नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने के लिए महागठबंधन तो बना, लेकिन उसके अंदर कितनी गांठ हैं, इस सच्चाई से जब आप रूबरू होंगे, तो हैरान रह जाएंगे. तीन चरणों के मतदान के बाद जैसे-जैसे इस सच से पर्दा उठ रहा है, वे लाखों कार्यकर्ता खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं, जो तन को झुलसा देने वाली इस गर्मी में ‘नरेंद्र मोदी हटाओ-देश बचाओ’ के नारे गला फाडक़र लगा रहे हैं.
महागठबंधन को लेकर कांग्रेस हाईकमान यह सोचता रहा कि अखिलेश सिंह, मदन मोहन झा एवं शक्ति सिंह गोहिल पार्टी के लिए लालू से ‘बारगेनिंग’ कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह थी कि उक्त तीनों नेता अपनी गोटी लाल करने के लिए लालू प्रसाद की ‘स्क्रिप्ट’ पढ़ रहे थे. यह ‘तिकड़ी’ सेट होते ही लालू के इशारे पर जीतन राम मांझी कुशवाहा से ज्यादा सीटें मांगने लगे, तो उपेंद्र कुशवाहा छह और मुकेश सहनी चार सीटों की मांग करने लगे, जबकि उन्हें क्या मिलना है, इसे लालू प्रसाद ने पहले ही तय कर रखा था. महागठबंधन बनाने में नरेंद्र मोदी को हराने से ज्यादा महत्व अपनी-अपनी सियासत दुरुस्त करने और कांग्रेस को उसकी हैसियत में रखने को दिया गया. एनडीए विरोधी मुहिम को इस महाफरेब से गहरा झटका लगा है और इसके संकेत तीन चरणों के मतदान के बाद आए रूझान से मिलने शुरू हो गए हैं. डर यह है कि चुनावी नतीजों के बाद राजद और कांग्रेस को छोडक़र महागठबंधन के दूसरे सहयोगी दल अपना अस्तित्व बचा पाएंगे कि नहीं? एनडीए को करारी शिकस्त देने वाले दावे तो अब हवा-हवाई लगने लगे हैं. महागठबंधन के सारे बड़े नेता जब सीट बंटवारे के लिए सियासी पत्ते फंेट रहे थे, तो उस समय रांची की होटवार जेल के पेईंग वार्ड में बैठा एक शख्स मुस्कुरा रहा था, क्योंकि उसे पता था कि कोई चाहे लाख पत्ते फंेट ले, निकलेगा वही पत्ता, जिसे उसने सेट कर दिया है. आखिर में हुआ भी वहीं. उस शख्स ने जैसा चाहा, वैसे ही पत्ते निकले और देखने वाले देखते रह गए. जी हां, अब तक आप समझ ही गए होंगे कि रांची में बैठा वह शख्स कोई और नहीं, बल्कि राजनीतिक चकव्यूह रचने के माहिर खिलाड़ी लालू प्रसाद हैं. अपने राजनीतिक कौशल का शानदार प्रदर्शन करते हुए लालू प्रसाद ने जेल में रहते हुए महागठबंधन के सहयोगी दलों को अपने जाल में ऐसा फंसा दिया कि उनके पास समर्पण के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा. लालू प्रसाद ने अपनी राजनीतिक चतुराई से राजद को सीट बंटवारे में 19 मुंहमांगी सीटों का तोहफा दे दिया और उसके साथ-साथ यह भी तय कर दिया कि पार्टी को कम सेे कम नाराजगी झेलनी पड़े. इसके अलावा अपने कुछ राजनीतिक विरोधियों को भी उनकी हैसियत का एहसास करा दिया.
इस पूरी कवायद में लालू प्रसाद और राजद की तो बल्ले-बल्ले रही, पर नरेंद्र मोदी विरोधी अभियान को इससे गहरा झटका लगा, जिसके संकेत मिलने शुरू भी हो गए हैं. महागठबंधन के अन्य सहयोगी दल रालोसपा एवं हम तो कई टुकड़ों में बंट गए और कांग्रेस, जो राजद के बराबर चलने का दावा कर रही थी, बहुत पीछे छूटी हुई नजर आ रही है. मुकेश सहनी के पास तो खोने के लिए कुछ है ही नहीं. लालू प्रसाद के इस चुनावी कारनामे से सहयोगी दल के नेता मन मसोस के रह गए. कुछ ने दिखाया कि देश और महागठबंधन के हित में उन्होंने यह समझौता कर लिया. लेकिन, अब धीरे-धीरे सच्चाई सामने आने लगी है, तो नरेंद्र मोदी का विरोध करने वाले लोग और ऐसे राजनीतिक दल के कार्यकर्ता खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. तन को झुलसा देने वाली गर्मी में अपने नेता के लिए जिंदाबाद-जिंदाबाद के नारे लगाने वाले कार्यकर्ता यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वे आखिर लड़ किसके लिए रहे हैं, लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती और अखिलेश सिंह के बेटे आकाश सिंह को दिल्ली भेजने के लिए या फिर नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए. ऐसे लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या उन्होंने अपना सारा जीवन पार्टी को इसलिए दिया कि बाहर से आए शत्रुघ्न सिन्हा और अनंत सिंह की पत्नी नीलम सिंह संसद में बैठें? महागठबंधन के कार्यकर्ता पूछ रहे हैं कि क्या उपेंद्र कुशवाहा को दो सीटों पर लडऩा जरूरी था, उन्हें अपने दल में कोई कार्यकर्ता उजियारपुर के लिए नहीं मिला? निखिल बाबू देखते रह गए और कांग्रेस की पैरवी से शिवहर से फैसल अली टिकट पा गए. ऐसी सियासत को महागठबंधन के वोटर महाफरेब बता रहे हैं. हाल यह है कि हर सहयोगी दल अपनी-अपनी सीट बचाने में लगा है और अपने क्षेत्र तक सीमित हैं. एनडीए के खिलाफ एकजुट होकर लडऩे का सपना तो कब का चूर-चूर हो गया है. गिनती की संयुक्त सभाएं हो रही हैं, जबकि दूसरी तरफ कोई ऐसा दिन नहीं गुजर रहा है, जब एनडीए के बड़े नेता एक साथ मिलकर जनता से वोट देने की अपील न कर रहे हों. हाल यह है कि तीन चरणों के मतदान में फजीहत झेलने के बाद महागठबंधन के घटक दल एक-दूसरे के खिलाफ ही बोलने लगे हैं.
दरअसल, लालू प्रसाद इस चुनाव में कांग्रेस का साथ चाहते तो थे, लेकिन सीमा में रहकर. कांग्रेस के लिए आठ-दस सीटें छोडऩे के लिए वह हमेशा तैयार थे. लेकिन, गांधी मैदान की सफल रैली के बाद राहुल गांधी को समझाया गया कि कांग्रेस को 17 सीटों से कम पर समझौता नहीं करना चाहिए या फिर अकेले चुनाव लडऩा चाहिए. यह सही है कि दो दशकों के बाद कांग्रेस ने गांधी मैदान में रैली करने का साहस दिखाया और उसे ठीक से किया भी. एक माहौल कांग्रेस के लिए बनने भी लगा था. लालू प्रसाद ने इस खतरे को समय रहते भांप लिया, इसलिए उन्होंने अपने पत्ते फंेकने शुरू कर दिए. भरोसेमंद सूत्र बताते हैं कि अखिलेश सिंह को लालू प्रसाद ने यह टास्क दिया कि कांग्रेस को जमीनी ताकत के आधार पर समझौते के लिए तैयार करना है. इस काम में अखिलेश सिंह को शक्ति सिंह गोहिल एवं मदन मोहन झा का पूरा साथ मिला. लालू प्रसाद ने अखिलेश सिंह के पुत्र को टिकट दिलवाने का वादा किया और साथ ही एक राज्यसभा सीट की भी गारंटी ली. लालू प्रसाद के इशारे के बाद इस तिकड़ी ने औरंगाबाद से निखिल कुमार के टिकट को भी नजरअंदाज कर दिया. जीतन राम मांझी ने कभी औरंगाबाद सीट मांगी नहीं थी, लेकिन उन्हें यह सीट पकड़ा कर निखिल कुमार को हमेशा के लिए निपटा दिया गया. यहां से लालू प्रसाद ने कभी राजद में रहे उपेंद्र प्रसाद को ‘हम’ का प्रत्याशी बनवा दिया. अनंत सिंह की पत्नी के लिए इस तिकड़ी ने लगभग ‘वीटो’ कर दिया. कांग्रेस के आम कार्यकर्ता पूछ रहे हैं कि निखिल बाबू को टिकट नहीं और एक आपराधिक छवि वाले नेता के पत्नी को टिकट क्यों? क्या मुंगेर से उम्मीदवारों की कमी थी? अनिल शर्मा या फिर समीर सिंह एवं श्याम सुंदर सिंह ‘धीरज’ जैसे साफ छवि वाले लोग यहां ललन सिंह को अच्छी टक्कर दे सकते थे, लेकिन टिकट किसी और को पकड़ा दिया गया. कांग्रेस के कई नाराज नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा कांग्रेस में हैं और प्रचार सपा का कर रहे हैं. तमाम उठापटक के बाद आखिर में कांग्रेस को ११ सीटें मिलनी तय हो गई थीं, लेकिन ऐसा क्या हुआ कि पार्टी को नौ सीटों पर ही लॉक कर दिया गया. इन नौ में भी पुराने कांग्रेसियों को टिकट नहीं मिला. पार्टी मिथिलांचल में किसी मैथिल ब्राह्मण को उम्मीदवार नहीं बना सकी, लेकिन जब मोतिहारी से अखिलेश सिंह के पुत्र आकाश सिंह को रालोसपा ने टिकट दे दिया, तो कांग्रेसियों का माथा ठनका. इसके बाद उन्हें पार्टी के अंदरखाने हुई राजनीति की भनक लगने लगी. लालू प्रसाद ने कन्हैया के लिए बेगूसराय सीट नहीं छोड़ी, लेकिन आरा में माले का समर्थन कर दिया. एकमात्र वजह यह कि पाटलिपुत्र में उनकी पुत्री मीसा भारती को माले का समर्थन और लगभग एक लाख वोटों का फायदा मिल सके.
मधुबनी सीट महागठबंधन में ‘वीआईपी’ को दी गई है. इस सीट पर कांग्रेस दावेदार थी. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. शकील अहमद को उम्मीद थी कि यह सीट अगर कांग्रेस की झोली में आई, तो उन्हें उम्मीदवार बनाया जाएगा. लेकिन, जब महागठबंधन में कांग्रेस को यह सीट नहीं मिली, तो वह हिल गए. उन्होंने दोस्ताना संघर्ष करने का ऐलान किया है. डॉ. शकील ने अपनी पार्टी को दो फॉर्मूले सुझाए थे. पहला यह कि कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार के तौर पर उन्हें नामांकन की अनुमति मिले. इसके लिए वह झारखंड की चतरा सीट का उदाहरण देते हैं, जहां राजद और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवार मैदान में हैं. डॉ. शकील का दूसरा फॉर्मूला सुपौल की तर्ज पर है. सुपौल में कांग्रेस की रंजीत रंजन महागठबंधन की घोषित उम्मीदवार हैं. डॉ. शकील का दावा है कि वहां राजद का झुकाव एक निर्दलीय की तरफ है. इन बातों से शकील साहब की दुविधा और उनके साथ हुई राजनीति का अंदाजा लगाया जा सकता है. इसी तरह शिवहर में जब लवली आनंद का दावा नजरअंदाज कर फैसल अली को टिकट दिया गया, तो लोग हैरान रह गए. सूत्र बताते हैं कि फैसल अली की अहमद पटेल से काफी नजदीकियां हैं और शक्ति सिंह गोहिल के माध्यम से उन्होंने इस टिकट का जुगाड़ लालू प्रसाद से कहकर किया है. पुराने कांग्रेसी कहते हैं कि हमने अपना पूरा जीवन क्या यही सब देखने के लिए पार्टी को दिया? सुपौल में कांग्रेस की मौजूदा सांसद रंजीत रंजन के खिलाफ एक निर्दलीय को राजद का अघोषित समर्थन है, लेकिन पार्टी इस पर विरोध दर्ज नहीं करा पा रही है. कांग्रेसी कहते हैं कि अच्छा होता, कांग्रेस अपने बलबूते सभी ४० सीटों पर लड़ती, कम से कम वह विधानसभा चुनाव के लिए तो तैयार हो जाती. ऐसे भी तीन-चार सीटें जीतनीं हैं और सभी पर लड़ते, तो भी इतनी जीतते. कम से कम सभी विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस जिंदा तो हो जाती, लेकिन अब तो हम एक दायरे में सिमट कर रह गए हैं. यही वजह है कि कांग्रेसी पूरे मनोयोग से महागठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं उतर रहे हैं, जिसका पूरा लाभ एनडीए को मिल रहा है. कांग्रेस ने चुनाव के लिए अलग-अलग प्रकोष्ठों में लगभग तीन सौ लोगों को जिम्मेदारी दी है. यह जानकर हैरानी होगी कि इसमें लगभग दो सौ लोग ऐसे हैं, जो रैली के समय कांग्रेस में शामिल हुए थे, जबकि पुराने कांग्रेसी यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पाने से वंचित रह गए.
जैसे-तैसे हो रहा है चुनाव प्रचार
पको यह जानकार हैरानी होगी कि महागठबंधन ने तीन चरणों के मतदान होने तक चुनाव प्रचार के लिए संयुक्त रणनीति नहीं बनाई. राहुल गांधी गया और सुपौल में चुनावी सभा कर चुके हैं, लेकिन दोनों ही जगहों पर तेजस्वी यादव नहीं दिखे, जबकि नरेंद्र मोदी की हर सभा में नीतीश कुमार दिख जाते हैं. संदेश यह जा रहा है कि महागठबंधन में तालमेल का अभाव है. उपेंद्रकुशवाहा और जीतन राम मांझी बहुत कम साथ दिख रहे हैं. समन्वय समिति न बनने का खामियाजा महागठबंधन प्रचार में भुगत रहा है. मतदान के तीन चरण समाप्त होने के बाद भी पांच दलों के बीच समन्वय बनाने के लिए कोई इकाई नहीं बन पाई है. उपेंद्र कुशवाहा के उजियारपुर से नामांकन के समय भी तेजस्वी गैर हाजिर थे. हालांकि, वजह अलग बताई जा रही है कि उस दिन उनकी सेहत ठीक नहीं थी. महागठबंधन में पांच दल हैं, जिनमें हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी को छोडक़र सभी के पास एक-एक हेलिकॉप्टर है. मांझी जरूरत के मुताबिक सहयोगी दलों के हेलिकॉप्टर की सवारी करते हैं. ‘वीआईपी’ के अध्यक्ष मुकेश सहनी का हेलिकॉप्टर राजद और हम जैसी पार्टियों के लिए उपलब्ध है. मांझी और मुकेश सहनी साझे में उड़ान भरते हैं. राजद के प्रदेश महासचिव आलोक मेहता भी उनके साथ रहते हैं.
महागठबंधन के प्रदेश स्तरीय नेताओं में तेजस्वी यादव की मांग सबसे अधिक है, वह एक साथ ‘माय’ समीकरण के वोटरों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. अब्दुल बारी सिद्दीकी का नाम स्टार प्रचारकों में शुमार है, लेकिन वह खुद अपने क्षेत्र दरभंगा में ही उलझे थे. लिहाजा, अब तक किसी अन्य के लिए वोट मांगने का उन्हें अवसर नहीं मिला. उत्तर बिहार के कुछ इलाकों में प्रभाव रखने वाले मो. अली अशरफ फातमी राजद छोड़ चुके हैं. पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पहले चरण के चुनाव में सक्रिय हुई थीं, लेकिन फिर सेहत ने उनका साथ नहीं दिया. विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव मंच पर महागठबंधन के सभी नेताओं के एक साथ मौजूद न रहने का कोई अतिरिक्त कारण नहीं मानते. उनके मुताबिक, संसदीय क्षेत्र की सामाजिक संरचना के हिसाब से नेताओं को बुलाया जाता है. अलग-अलग मंच होने के बावजूद हम सब एक ही लक्ष्य के लिए काम करे रहे हैं. उन्होंने कहा कि एनडीए में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंच पर खड़े रहना मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मजबूरी हो सकती है. ऐसी कोई मजबूरी महागठबंधन के नेताओं के साथ नहीं है. इलाके में प्रभाव के हिसाब से नेता प्रचार के लिए जाते हैं. वैसे महागठबंधन में बहुत अधिक नेताओं की मांग भी नहीं है.
तेजस्वी यादव चाहे जो कहें, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि सीट दर सीट आपसी समन्वय का बेहद अभाव है. जरूरत के हिसाब से न रणनीति बन रही है और न विरोधियों पर पलट वार किया जा रहा है. लालू प्रसाद के बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव अपने उम्मीदवार अंगेश सिंह के समर्थन में रोड शो कर रहे हैं, तो जीतन राम मांझी कह रहे हैं कि उपेंद्र कुशवाहा को जोडऩे का फायदा महागठबंधन को नहीं मिल रहा है. मांझी ने एक चौंकाने वाले खुलासे में कहा कि राम विलास पासवान एवं उपेंद्र कुशवाहा, दोनों महागठबंधन में आना चाहते थे, लेकिन मैंने मना किया था. लालू प्रसाद ने पासवान को लेकर तो मेरी बात मानी, लेकिन कुशवाहा को साथ ले लिया. लेकिन अब साफ है कि इसका कोई फायदा महागठबंधन को नहीं मिल रहा है. रालोसपा ने भी पलट वार करने में देरी नहीं की और कहा कि हैसियत देखकर ही सियासी फैसले होते हैं, वैसे ही हमें पांच सीटें नहीं मिल गईं. अब हाल यह हो गया कि सहयोगी दल एनडीए को घेरने के बजाय एक-दूसरे को ही घेर रहे हैं. अंदाजा लगाना सहज है कि महागठबंधन कितनी एकजुटता के साथ सूबे में एनडीए का मुकाबला कर रहा है.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महागठबंधन जनता का भरोसा जीतने का एक सुनहरा मौका खो रहा है. अपने लिए कुछ सीटें हासिल करने और विरोधियों को निपटाने के चक्कर में महागठबंधन खुद निपटा जा रहा है. राजद के पुराने धुरंधर रघुवंश सिंह का कहना है कि जनता का तो पूरा प्यार महागठबंधन को मिल रहा है, लेकिन चुनावी प्रबंधन इस बार कमजोर है. साफ है, उनका इशारा तेजस्वी एंड कंपनी के चुनावी प्रबंधन पर है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महागठबंधन का नेता होने के कारण यह तेजस्वी यादव की जिम्मेदारी है कि वह सभी को साथ लेकर चलें, लेकिन आधा चुनाव गुजर जाने के बाद भी इसकी झलक नहीं दिखती. चुनाव जब शुरू हो रहा था, तो अनुमान लगाया जा रहा था कि इस बार मुकाबला कांटे का होगा और ‘बीस-बीस’ का रिजल्ट होगा. माहौल भी बना था, लेकिन महागठबंधन बनाने में हुई राजनीति और उम्मीदवारों के चयन में प्रतिशोध साधने के लिए जानबूझ कर की गई भूल ने मैच का स्कोर बदलना लगभग तय कर दिया है. तीन चरणों के बाद तो यही लगता है कि अब ‘बीस-बीस’ का मैच नहीं होने जा रहा है. अभी भी वक्त है, अगर महागठबंधन के नेता अपने अहंकार से ऊपर उठकर पूरे दिल से एनडीए का मुकाबला करें, तो कुछ इज्जत बची रह सकती है. महागठबंधन का मकसद नरेंद्र मोदी और एनडीए का विजय रथ बिहार में रोकना था, लेकिन हाल यह है कि सहयोगी दल एक-दूसरे को ही रोकते नजर आ रहे हैं. सबको फ्रिक सिर्फ अपनी सीट निकालने की है. अब इसे एनडीए विरोधी वोटरों की भावनाओं के साथ महाफरेब नहीं, तो और क्या कहेंगे, यह बिहार की जनता को तय करना है.