बनवारी

ईरान के चाबहार बंदरगाह के पहले चरण का काम पूरा हो गया है और ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने उसका विधिवत उद्घाटन कर दिया है। यह बंदरगाह भारत के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। हमारे लिए वह अफगानिस्तान से लगाकर उत्तरी यूरोप तक बड़े क्षेत्र का द्वार है। इस बंदरगाह ने पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। अब तक वह अफगानिस्तान और उससे आगे मध्य एशिया तक की हमारी पहुंच में दीवार बनकर खड़ा हुआ था। उसके शत्रुतापूर्ण व्यवहार के कारण ही मध्य एशिया पाइप लाइन के जरिये प्राकृतिक गैस लाने की योजना सफल नहीं हो सकी। पाकिस्तान अब तक हमारे और अफगानिस्तान के बीच व्यापार और सहयोग की बड़ी बाधा बना रहा है। उसी को मुंह चिढ़ाने के लिए भारत ने 29 अक्टूबर को एक लाख तीस हजार टन गेहूं से लदा जहाज चाबहार बंदरगाह भेजा, जो अन्नाभाव के शिकार अफगानिस्तान को दी गई मैत्री भेंट है। चाबहार बंदरगाह का हमारे लिए रणनीतिक, व्यापारिक और भावनात्मक महत्व है। अतीत में यहीं से भारत की सीमाएं आरंभ हुई मानी जाती थी। इसका उल्लेख सिकंदर से लगाकर अल बरूनी तक ने किया है। अब भारत वहां आठ अरब डॉलर के निवेश से एक औद्योगिक क्षेत्र विकसित कर रहा है। इस क्षेत्र में एल्युमिनियम को गलाने और यूरिया पैदा करने के उद्योग होंगे। इसके साथ ही अन्य उद्योगों की श्रृंखला खड़ी करके इसे एक विस्तृत आर्थिक क्षेत्र का स्वरूप दिया जाएगा। कुछ समय पहले नितिन गडकरी ने घोषणा की थी कि अगर ईरान से तेल के दामों के बारे में ठीक समझौता हो जाता है तो इस आर्थिक क्षेत्र में भारत के निजी क्षेत्र की कंपनियां भी बड़े पैमाने पर निवेश करेंगी। उसके बाद यह क्षेत्र एक बार फिर भारतीय उपस्थिति से जगमगा उठेगा।
भारतीय सहयोग से चाबहार बंदरगाह को विकसित करने की बात तीन दशक पहले उठी थी, जब भारत, ईरान और रूस अफगानिस्तान की तालिबान सरकार गिराने के लिए अहमद शाह मसूद के उत्तरी गठबंधन से सहयोग कर रहे थे। उस समय अनुभव किया गया कि भारत से अफगानिस्तान साज-सामान पहुंचाने में पाकिस्तान बाधा बना रहेगा। इस बाधा को चाबहार में बंदरगाह विकसित करके समाप्त किया जा सकता है। 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय इस योजना को लेकर भारत और ईरान में सहमति बनी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की विदाई के बाद बनी कांगे्रस सरकारों ने ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण इस योजना के अमल में रुचि नहीं ली। पिछले वर्ष मोदी सरकार ने इस योजना में रुचि ली और भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ। इस समझौते के अंतर्गत चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़े औद्योगिक क्षेत्र के अलावा मध्य अफगानिस्तान की हाजीगक खदानों तक रेल लाइन बिछाने और चाबहार से अफगानिस्तान को जोड़ने वाले सड़क मार्गों को उत्तर दक्षिणी परिवहन गलियारे से जोड़ने की बात है। भारत ने इस पूरी योजना में 21 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश की सहमति दी है।
मध्य अफगानिस्तान के हाजीगक में 32 किलोमीटर में फैली हुई खदानें हैं, जिनमें से उच्च कोटि का लौह अयस्क प्राप्त किया जा सकता है। अफगानिस्तान ने 2011 में इसके पांच ब्लॉक में से चार में खनन के अधिकार सात भारतीय कंपनियों को दिए थे। वे स्टील अथॉरिटी आॅफ इंडिया के नेतृत्व में एक समूह बनाकर इस खनन में लगी हैं। इसी क्षेत्र में अच्छी किस्म का कोयला भी उपलब्ध है, इसलिए स्टील के उत्पादन के लिए यह उपयोगी क्षेत्र है। इस पर सबसे पहले प्रथम महायुद्ध के आसपास जर्मनी की निगाह गई थी, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। उसके बाद रूस ने इसमें रुचि ली, लेकिन वह भी सफल नहीं हो पाया। पाकिस्तान भी इन खदानों से अच्छी किस्म का अयस्क अपने स्टील कारखानों के लिए चाहता था, लेकिन वह योजना भी सफल नहीं हुई। अंतत: यह खनन भारत को मिला है। भारत इसमें 11 अरब डॉलर निवेश कर रहा है। इसके अलावा उसने दो अरब डॉलर चाबहार और हाजीगक के बीच रेल लाइन आदि बिछाने के लिए रखे हैं, जिसमें अब तक काफी प्रगति हो चुकी है। भारत ईरान और अफगानिस्तान के बीच सड़क परिवहन का विकास करने में भी तेजी से लगा है। भारत अब तक एक करोड़ डॉलर खर्च करके पश्चिमी अफगानिस्तान में दोलाराम से लगाकर ईरान-अफगानिस्तान सीमा पर जरंज तक 218 किलोमीटर लंबी सड़क बना चुका है, उसे चाबहार से जोड़ा जाना है।
चाबहार से 70 किलोमीटर दूर पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का निर्माण चीन कर रहा है। चीन पाकिस्तान में 56 अरब डॉलर निवेश करके जो आर्थिक गलियारा बना रहा है, उसके कारण ग्वादर का महत्व बढ़ जाता है। ग्वादर बंदरगाह गहरे समुद्र की परियोजना है, जो काफी बड़े जहाजों को संभालने में समर्थ होगी। चाबहार भी गहरे समुद्र की बंदरगाह है और वह एक लाख टन से अधिक क्षमता वाले जहाजों के उपयोग लायक होगी। अभी तक वह केवल 2.5 लाख टन माल चढ़ाने-उतारने की क्षमता रखती थी, अब यह क्षमता बढ़कर 8.5 लाख टन हो जाएगी और जब यह परियोजना पूरी होगी तो वह 12.5 लाख टन माल चढ़ाने-उतारने में सक्षम होगी। ग्वादर और चाबहार में सबसे बड़ा अंतर यह है ग्वादर पाकिस्तान की बंदरगाह होने के बावजूद चीन के नियंत्रण में रहेगी। उसकी 90 प्रतिशत आय पर चीन का अधिकार होगा। जबकि चाबहार भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच परस्पर सहयोग की मिसाल है, वह ईरान की बंदरगाह है और उसी के नियंत्रण में रहेगी। लेकिन भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ है, जिसमें इस बंदरगाह का उपयोग भारत और अफगानिस्तान के बीच माल की आवाजाही के लिए किए जाने का प्रावधान है।
अब तक पाकिस्तान में चीन द्वारा बनाए जा रहे औद्योगिक-आर्थिक गलियारे की जितनी बात हुई है, उतनी भारत, ईरान और रूस के सहयोग से इस पूरे क्षेत्र में जो व्यापारिक मार्ग विकसित किए जा रहे हैं, उनकी नहीं हुई। भारत, ईरान और रूस ने 2002 में एक 7200 किलोमीटर लंबे उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे के विकास का निर्णय लिया था। इसके अंतर्गत भारत, ईरान, मध्य एशिया, रूस और उत्तरी यूरोप तक सामुद्रिक, रेल और सड़क परिवहन का एक जाल बिछाया जा रहा है। इस नए परिवहन तंत्र के बारे में जो आरंभिक सर्वे किए गए, उससे यह निष्कर्ष निकला कि इस परिवहन गलियारे के विकास से माल ढोने का खर्च 30 प्रतिशत कम हो जाएगा और इसके उत्तरी सिरे से दक्षिणी सिरे तक का व्यापारिक मार्ग 40 प्रतिशत छोटा हो जाएगा। इस परियोजना के मूल देश तो भारत, ईरान और रूस ही हैं। लेकिन बाद में उसमें बहुत से देशों को सम्मिलित किया गया है। इनमें मुख्य अजरबैजान, अर्मेनिया, कजाकिस्तान, बेलारूस आदि हैं। तुर्कमेनिस्तान अभी इस परियोजना का सदस्य नहीं है। लेकिन वह बीच की कड़ी जोड़ने वाले मार्गों के विकास में सहयोग दे रहा है। पिछले दिनों जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तुर्कमेनिस्तान की यात्रा पर गए थे तो उन्होंने वहां की सरकार को इस परियोजना में सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया था। इस तरह यह उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा इस क्षेत्र के सभी देशों के बीच परस्पर सहयोग से विकसित हो रहा है और निश्चय ही उससे क्षेत्रीय व्यापार में जो वृद्धि होगी, उसका लाभ सबको मिलेगा। चीन की वन वेल्ट-वन रोड परियोजना में उसी का हित केंद्र में है और वह मुख्यत: उसके व्यापार के विस्तार के लिए है। जबकि यह परियोजना किसी एक देश के हितों को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई। इसीलिए पिछले दिनों भारत ने चीन की वन वेल्ट-वन रोड योजना को नवउपनिवेशवादी योजना कहा था।
इस योजना के रास्ते की दो बड़ी बाधाएं हैं। पहली बाधा ईरान पर लगाए जाने वाले आर्थिक प्रतिबंध हैं। अमेरिका फिर ईरान के मामले में अपना रुख कड़ा करता जा रहा है। अगर वह ईरान पर और अधिक आर्थिक प्रतिबंध लगवाने में सफल हो जाता है तो इस बड़ी परियोजना की रफ्तार धीमी पड़ सकती है। भारत पर भी काफी अमेरिकी दबाव रहा है, लेकिन अब अमेरिका को यह समझ में आ गया है कि भारत ईरान से सहयोग आवश्यक मानता है और वह किसी दबाव में आकर उससे सहयोग करना छोड़ेगा नहीं। दूसरे अमेरिका को यह भी दिख रहा है कि भारत की मध्य एशिया में गतिविधियां बढ़ती हैं तो इससे चीन के प्रभाव के विस्तार को रोकने में मदद मिल सकती है। इसलिए अमेरिका ने चाबहार में भारत की भूमिका पर अधिक ऐतराज नहीं किया और वह चाबहार के माध्यम से अफगानिस्तान तक उसकी पहुंच को सकारात्मक रूप से ही देखता है। अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति का भी लाभ भारत को मिल रहा है। उसने पाकिस्तान से प्रेरित तालिबानी और हक्कानी आतंकवादी तंत्र को समाप्त करने का निर्णय कर लिया है। वह इसके लिए पाकिस्तान पर तो दबाव बना ही रहा है, अगर पाकिस्तान सहयोग नहीं करता तो वह स्वयं उसे समाप्त करने के लिए हर कदम उठाने को तैयार दिख रहा है। इससे अफगानिस्तान के विकास में भारत जो सकारात्मक योगदान कर रहा है, उसको मदद ही मिलेगी।
इस परियोजना की दूसरी बड़ी बाधा वे जेहादी संगठन हैं, जो मध्य एशिया से लगाकर पाकिस्तान तक फैले हुए हैं। मध्य एशिया के मुस्लिम देशों में उन्होंने अपने काफी पैर फैला लिए हैं। इराक और सीरिया में आईएस की पराजय के बाद उनके उत्साह में कुछ कमी अवश्य आएगी। लेकिन फिर भी उनकी कुछ न कुछ चुनौती बनी रहेगी। ये जेहादी संगठन चीन के लिए भी बड़ी समस्या रहे हैं। उसके अपने क्षेत्र में उइगर मुसलमानों में जेहादी संगठनों की जड़ें फैली हुई हैं। यह आशा की जा रही है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में जिस तरह आतंकवाद एक केंद्रीय मुद्दा बन गया है, इन जेहादी संगठनों पर धीरे-धीरे लगाम लगाने में सफलता मिलेगी। पिछले दिनों मध्य एशिया के सभी देशों ने उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे के रेल और सड़क तंत्र में जिस तत्परता से सहयोग किया है, उससे नई आशा बंधी है।
अभी तक चीन यह कहता रहा है कि वह भारत, ईरान और रूस के सहयोग से विकसित हो रहे इस परिवहन गलियारे को लेकर चिंतित नहीं है। उसे वह अपनी वन वेल्ट-वन रोड परियोजना का प्रतिस्पर्धी नहीं मानता। उसे लगता है कि उसके विकसित होने पर चीन भी उसका उपयोग कर सकेगा। लेकिन इन सभी क्षेत्रों की भारत से अधिक समीपता है। चीन को इन क्षेत्रों में पहुंच बनाने के लिए काफी लंबा रास्ता पार करना पड़ेगा, जिसका प्रभाव उसके सामान की लागत पर पड़ेगा। चीन की ख्याति शुरू में काफी सस्ती दर पर अपना सामान बाजार में फेंकने की है। लेकिन उससे स्थानीय उद्योग और रोजगार जब चौपट होने लगता है तो चीन के विरुद्ध आक्रोश पैदा होता है। भारत इस तरह की कोशिश नहीं करता, इसलिए उसकी ख्याति एक विश्वसनीय आर्थिक शक्ति के रूप में पैदा हुई है।
चाबहार बंदरगाह इस पूरे क्षेत्र में भारत की पहुंच बनाने का माध्यम है। हालांकि उत्तर-दक्षिणी परिवहन गलियारा ईरान की बंदर अब्बास से जुड़ा हुआ है, लेकिन उसकी सीमित क्षमता को देखते हुए चाबहार और बंदर अब्बास के परिवहन को जोड़ने का प्रयत्न किया जा रहा है। चाबहार बंदरगाह पाकिस्तान की बाधा दूर करने के लिए कल्पित की गई थी। अब लगता है पाकिस्तान भारत के लिए दीवार खड़ी करने के बजाय अपने लिए ही दीवार खड़ी कर रहा है। उसके अफगानिस्तान से संबंध बिगड़े हुए हैं ही, जैसे-जैसे सऊदी अरब और ईरान का टकराव बढ़ेगा, पाकिस्तान और ईरान के बीच संबंध सामान्य रखना मुश्किल होता जाएगा। मध्य एशिया के देशों को भारत तक गैस पाइप लाइन न बिछा पाने का अफसोस रहा ही है। पाकिस्तान जिस तरह चीन की कॉलोनी बनता जा रहा है, वह इस पूरे क्षेत्र में अपना सम्मान खो देगा। 