साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित दर्जनों साहित्यिक पुरस्कार विजेता पद्मभूषण कवि कुंवर नारायण का बुधवार सुबह 90 साल की उम्र में निधन हो गया है। इसी साल चार जुलाई को मस्तिष्काघात के बाद वे कोमा में चले गए थे। उन्हें बीच बीच में काफी समय अस्पताल में भी भर्ती रखा गया था। उनका निधन आज उनके घर पर ही हुआ। वे अपने परिवार के साथ दिल्ली के चितरंजन पार्क में रहते थे। उनके निधन पर साहित्य जगत सहित तमाम लोगों ने शोक जताया है।
कुंवर नारायण की गिनती हिंदी के दिग्गज कवियों में की जाती है। उनकी कविता में मिथक, इतिहास, परंपरा और आधुनिकता का मेल नजर आता है। उन्होंने अपनी रचनाशीलता में वर्तमान को इतिहास और मिथक के जरिए ही देखा। उनका लेखन अपने समकालीन कवियों से अलग था। उन्होंने उस दौरान प्रचलित मुहावरों को नहीं पकड़ा और अलग काव्य मुहावरों की रचना की। वे अलग भाषा, विषय वस्तु से समाज के लिए चिंता व्यक्त करते हुए और परंपराओं को ध्यान में रखते हुए लेखन करते थे।
उनका जन्म 19 सितंबर 1927 को फैजाबाद में हुआ था। उन्होंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और अपने पुश्तैनी ऑटोमोबाइल के बिजनेस में घरवालों के साथ शामिल हो गए थे। इस दौरान भी उनका जुड़ाव साहित्य से बना रहा। उनकी पहली किताब ‘चक्रव्यूह’ साल 1956 में आई थी। उनकी प्रमुख रचनाओं में चक्रव्यूह के अलावा कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, वाजश्रवा के बहाने, आत्मजयी, आवाजें, अयोध्या 1992 आदि शामिल हैं। 51 साल के अपने साहित्यिक सफर में वे कविता के साथ कहानी, लेख, समीक्षा, रंगमंच पर लिखते रहे।
‘आकारों के आसपास’ नाम से उनका कहानी संग्रह भी आया था। ‘आज और आज से पहले’ उनका आलोचना ग्रन्थ है। उनकी रचनाओं का इतालवी, फ्रेंच, पोलिश सहित विभिन्न विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। उनके बेटे अपूर्व नारायण ने उनकी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया है।

भारतीय साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से उन्हें वर्ष 2005 में सम्मानित किया गया था। साल 1995 में उन्हें साहित्य अकादमी और साल 2009 में पद्म भूषण अवार्ड मिला था। इनके अलावा प्रेमचंद पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, केरल का कुमारन अशान पुरस्कार, व्यास सम्मान, श्लाका सम्मान (हिंदी अकादमी दिल्ली), उ.प्र. हिंदी संस्थान पुरस्कार, कबीर सम्मान भी उन्हें मिल चुका था। साहित्य अकादमी ने उन्हें अपना वृहत्तर सदस्य बनाकर सम्मानित किया था।
उनकी कविता अयोध्या 1992 की वजह से वो सुर्खियों में रहे थे। विवादों से दूर रहने वाले कुंवर नारायण को इस कविता के लिए तब धमकियां भी मिली थी।
अयोध्या 1992
हे राम, जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !
कुंवर नारायण भारत ही नहीं विश्व के श्रेष्ठ कवियों में से थे। विश्व साहित्य के गहन अध्येता कुंवर नारायण ने आधी सदी से अधिक समय में अनेक विदेशी कवियों की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया, जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। ‘न सीमाएं न दूरियां’ उनमें से कुछ उपलब्ध अनूदित कविताओं का संकलन है। जो बात इस पुस्तक को सबसे अनूठी और विशिष्ट बनाती है, वह यह है कि इसमें प्राचीन से लेकर अब तक के अनेक उत्कृष्ट विश्व कवियों की कविताओं के अनुवाद स्वयं आज के श्रेष्ठ हिन्दी कवि द्वारा किए गए हैं। इस संकलन का एक और विशिष्ट पक्ष विभिन्न कवियों पर सारगर्भित बातें और अनुवाद-संबंधी टिप्पणियां भी है।
कुंवर नारायण के लिए‘अनुवाद का मतलब कविता की भाषाई पोशाक को बदलना भर नहीं रहा है, बल्कि उसके उस अंतरंग तक पहुंचना रहा है, जो उसे कविता बनाता है।’उन्होंने अनुवाद की अवधारणा को अनुरचना की हद तक विस्तृत किया है और अनुवाद-कर्म को अपनी रचनात्मकता की तरह ही महत्त्व दिया है। अनुवाद के लिए जिस कवि को उन्होंने चुना, थोड़ा उसके प्रभाव में ढले, थोड़ा उसे अपने प्रभाव में ढाला। अनुवाद-कर्म के विशेष महत्व को रेखांकित करती यह किताब नई पीढ़ी के लिए एक अनूठा दस्तावेज है।
दीवार पर टंगी घड़ी
कहती − “उठो अब वक़्त आ गया।”
कोने में खड़ी छड़ी
कहती − “चलो अब, बहुत दूर जाना है।”
पैताने रखे जूते पाँव छूते
“पहन लो हमें, रास्ता ऊबड़-खाबड़ है।”
सन्नाटा कहता − “घबराओ मत
मैं तुम्हारे साथ हूं।”
यादें कहतीं − “भूल जाओ हमें अब
हमारा कोई ठिकाना नहीं।”
सिरहाने खड़ा अंधेरे का लबादा
कहता − “ओढ़ लो मुझे
बाहर बर्फ पड़ रही
और हमें मुँह-अंधेरे ही निकल जाना है…”
एक बीमार
बिस्तर से उठे बिना ही
घर से बाहर चला जाता।
बाक़ी बची दुनिया
उसके बाद का आयोजन है