उमेश चतुर्वेदी।
प्रकृति प्रदत्त खूबसूरती से शोहरत का रिश्ता तो जुड़ता है लेकिन इस शोहरत को बढ़ाने में उस खूबसूरती पर चढ़ते रहस्य के पर्दों की भी अपनी खास भूमिका होती है। खूबसूरती ऐसी चीज ही है कि उस पर चर्चा होगी और चर्चा आम होगी तो उस पर दंत कथाएं भी बनेंगी। दंत कथाओं की खास प्रकृति होती है। उन पर रहस्य का पर्दा चढ़ता जाता है और इस तरह कहानी में नए-नए अध्याय जुड़ते चले जाते हैं। इन दंत कथाओं के जरिये रहस्य की परतों के पार खूबसूरती की जो ऐतिहासिक कथा रची जाती है वह बन जाती है शोहरत की कहानी। दुनिया के सबसे मशहूर और नायाब रत्न कोहिनूर की भी ऐसी ही कहानी है। इस पर दंत कथाओं की परत है, पौराणिक आख्यानों का परदा है और इतिहास की कहानियां भी इससे जुड़ी हैं। शोहरत के चमकदार आवरण में लिपटी कोहिनूर की रहस्यमयी कहानी पर से पर्दा हटाया है मशहूर स्कॉटिश इतिहासकार विलियम डेलरिंपल और भारतीय पत्रकार अनिता आनंद ने। ‘द लास्ट मुगल’ और ‘ह्वाइट मुगल’ जैसी शोधपरक पुस्तक के लेखक विलियम डेलरिंपल ने कोहिनूर पर भी काफी शोध किया है और इसी का नतीजा है पुस्तक ‘कोहिनूर : दुनिया का मशहूर हीरा’।
ब्रिटेन के टॉवर आॅफ लंदन के ज्वेल हाउस में रखे कोहिनूर पर अब भी करोड़ों भारतीयों की ही नहीं, पाकिस्तानियों की भी निगाह है। भारत में जब भी आम चुनाव होते हैं, इस नायाब हीरे की घर वापसी की मांग तेज हो जाती है। कई बार राजनीतिक दल भी इसे वापस लाने का वादा करते हैं। 2014 के आम चुनाव में भी इसे भारत वापस लाने का मुद्दा उठा था। यह बात और है कि चुनाव नतीजों के बाद अब तक कोहिनूर को वापस लाने की गंभीर कोशिश नहीं हुई। भारत के आजाद होने के बाद से ही किसी न किसी बहाने कोहिनूर को भारत वापस लाने का मुद्दा उठता रहा है। आजादी के तुरंत बाद नई सरकार ने ब्रिटिश सरकार से कोहिनूर की वापसी की मांग की थी लेकिन कोहिनूर को वापस देने से ब्रिटिश सरकार ने इनकार कर दिया था। उसी साल ओडिशा की कांग्रेस सरकार ने भी एक प्रस्ताव पारित करके कोहिनूर की वापसी की मांग की थी लेकिन उसे भी अनसुना कर दिया गया था।
कोहिनूर को ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया को 1849 में उपहार स्वरूप देने से पहले तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने उसका इतिहास खोजने और उस पर रिपोर्ट बनाने की जिम्मेदारी थियो मेटकॉफ को सौंपी थी जिसने दंत कथाओं से लेकर जौहरियों तक से जुटाई जानकारी के आधार पर कोहिनूर का इतिहास लिखा। कह सकते हैं कि अगर कोहिनूर का कोई पहला इतिहास है तो वह ब्रिटिश जूनियर मजिस्ट्रेट थियो मेटकॉफ का लिखा विवरण ही है। दिलचस्प यह है कि मेटकॉफ पर डलहौजी की ज्यादा कृपा थी। इसलिए उसने यह काम उसे सौंपा था। ऐसा नहीं था कि वह बहुत पढ़ाकू या शोधकर्ता था। उसे तो कुत्तों के बीच रहने और पार्टियां करने का शौक था। यह बात और है कि ब्रिटिश महारानी या राजतंत्र अगर कोहिनूर के बारे पहली कोई जानकारी हासिल कर पाया तो उसका जरिया थियो की ही लिखी रिपोर्ट बनी। हालांकि उसने इस रिपोर्ट में रंग-बिरंगे ब्योरे भी खूब भरे हैं जिसके जरिये वह कोहिनूर पर रहस्य और रोमांच की कई परतें चढ़ाने में कामयाब हुआ है।
विलियम डेलरिंपल और अनिता आनंद कोहिनूर का प्रमाणिक इतिहास लिखने के लिए हजारों दस्तावेजों से गुजरे हैं। एक किताब के लिए कितनी मेहनत की जा सकती है, इसे कोहिनूर को पढ़कर ही समझा जा सकता है। बहरहाल, थियो की रिपोर्ट में लिखा गया है कि खानदानी जौहरियों के मुताबिक यह हीरा कर्नाटक के मासुलिपट्टनम से उत्तर पूर्व चार दिन की यात्रा के बाद मिलने वाली खदान कोह-ए-नूर से निकाला गया था। यह हीरा कृष्ण के जीवनकाल में करीब पांच हजार साल पहले निकाला गया गया था। वहां से दक्षिण भारत के किसी मंदिर में कृष्ण की मूर्ति में आंख की जगह लगाया गया। थियो ने इस हीरे को प्राचीन इतिहास के कोहरे से निकाल कर एक स्वरूप दिया। इस दिलचस्प ब्योरे के मुताबिक इसे सबसे पहले तुर्कों ने लूटा जहां से यह गोरी वंश के पास पहुंचा और गोरी वंश को जब तुगलक ने हराया तो यह हीरा उसके पास चला गया। वहां से फिर सैय्यद और लोधी वंश होते हुए तैमूर यानी मुगल वंश के शासकों तक पहुंचा। इसके बाद नादिर शाह ने इसे ले लिया।
थियो के ब्योरे में हालांकि झोल भी बहुत है। चूंकि यह पहला ब्योरा है इसलिए इस झोल पर से पर्दा हटाने की कोशिश नहीं की गई। विलियम डेलरिंपल जैसा इतिहासकार भी इसे स्वीकार कर लेता है। बहरहाल कोह-ए-नूर की खदान से निकले इस हीरे को कोहिनूर नाम दिया नादिर शाह ने। कोह-ए-नूर यानी रोशनी का पहाड़। नादिर शाह के पास इस हीरे के पहुंचने की कहानी भी अजीब है। थियो के मुताबिक, जब मुगल सल्तनत को नादिर शाह ने परास्त कर दिया तो उसने मुगल बादशाह शाह आलम से पगड़ियों का आदान-प्रदान किया। शाह आलम की पगड़ी की कलगी में कोहिनूर था और इस तरह वह नादिर शाह के पास चला गया। नादिर शाह के निधन के बाद यह अहमद शाह अब्दाली के पास रहा और फिर यह अफगान शासकों के ही पास रहा। जब 1813 में महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों को हराया तो फिर उन्होंने इस हीरे को अपने कब्जे में ले लिया।
कृष्ण से लेकर मूर्तियों से होते हुए सल्तनत और मुगलकाल के बाद अफगान होते हुए भारत आने की कोहनूर की दास्तान दिलचस्प है। कृष्ण का होने के चलते ओडिशा की 1947 की सरकार ने दावा किया कि महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी वसीयत में यह हीरा पुरी के जगन्नाथ मंदिर को दान कर दिया था। इसलिए यह हीरा उसे ही मिलना चाहिए। 1979 में इस हीरे पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी दावा ठोका और पूरा दस्तावेजी पत्र बनाकर ब्रिटिश सरकार को सौंपा। इसमें यह दावा किया गया था कि चूंकि सिख राजा रणजीत सिंह के बेटे दलीप सिंह पंजाब की गद्दी पर बैठे थे और उनसे जबरन अंग्रेज सरकार ने कोहिनूर कब्जा लिया था। रणजीत सिंह वाला पंजाब पाकिस्तान के हिस्से में आया है, इसलिए यह हीरा पाकिस्तान को मिलना चाहिए। इसके बाद ही भुट्टो का तख्ता पलट हो गया और कुछ महीने बाद उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
दिलचस्प यह है कि साल 2000 में अफगानिस्तान की तत्कालीन तालिबानी सरकार ने भी कोहिनूर पर दावा ठोंका और ब्रिटिश महारानी से इसे वापस करने की मांग की। 1990 में जब तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने कुलदीप नैय्यर को ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त बनाया तो उन्होंने भी कोहिनूर भारत को वापस करने की मांग रखी। इस हिसाब से देखें तो 105 कैरट का यह मशहूर और बेशकीमती हीरा राजनयिक हथियार भी बना। कुलदीप नैय्यर ने बाद में पचास सांसदों से कोहिनूर को वापस लाने की याचिका पर हस्ताक्षर कराया और उसे 2002 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को दिया। कुलदीप नैय्यर के दावे के मुताबिक तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने इस मुद्दे पर ब्रिटिश सरकार से चर्चा करने का वादा भी किया। यह बात और है कि कभी इस पर चर्चा नहीं हुई।
वैसे तो ब्रिटिश राजघराना मानता है कि अगर उसके पुरूष सदस्य कोहिनूर पहनते हैं तो उसकी तासीर नकारात्मक होती है। जॉर्ज पंचम का राजपाट से त्याग और उसके पहले की एक-दो घटनाएं इसकी तस्दीक करती हैं। लेकिन अगर कोहिनूर को राजपरिवार की महिला सदस्य पहनती हैं तो उसे सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। इसके बावजूद यह हीरा अब टॉवर आॅफ लंदन की शोभा बढ़ा रहा है। हालांकि इस हीरे पर 2002 में विवाद भी हुआ जब ब्रिटेन की राजमाता का देहांत हो गया। उनके ताबूत पर इस हीरे को प्रदर्शित किया गया तो इसे लेकर ब्रिटेन में रह रहे सिखों ने विरोध भी किया। उसे महाराजा रणजीत सिंह का अपमान माना गया। सिख समूहों ने एक बार फिर इस हीरे को वापस देने की मांग उठाई। 2010 में जब तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने जालियांवाला बाग का दौरा किया तो उस समय भी उनसे कोहिनूर की वापसी के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था, ‘अगर कोई किसी एक चीज के लिए हां कर दे तो अचानक ही ब्रिटिश संग्रहालय खाली हो जाएगा। मुझे दुख है, लेकिन मैं यही कह सकता हूं कि उसे (कोहिनूर को) वहीं रहना होगा।’
2015 का साल कोहिनूर की भारत वापसी की मुहिम के लिए सर्वाधिक सक्रिय और चर्चित साल माना जा सकता है। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिटेन का दौरा किया। इस दौरे से पहले भारतीय मूल के ब्रिटिश सांसद कीथ वाज के सहयोग से कोहिनूर की वापसी का ब्रिटेन में अभियान चलाया गया। कीथ वाज ने यहां तक कह दिया कि वह सबसे अच्छा दिन होगा जब मोदी ब्रिटेन से कोहिनूर लेकर वापस जाएंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उसी साल ‘माउंटेन आॅफ लाइट’ नाम से फिल्मी सितारों और व्यवसायियों ने एक समूह बनाकर इसे वापस लाने का अभियान चलाया। इसके अगले साल यानी 2016 में एक समूह ने सुप्रीम कोर्ट में इस हीरे को वापस लाने के लिए याचिका दाखिल कर दी। इस याचिका की सुनवाई के दौरान भारत सरकार का पक्ष रखते हुए अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल रंजीत कुमार ने जब अपना पक्ष रखा तो करोड़ों भारतीयों की उम्मीद टूट गई। रंजीत कुमार ने कोर्ट से कहा, ‘इस मांग को दोहराना एक तर्कहीन बहस है। यह दावा निराधार है क्योंकि कोहिनूर न तो चोरी किया गया था और न ही बलपूर्वक छीना गया था।’
बहरहाल कोहिनूर का इतिहास जानने वाले लोगों के लिए इतिहासकार विलियम डेलरिंपल और पत्रकार अनिता आनंद की जोड़ी की मेहनत कामयाब मानी जा सकती है। इसे हिंदी में जगरनॉट बुक ने प्रकाशित किया है।