दिलीप अरुण ‘तेम्हुआवाला’।

बात 2004-2005 की है। बिहार के सीतामढ़ी जिले के मेरे गांव तेम्हुआ में मेरे घर से तकरीबन 500-600 मीटर की दूरी पर दलितों की बस्तियों है- थलही और बिरती। यहां के बाशिंदे भूमिहीन हैं । रोज दूसरे के खेतों और र्इंट भट्ठों में मजदूरी करना ही उनकी रोजी-रोटी का जरिया है। उस वक्त उनकी आबादी 700 के करीब रही होगी। अचानक दोनों बस्ती में कालाजार बीमारी ने पांव पसारना शुरू किया और धीरे-धीरे पूरी बस्ती को अपनी आगोश में ले लिया। स्थानीय स्तर पर सुविधा न मिलने के कारण लोग यहां से दूर जाले, जोगियारा, मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर और पड़ोसी देश नेपाल के शहर मलंगवा तक जाकर इलाज करवाने लगे। इलाज के लिए पैसे की समस्या आई तो किसी ने कर्ज लिया तो किसी ने जेवर जेवरात बेचे। किसी ने घरारी बेची तो किसी ने घर के बर्तन और मवेशी बेचे। जो लोग कमाने वाले थे वे अपने बीमार परिजन की सेवा में लग गए। इस कारण उनके घर में खाने के लाले पड़ने लगे।

तब मैंने इन लोगों की जान बचाने की खातिर स्थानीय स्तर पर हाथ-पांव मारा। मगर जब कहीं से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली तो मेरे मन में यह ख्याल आया कि क्यों न इन लोगों की बात सीधे मुल्क के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति जी के सामने रखी जाए। इसके लिए मैंने राष्ट्रपति कार्यालय के संपर्क नंबर की व्यवस्था की और अटूट विश्वास के साथ राष्ट्रपति कार्यालय में फोन और ई-मेल किया। फोन पर जब मैंने कहा की मुझे राष्ट्रपति जी से मिलकर अपनी समस्या सुनानी है तो मुझसे कहा गया कि राष्ट्रपति जी न ऐसे मिलते हैं और न ऐसे आपकी बात सुनेंगे। इसके लिए आपको राष्ट्रपति जी के नाम एक अर्जीनामा लिखना होगा।

अर्जीनामा लिखते समय जब मैंने उस बस्ती के लोगों से यह कहा कि आप लोगों की समस्या को मैं सीधे राष्ट्रपति जी के पास भेज रहा हूं, अब राष्ट्रपति जी आपको मरने नहीं देंगे तो मेरी बात सुनकर उन लोगों का बीमार चेहरा ऐसे चमक उठा जैसे डूबते सूरज की किरणों से बादल और उगते सूरज की किरणों से ओस की बंूदें चमक उठती हैं। मगर राष्ट्रपति भवन से मेरे पत्र का कोई जवाब नहीं आया। जवाब न पाकर मैं दिल्ली पहुंच गया और 24 सितंबर 2004 को राष्ट्रपति कार्यालय में जाकर खुद अपने हाथों से 10 पन्नों का पत्र जमा किया। मुझे लगा कि मैं इतनी दूर से आया हूं तो हफ्ते-दस दिन में राष्ट्रपति जी से मिलने का वक्त मिल जाएगा। मगर वहां के एक अधिकारी ने मुझे बताया कि आप घर चले जाइए, राष्ट्रपति जी जब आपसे मिलना चाहेंगे तो हम आपको सूचित कर देंगे।

जवाब सुनकर थोड़ी देर के लिए मेरी उम्मीदों का महल नाउम्मीदी की धरती पर ठीक उसी तरह औंधे मुंह गिरा जिस तरह हवा के झोकों से फूलों की सूखी पंखुड़ियां जमीन पर गिरती हैं। अपने आप को संभालते हुए मैं बैरंग अपने गांव चला आया जहां कालाजार का तांडव जारी था। लगभग ढाई महीने तक इंतजार करने के बाद जब मुझे कोई सूचना नहीं मिली तो मैंने ‘पत्र सत्याग्रह अभियान’ चलाने का फैसला किया। इसके तहत 6 दिसंबर 2004 से मैंने हर रोज माननीय राष्ट्रपति जी के नाम एक पत्र भेजना शुरू किया। बीच-बीच में मैंने जब भी राष्ट्रपति कार्यालय के अधिकारी से फोन पर संपर्क किया तो वही पुराना जवाब मिला- ‘राष्ट्रपति जी जब आपसे मिलना चाहेंगे तो हम आपको सूचित कर देंगे।’

गुजरते वक्त के साथ हर रोज मैं पत्र लिखता गया और उनमें समस्याओं का जिक्र करता रहा। इन सब के बीच राष्ट्रपति कार्यालय से मेरे पास दो-चार पत्र आए जिनमें कहा गया कि ‘राष्ट्रपति जी अन्य कार्यों में व्यस्त हैं। इस कारण वे आपको मिलने का समय नहीं दे सकते हैं।’ एक तरफ राष्ट्रपति भवन से इनकार और दूसरी तरफ कालाजार मौत बनकर इन गरीबों पर बरसता रहा। हालात ऐसे हो गए कि बस्ती में लोग जाने से डरने लगे। एक लाश दफन भी नहीं हो पाती कि दूसरी अर्थी सजने लगती। एक विधवा की आंखों के आंसू सूख भी नहीं पाते कि दूसरी महिला की हृदय विदारक चीख बस्ती को थर्रा डालती। कुछ परिवार ऐसे थे जिसमें कई सदस्य एक साथ मौत की नींद सो गए। देखते-देखते 48 जानें चली गर्इं और जीते-जागते इंसानों की यह बस्ती लाशों की बस्ती में तब्दील हो गई।

माननीय राष्ट्रपति जी के नाम पिछले 11 वर्षों में मैंने 4100 से अधिक पत्र लिखे और इस दौरान दो राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल का कार्यकाल खत्म हो गया। अगले साल मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भी कार्यकाल खत्म होने वाला है। आज भी यह बस्ती खामोशी से अपनी जिंदगी का वजूद मांग रही है। इस बस्ती की सलामती के वास्ते मैं राष्ट्रपति जी से एक बार फिर यह गुजारिश करता हूं-
अपने महलों से कभी,
आप भी निकल कर देख लें,
जिंदगी कितनी परेशान है, यह घर-घर देख लें।
आहों की अब्र, अश्कों की बरसात देख लें,
कभी फुरसत मिले तो आ, हम गरीब गांव वालों की भी दिन रात देख लें।
(यह खबर लेखक के पत्र पर आधारित है)