निशा शर्मा ।
मैं केरल के एर्नाकुलम की वो लड़की हूं जो एक दलित परिवार से ताल्लुक रखती है, पिता नहीं हैं। कई साल हो गए वो हमें छोड़कर जा चुके हैं, अब अपने घर का पिता यानी घर को चलाने वाली मुखिया मैं ही हूं। मां पिता के जाने के बाद से परेशान रहती है। लोग उसे पागल समझते हैं और कहते भी हैं । वो दो बेटियों की मां है, उसने दो बेटियों को अपने बलबुते पर पाला है। और अब मेरे हालात हैं कि मैं मां को पाल रही हूं। मैं एक अस्पताल में क्लर्क की नौकरी करती हूं। मेरी मां पागल नहीं परेशान रहती है और कभी- कभी छोटी-छोटी बातों पर लोगों से लड़ जाती है। मैं कोशिश करती हूं कि ऐसा ना हो पर परेशानियां ना चाहकर भी बहुत कुछ करवा देती होंगी उससे।
इस छोटे से गांव में जात-पात को लेकर बड़ा भेदभाव है। सोचती हूं कि कभी इस भेदभाव को लेकर कुछ करूंगी या फिर शायद वो दिन भी आए कि मैं इसके लिए लड़ूं भी। इसलिए ही लॉ की पढ़ाई कर रही हूं।
केरल के अधिकतर गांव ऐसे ही हैं पिछड़े हुए जहां मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। मैं भी एक झोंपड़ी में रहती हूं, जहां पीने का पानी तक आसानी से नहीं मिलता। पानी की कमी या ना होने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि शोच के बाद के लिए भी पानी नहीं हम अखबार का इस्तेमाल करते हैं। ये हैरानी की बात नहीं है ये हमारी रोजमर्रा की दास्तां है। घर का खर्च मुश्किल से चलता है। गरीबी की कोई परिभाषा नहीं होती बस उसकी यातना होती है जिसे हम जैसे लोग झेलते हैं और झेल रहे हैं।
पानी तो दूर की बात है। हमसे (मुझसे और मेरी मां से) आस-पास के लोग बात तक नहीं करते । इन लोगों में हमारे परिवार के लिए शायद घृणा भाव है। शायद ये भाव दलित होने को लेकर भी हो सकता है और मेरी मां की मानसिक बीमारी को लेकर भी हो सकता है पर दुर्भाव इतना है कि कभी जरूरत होने पर कोई मदद की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
मेरे इस राज्य में 30 से 40 प्रतिशत घरों को महिलाएं ही संचालित करती हैं मेरी और मेरी मां की तरह। मेरी कहानी कई घरों की कहानी हो सकती है लेकिन समाधान नहीं है।
मैंने अपनी जिन्दगी में दुखों का अंबार देखा है ।किसी घर में मां बच्चों को संभालती होगी मेरे घर में मैं अपनी मां को संभालती आई हूं। कभी- कभी किसी की जिन्दगी में दुखों का अंत नहीं होता। यही हाल मेरा भी है मेरी आत्मा दुष्कर्म जैसी यातना झेल कर इस दुनिया से गई है। मेरी रूह अब भी कांप रही है। मेरी छाती पर, गले पर और मेरे गुप्तांगों पर भी कई वार किए गए। मुझे नोचा- खरोंचा गया। यही नहीं बल्कि मुझे जानवरों की तरहं चीरा फाड़ा भी गया। मेरे साथ हैवानियत का खेल खेला गया। मेरी आंतों को शरीर से बाहर निकालकर मुझे औरत होने की गाली का आभास कराया गया। मैं चिल्लाई भी, मैं लड़ी भी लेकिन मैं जीती नहीं। मैं हार गई अपनी जिन्दगी से। मैं असहाय थी उस सोच के आगे जो औरत की गरिमा को पैर की जूती समझते हैं। मैं अपने ही घर में महफूज़ नहीं थी। मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। क्योंकि क्या मैं एक औरत थी या मैं दलित थी इसलिए या मैं घर पर अकेली थी इसलिए मेरे अस्तित्व के साथ ये खिलवाड़ किया गया। ऐसा क्यों किया गया मैं अब तक नहीं जान पाई हूं। मेरी मां अस्पताल में है, रोती है, चिल्लाती है, बचपन से लेकर अब तक की स्मृतियों से निकल कर जब मुझे नहीं पाती तो बिलखती भी है। अफसोस अब मैं लोगों को ये नहीं समझा पाऊंगी की तू पागल नहीं है, परेशान है मेरे लिए मुझे ढूंढ रही है ये जानते हुए भी कि मैं वापिस नहीं आऊंगी । मां ये सच है कि कई आवाजें मेरे हक में बुलंद होंगी, कई मार्च निकाले जाएंगे पर मैं नहीं आऊंगी। अब मैं तेरे बिलखने, तेरे बुलाने पर भी नहीं आऊंगी।
अलविदा