संपादकीय- राजनीति में अस्पृश्यता के लिए जगह नहीं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कांग्रेस को कभी रास नहीं आया। कांग्रेस ही नहीं अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले राजनीतिक दलों की राजनीति का मूल ही संघ विरोध रहा है। संघ परिवार का विरोध करने वाला और जो कुछ भी मानता, करता हो लेकिन उसके लिए धर्मनिरपेक्ष बिरादरी के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। आजादी के बाद सात दशकों में राजनीति में बड़े बदलाव आए पर संघ विरोधियों की यह सोच नहीं बदली। उसका एक बड़ा कारण है कि उनकी यही राजनीतिक रणनीति उन्हें न केवल देश के मुसलमानों का वोट मिलना सुनिश्चित करती है बल्कि मुसलिम मतदाताओं को भाजपा से दूर भी रखती है। इन राजनीतिक दलों की यह रणनीति अभी तक तो सफल रही है। यही वजह है कि जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में संघ के मुख्यालय जाने का न्यौता स्वीकारा तो कोहराम मच गया। कांग्रेसियों के लिए तो यह कुफ्र से कम नहीं था। प्रणब मुखर्जी से राजनीति सीखने वाले भी उन्हें बताने लगे कि वे वहां जाकर क्या बोलें। उनसे अपील की गई कि वे नागपुर न जाएं। कार्यक्रम के दिन तक कांग्रेस तय नहीं कर पाई कि वह मुखर्जी के साथ खड़ी हो या विरोध में। पार्टी ही नहीं पूर्व राष्ट्रपति के परिवार में मतभेद पैदा हो गए। उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने कहा कि ‘वहां जाकर आप जो बोलेंगे लोग भूल जाएंगे पर वो चित्र हमेशा याद रहेगा। इसलिए आपको वहां नहीं जाना चाहिए।’ पूर्व राष्ट्रपति ने सिर्फ अपने मन की बात सुनी और कार्यक्रम में गए।
राष्ट्रपति बनने के बाद प्रणब मुखर्जी का दलगत राजनीति से नाता टूट गया। वे कांग्रेसी थे, कांग्रेसी हैं नहीं। उन पर अब कोई दलगत अनुशासन लागू नहीं होता। इस बात को कांग्रेस अभी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति हों या पूर्व प्रधानमंत्री यदि वे कांग्रेस के शासनकाल में नियुक्त हुए हैं तो माना जाता है कि वे नेहरू-गांधी परिवार के प्रति अपनी वफादारी आजीवन निभाते रहेंगे। प्रणब मुखर्जी ने पहली बार इस अघोषित समझौते को तोड़ दिया। उन्होंने संघ का निमंत्रण स्वीकार करके बता दिया कि अब वे एक स्वतंत्र नागरिक हैं। किसी पार्टी या परिवार की विचारधारा या वफादारी से बंधे हुए नहीं हैं। यही कारण है कि तमाम विरोध के बावजूद उन्होंने अपने कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं किया। कांग्रेस के लिए यह स्थिति असहनीय थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय में तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में मंच पर सरसंघ चालक मोहन भागवत के बगल में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बैठे हों और भगवा ध्वज फहराया जा रहा हो यह कल्पना उस दिन से पहले किसी ने नहीं की होगी। कम से कम कांग्रेस के लोगों ने तो नहीं ही की होगी। इस कार्यक्रम में भाग लेकर उन्होंने यूपीए शासनकाल में चली भगवा आतंकवाद की राजनीति को भी नकार दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए यह बड़ी घटना थी। क्योंकि अब तक जो लोग संघ के कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनकर आते रहे हैं उनमें से ज्यादातर संघ के प्रति सहानुभूति रखने वाले ही होते थे। या कम से कम ऐसे लोग जो संघ विरोधी न रहे हों। पहली बार एक ऐसी शख्सियत मंच पर थी जिसने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में संघ और भाजपा का विरोध किया। प्रणब मुखर्जी संघ मुख्यालय में मंच पर बैठे और भाषण भी दिया। पर उससे पहले उन्होंने जो किया संघ और भाजपा के लिए वह मधुर संगीत से कम नहीं था। संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित करने के बाद उन्होंने विजिटर रजिस्टर में लिखा कि वे भारत माता के महान सपूत को श्रद्धांजलि देते हैं। यह कोई सामान्य श्रद्धांजलि नहीं थी। न ही इसे महज औपचारिकतावश लिखा गया समझना चाहिए। उनके लिखने का मतलब यह हुआ कि पूर्व राष्ट्रपति इस बात को स्वीकार करते हैं कि राष्ट्र निर्माण में हेडगेवार का बड़ा योगदान है। आजादी के आंदोलन में संघ की हिस्सेदारी को लेकर उठने वाले सवालों का उन्होंने एक तरह से जवाब दे दिया है।
हेडगेवार भी एक समय कांग्रेस में ही थे। 1921-22 में खिलाफत आंदोलन तुर्की से चलकर भारत आया और कांग्रेस ने उसका समर्थन किया तो हेडगेवार ने उसका विरोध किया। जब उनकी नहीं सुनी गई तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। उसके बाद ही उन्होंने 1925 में संघ की स्थापना की। यह सही है कि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू भी संघ की शाखा/कार्यक्रम में आ चुके हैं। इंदिरा गांधी कन्याकुमारी में विवेकांनद रॉक के संघ के कार्यक्रम में गई थीं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कांग्रेस संघ को उस नजरिये से नहीं देखती। राहुल गांधी की शायद ही ऐसी कोई जनसभा होगी जिसमें उन्होंने संघ के खिलाफ न बोला हो। बल्कि उनके खिलाफ तो संघ पर झूठा आरोप लगाने पर मानहानि मुकदमा भी चल रहा है। नागपुर में संघ के कार्यक्रम में पूर्व राष्ट्रपति का जाना संघ की नीतियों और विचारों का अनुमोदन भले न हो लेकिन राहुल गांधी के संघ के प्रति रवैये का अस्वीकार जरूर है।
प्रणब मुखर्जी अपने पूरे राजनीतिक जीवन में एक बात पर हमेशा जोर देते रहे हैं कि जनतंत्र में संवाद जरूर होना चाहिए। जब संसद की कार्यवाही हंगामे के कारण बाधित होती थी तो सबसे ज्यादा दुखी और नाराज वही होते थे। यह अलग बात है कि इस मुद्दे पर विपक्ष की तो छोड़िए उनकी पार्टी ने भी उनकी कभी नहीं मानी। यह पहली बार हुआ कि संघ के मुख्यालय में कोई कार्यक्रम हुआ और पूरे देश के न्यूज चैनलों ने उसका सजीव प्रसारण किया। यह भी पहली बार हुआ कि संघ के किसी कार्यक्रम में संघ प्रमुख ने समापन भाषण नहीं किया। शायद अच्छा ही हुआ। इत्तफाक देखिए कि दोनों नेताओं ने देश की एकता, विविधता, सहिष्णुता और सबको साथ लेकर चलने के मुद्दे पर लगभग एक जैसी बात कही। भाषा और शब्द अलग थे। विविधता को दोनों ने देश की पहचान और ताकत बताया। प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में नेहरू को विस्तार से उद्धृत किया। सबको पता है कि मुखर्जी नेहरू से बहुत प्रभावित हैं। इसलिए वे नेहरू का जिक्र न करते ऐसा संभव नहीं था। उन्होंने अपने भाषण में मौर्यकाल- गुप्तकाल से भारत का संविधान बनने तक के इतिहास का जिक्र किया लेकिन उनसे कुछ छूट भी गया।
अपने भाषण के लिए उन्होंने जो विषय चुना वह था- राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्र भक्ति। पूर्व राष्ट्रपति को पढ़ने का बहुत शौक है। उन्होंने विभिन्न विषयों पर बहुत अध्ययन किया है। ऐसा व्यक्ति भारतीय राष्ट्रवाद की बात करे और श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती का जिक्र न करे यह बात समझ में नहीं आती। इतना ही नहीं, भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद की चर्चा करते हुए उन्होंने सनातन धर्म का भी जिक्र करना ठीक नहीं समझा। क्या इसलिए कि इनका जिक्र आने पर नेहरू के राष्ट्रवाद के यूरोपीय सिद्धांत पर सवाल उठता। वजह जो भी हो पर प्रणब मुखर्जी ने अपने इस एक फैसले (संघ मुख्यालय जाने) से देश की राजनीति से छुआछूत को खत्म कर दिया है। उनका संदेश साफ था कि उनकी नजर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्पृश्य नहीं है। यह भी कि जनतंत्र में समाज की ही तरह राजनीतिक छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
प्रणब मुखर्जी ने भारतीय राजनीति में एक नई शुरुआत की है। इसे राजनीति और वोट के संकीर्ण नजरिये से ऊपर उठकर देखा जाय तो परस्पर विरोधी विचारधारा वाले संगठनों, राजनीतिक दलों में संवाद की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। यह बात सभी पक्षों पर लागू होती है। सवाल तो यह है कि क्या राजनीतिक दल और उनके नेता इसे उसी भाव से लेंगे?

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