुहिम को सम्मान

1980 में बने मेडिकल बैंक को सम्मान देने में संस्थाएं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं। 1995 में इसे राजीव गांधी स्मृति पुरस्कार से राजीव गांधी बर्थडे सेलिब्रेशन कमेटी, वेस्ट बंगाल ने नवाजा। इसके अलावा  संगठन को क्रिटिक्स क्लब ऑफ इंडिया (कोलकाता यूनिवर्सिटी), नेशनल यूनिटी संसद अवॉर्ड ( स्वाधीनता के 50 साल के मौके पर), प्रसाद मैग्जीन अवॉर्ड 2008, सीएनएन-आईबीएन, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड रियल हीरोड अवॉर्ड 2008, 17वां गॉडफ्रे फिलिप्स वेभरी अवॉर्ड 2010, रोटरी कल्ब ऑफ कोलकाता चौरंगी वोकेशनल अवॉर्ड 2010, कोलकाता पुलिस कमिश्नर अवॉर्ड 2010 से नवाजा गया। वहीं, पश्चिम बंग सेवा समिति अवॉर्ड 2012 के साथ रोटरी क्लब ऑफ कोलकाता नॉर्थ वेस्ट वोकेशनल एक्सलेंसी अवॉर्ड 2012-13 भी संस्थान को मिल चुका है।