नेतरहाट की पहाडिय़ां अपने सौंदर्य के लिए देश भर में विख्यात हैं, लेकिन खनन कंपनियां उनकी सुंदरता पर ग्रहण लगा रही हैं. वे यहां की अपार खनिज संपदा लूटने पर आमादा हैं, जिससे आदिवासियों का जीवन दूभर हो गया है. लेकिन, राज्य सरकार न सिर्फ इस मसले पर खामोश है, बल्कि पर्दे के पीछे से खनन कंपनियों को गैर कानूनी ढंग से सहयोग कर रही है.
नेतरहाट में टुटवापानी मोड़ से आदिवासियों की बसाहट शुरू हो जाती है. उरांव, मुंडा, बिरजिया, नगेशिया एवं असुर समुदाय यहां स्थित बाक्साइट के अधिकांश पहाड़ों के मालिक हैं. बताते हैं कि सुकरा-सुकरी नामक दंपति ने जब पत्थर से बने चूल्हे पर खाना पकाना शुरू किया, तो आग की गर्मी से पत्थर पिघल कर लोहे में तब्दील हो गया. इस पर उन्होंने उस लोहे से तीर और कुल्हाड़ी बनाया. धीरे-धीरे इसने पेशे का रूप अख्तियार कर लिया. लेकिन, जब टाटा जैसी कंपनियां कृषि औजार बनाकर बेचने लगीं, तो समुदाय विशेष द्वारा बनाए गए औजारों की मांग खत्म हो गई. वे आज भी हथौड़े को भगवान मानकर उसकी पूजा करते हैं. इसके बाद कृषि उनकी रोजी-रोटी का जरिया बनी. अफसोस का विषय यह है कि बड़ी कंपनियों ने आदिवासियों के पारंपरिक रोजगार खत्म करने के बाद अब उनकी जमीनों एवं प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी गिद्ध दृष्टि टिका रखी है. बाक्साइट की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर रही है.
केंद्र एवं राज्य सरकारें भले दावा करें कि वे आदिवासियों के कल्याण के लिए प्रयासरत् हैं, लेकिन सच यह है कि पिछले सात दशकों में इनकी तादाद लगातार घटती जा रही है. राज्य में असुर जनजाति के अब सिर्फ 7,783 लोग बचे हैं, जो गुमला, लोहरदगा, लातेहार एवं पलामू तक फैले हुए हैं. यहां चारों तरफ बाक्साइट है. क्षेत्र का चैरापाट असुर जनजाति का गांव था, लेकिन अब यह मुंडा बहुल है. लोहे की तलाश में अधिकांश असुर परिवार यहां से कहीं और चले गए. हालांकि, स्थानीय आवासीय विद्यालय में बड़ी संख्या में असुर जनजाति की छात्राएं शिक्षा ग्रहण कर रही हैं, जो निकटवर्ती गांवों की हैं. विद्यालय की इमारत जर्जर है, खिड़कियां टूट चुकी हैं, बरसात में छत से पानी टपकता है, लेकिन शासन-प्रशासन ने इस बारे में मुंह मोड़ रखा है. विद्यालय में 88 छात्राएं हैं, जो छुट्टियों में अपने घर चली जाती हैं. विद्यालय स्थित हैंडपंप खराब पड़ा है और टंकी के लिए जलापूर्ति कभी होती नहीं. केयर टेकर मेलन असुर बताते हैं कि यहां सिर्फ दो शौचालय हैं, लेकिन वे इस्तेमाल के लायक नहीं हैं. छात्राओं को शौच-स्नान के लिए जंगल-झरने का इस्तेमाल करना पड़ता है. झरने का जल ही पीने के काम आता है. स्वच्छ भारत अभियान यहां सिर्फ नारों एवं विज्ञापनों में है. विद्यालय में खाना बनाने के लिए लकडिय़ों का इस्तेमाल होता है, इसलिए कई कमरों में सखुआ लकड़ी भरी पड़ी है. यहां आठ-दस सोलर लाइट हैं, जो बैट्री के अभाव के चलते बंद हैं. कक्षा एक से आठ तक की छात्राओं को पढ़ाने के लिए सिर्फ तीन सरकारी शिक्षक हैं.
विद्यालय परिसर के पास ही बाक्साइट खनन कार्यालय है, जहां ट्रकों एवं जेसीबी मशीनों की कतार लगी रहती है. लेकिन, किसी कंपनी का कोई साइन बोर्ड नहीं है. स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां दो तरह का खनन होता है, कानूनी और गैर कानूनी. क्षेत्र में आदित्य बिड़ला की कंपनी ‘हिंडल्को’ हर साल 2.23 मिलियन टन बाक्साइट का उत्खनन करती है. कई निजी बेनामी कंपनियां भी गैर कानूनी तरीके से उत्खनन में जुटी हुई हैं. चैरापाट में आदिवासियों की रैयती जमीनें खोदकर बाक्साइट निकाला गया, अब उत्खनन जंगल में चल रहा है. बेनामी कंपनियों ने अपने कार्यालय बना रखे हैं, उनके पास कई ट्रक एवं जेसीबी मशीनें हैं. उक्त कंपनियों ने स्थानीय युवाओं को अपना ठेकेदार बना रखा है, जो बाक्साइट उत्खनन के लिए रैयती जमीनें लेते हैं, बदले में उन्हें प्रति ट्रक 1,500 रुपये मिलते हैं और जमीन मालिक को 200 रुपये. बेनामी कंपनियां कच्चा माल हिंडल्को जैसी लीजधारक कंपनियों को 9,500 रुपये प्रति ट्रक की दर से बेचती हैं. जमीन मालिक, ठेकेदार, मजदूर, ढुलाई एवं अफसर-नक्सली लेवी आदि खर्च के बाद भी बेनामी कंपनी के मालिक प्रति ट्रक 5,000 रुपये कमाते हैं. ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि बेनामी कंपनियां वन संरक्षण कानून 1980, वन अधिकार कानून 2006 एवं पेसा कानून 1996 के तहत अनुमति लिए बगैर उत्खनन कर रही हैं, जो सुप्रीम कोर्ट के नियम गिरि जजमेंट का भी सरासर उल्लंघन है.
क्या बड़े पैमाने पर हो रहे इस गैर कानूनी उत्खनन के बारे में सरकार को पता नहीं है? खनन माफिया एवं माओवादियों के गठजोड़ के चलते स्थानीय लोग आवाज नहीं उठा पाते. माओवादी यहां सडक़ नहीं बनने दे रहे, जिसके चलते आदिवासियों को 20-25 किलोमीटर की दूरी बाक्साइट पत्थरों पर चलकर तय करनी पड़ती है. माओवादियों को लगता है कि सडक़ बनते ही खनन माफिया के साथ उनका गठजोड़ टूट सकता है, पुलिस कभी भी यहां पहुंच सकती है. माओवादियों ने बाक्साइट उत्खनन को कमाई का जरिया बना रखा है. उत्खनन ने कृषि लायक जमीनों को बर्बाद कर दिया है. आदिवासी कृषि पर ही निर्भर हैं. इस साल यहां धान की फसल अच्छी हुई है. राज्य सरकार ने बिशुनपुर प्रखंड को ‘खुले में शौच से मुक्त’ घोषित कर रखा है, लेकिन यहां किसी भी घर में शौचालय नहीं है. लोग कहते हैं कि शौचालय के लिए पानी कौन ढोकर लाएगा? खाना बनाने और पीने के लिए पानी लाना ही कठिन कार्य है. इलाके में कोई अस्पताल नहीं है, लोग बीमार पडऩे पर बिशुनपुर जाते हैं, जो गांव से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. लोग बाक्साइट भरे ट्रकों के जरिये ही बिशुनपुर जाते हैं. मेलन बताते हैं, आवासीय विद्यालय के बच्चे जब बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें उनके माता-पिता को सौंप दिया जाता है, क्योंकि यहां इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है. क्षेत्र में पांच सरकारी आवासीय विद्यालय हैं, तीन छात्रों एवं दो छात्राओं के लिए. आवासीय विद्यालय, जोभीपाट में प्रधानाध्यापक रहे चैत असुर बताते हैं, विद्यालयों में सिर्फ कागज पर ही सब कुछ अच्छा है. गांव में बिजली के पोल हैं, कुछ पोल तारों से जुड़े भी हैं, लेकिन सप्लाई नहीं आती. जबकि राज्य सरकार ऐलानिया तौर पर कहती है कि हर गांव में बिजली पहुंच गई है.
नेतरहाट स्थित टुटवापानी विस्थापन विरोधी जनांदोलन का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है. क्षेत्र के आदिवासियों ने पिछले तीन दशकों से भारतीय सेना के लिए प्रस्तावित ‘नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज’ परियोजना रोक रखी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारतीय सेना को कई बार बैरंग वापस भेजने वाले आदिवासी बाक्साइट से लदे ट्रक आखिर रोक क्यों नहीं पा रहे हैं?
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