जम्मू-कश्मीर – सीमावासियों की फिक्र

गोविंद सिंह।

जम्मू-कश्मीर में सीमा पर रहने वालों के धैर्य, जीवट और देशप्रेम की जितनी तारीफ की जाए कम है। वे निरंतर पाकिस्तानी रेंजरों की गोलीबारी और बम धमाकों से जूझते हैं। उनके बच्चे धमाकों की आवाज के साथ बड़े होते हैं। उनके स्कूल अकसर गोलीबारी के चलते बंद रहते हैं। वहां के किसानों को गाहे-बगाहे लाव-लश्कर के साथ अपना घर-बार छोड़कर सुरक्षित ठिकानों की तरफ भागना पड़ता है। उनके मवेशी तक पाकिस्तानी गोलियों के शिकार हो जाते हैं। बावजूद इन सबके यहां के लोग अपनी जमीन नहीं छोड़ते। उनके लिए बार-बार गुरु

गोविंद सिंह की ये पंक्तियां याद आती हैं-
सूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत,
पुरजा-पुरजा कट मरे, तऊं न छाड़े खेत।

पिछले 70 साल से यह सब झेलते हुए भी बॉर्डर के निवासियों के चेहरों पर शिकन तक नहीं आती। वे निरंतर डटे रहते हैं अपनी धरती की रखवाली में। बॉर्डर के अंतिम छोर तक लहलहाती फसलों को देख कर वाकई गर्व होता है। इसलिए जब 8 जून को देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बॉर्डर वासियों की बहुत सी पुरानी मांगों के जवाब में कुछ घोषणाएं कीं तो अच्छा लगा। जिनसे भी बात की सबने खुशी जाहिर की। खासकर जम्मू संभाग के बॉर्डर वासियों ने क्योंकि पिछले 70 साल से वे ठगे ही गए हैं।

तीन साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में जब जम्मू संभाग में भाजपा को ऐतिहासिक सफलता मिली तब यही कहा गया कि अब जम्मू को उसका हक मिलेगा। भाजपा ने बहुत सी घोषणाएं की भी लेकिन जमीनी स्तर पर कोइ खास बदलाव नजर नहीं आया। शायद भाजपा की स्थानीय इकाई उस तरह से काम नहीं कर पाई जैसी कि उससे अपेक्षा थी। अभी तक यहां कश्मीर केंद्रित सरकारें रही हैं। मुख्य राजनीतिक दल भी कश्मीर केंद्रित ही हैं इसलिए ज्यादातर फायदे कश्मीर को ही मिलते रहे। जम्मू उपेक्षित रह गया। जहां-जहां वास्तविक नियंत्रण रेखा थी वहां के लोगों को तो फायदे दे दिए गए लेकिन अंतरराष्ट्रीय सीमा वाले इलाकों को कोई लाभ नहीं दिया गया। ऐसे इलाके जम्मू संभाग में ज्यादा थे। इस लिहाज से राजनाथ की घोषणाएं महत्वपूर्ण हैं।

राजनाथ ने जो घोषणाएं की हैं उनमें एक तो वे हैं जिनकी मांग लंबे समय से चली आ रही हैं। मसलन पश्चिमी पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों की पुरानी मांग थी कि उन्हें यहां की नागरिकता दी जाए। वह तो अब भी नहीं मिली लेकिन उन्हें 5.5 लाख की एकमुश्त राहत और 13 हजार रुपये मासिक वृत्ति मिलने लगेगी। अभी तक उनके साथ भेदभाव यह होता था कि जो लोग इसी तरह की समस्याओं में कश्मीर आए थे उन्हें राहत राशि मिलती थी जबकि जम्मू संभाग में आए शरणार्थियों को नहीं। अब इससे 5,765 परिवारों को लाभ होगा। जम्मू-कश्मीर में इस तरह के लंबित मामले और भी बहुत हैं। इनमें 1957-58 के आसपास पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से आए सफाई कर्मियों की नागरिकता का मसला है। 1950 से ही यहां बसे गोरखा सैनिक परिवारों की नागरिकता का मसला भी है। इनका समाधान कब निकलेगा पता नहीं लेकिन अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार ने कुछ तो पहल की है।

सरकार ने ठान लिया है कि सीमांत गांवों को मदद दी जाए ताकि उन्हें ये अहसास हो कि उनके पीछे कोई खड़ा है। आए दिन पाकिस्तानी गोलाबारी में हमारे सुरक्षाकर्मियों के साथ ही सीमांत गांवों के लोग भी मारे जाते हैं, उनके घरों को नुकसान होता है, मवेशी मारे जाते है। इन गांवों में निरंतर एक भय का वातावरण बना रहता है। गुजरात, राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में कुल 3,323 किलोमीटर लंबी सीमा है। इसमें से 2,533 किलोमीटर सरहद पर कंटीली तार के बाड़ तो लग चुके हैं लेकिन बहुत इलाका ऐसा है जहां तार के बाड़ नहीं हैं। यहां तार के बाड़ लगाना मुश्किल भी है क्योंकि ये बंटवारा एकदम अस्वाभाविक है। पिछले दिनों मैं आरएसपुरा सेक्टर स्थित सुचेतगढ़ बॉर्डर देखने गया। मैंने देखा कि सुचेतगढ़ गांव तो है भारत का लेकिन उसकी भौगोलिक बनावट ऐसी है कि वह पूरी तरह से पाकिस्तान में है। दोनों तरफ के खेत एक-दूसरे से टकराते हैं। इसलिए जब भी गोलीबारी होती है यहां के लोग मारे जाते हैं। जानमाल का नुकसान होता है। फौजियों की तरह इन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिलता। हालांकि ये फौजियों के लिए बड़े मददगार साबित होते हैं।

इसलिए गृह मंत्री ने घोषणा की कि पाकिस्तानी गोलीबारी में मारे गए नागरिकों के परिजनों को 5 लाख रुपये दिए जाएंगे। पहले यह रकम एक लाख हुआ करती थी। इसी तरह मारे गए प्रति मवेशी पर 50 हजार रुपये दिए जाएंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार पूरे सीमावर्ती गांवों में 450 करोड़ रुपये की लागत से 14 हजार 460 गांवों में मजबूत बंकर बनाएगी। गोलीबारी की स्थिति में गांववासी तुरंत बंकरों में छिप जाएंगे। इससे जानमाल का नुकसान कम होगा। साथ ही सीमांत क्षेत्रों में पांच बुलेट प्रूफ एम्बुलेंस तैनात की जाएंगी ताकि तत्काल चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई जा सके। जिस बात से यहां के युवा सबसे ज्यादा उत्साहित हैं, वह है सरहदी इलाकों के लिए कुल नौ सुरक्षा बटालियनें गठित करने का फैसला। इनमें सीमांत गांवों के युवाओं के लिए 60 फीसदी तक आरक्षण होगा। इनमें दो बटालियन विशुद्ध बॉर्डर के लिए, दो महिलाओं के लिए और पांच रिजर्व बटालियनें होंगी। इससे यहां के 7,000 युवाओं को रोजगार मिलेगा। निश्चय ही इससे युवाओं में खुशी की लहर दौड़ पड़ी है। दरअसल, जम्मू इलाके में भी उत्तराखंड या हिमाचल प्रदेश की ही तरह युवाओं में फौज में भर्ती होना सबसे बड़ा आकर्षण होता है। बड़े पैमाने पर यहां के युवा फौज को ही अपना सबसे सुगम करियर समझते है। इसलिए भी यह फैसला महत्वपूर्ण है।

सरहदी गांवों को बंकरों से सज्जित करने का विचार इजराइल से लिया गया है। इजराइल भी पिछले 60 साल से ऐसे ही छापामार युद्ध झेल रहा है। वहां भी फिलिस्तीन व गाजा पट्टी से आए रोज हमले होते हैं। उसने बड़ी होशियारी से अपने नागरिकों को सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर बंकर बना लिए हैं। पूरी सीमा पर बहुत मजबूत और हाई टेक बाड़ लगा ली है। भारत ने भी पंजाब की सीमा पर तार के बाड़ पहले ही लगा ली थी। जिन इलाकों में भारत को लगता है कि वहां से आतंकवादी घुसपैठ कर सकते हैं वहां तार के बाड़ लगा दिए गए हैं। लेकिन अब आतंकवादी उन्हीं जगहों को चुनते हैं जहां से सरहद खुली होती है। पंजाब में तो उन्होंने बाड़ के नीचे भी सुरंगें बना ली हैं जहां से वह आतंकियों और ड्रग्स तस्करों को घुसाता रहता है। वर्ष 2016 में पठानकोट में हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने इसे गंभीरता से लिया। सरकार को लगा कि सीमाओं को सुरक्षित करने का एकमात्र तरीका स्थायी व हाईटेक बाड़ ही है। उसके बाद इजराइल से बात की गई और अब भारत वह तकनीक लेने जा रहा है। यह बाड़ हाईटेक होगी जिसे भेद पाना पाकिस्तानी आतंकियों के लिए आसान नहीं होगा। राजनाथ सिंह के मुताबिक, वर्ष 2020 तक पाकिस्तानी सरहद पूरी तरह से सील हो जाएगी। सरकार की योजना है कि बॉर्डर सिक्युरिटी ग्रिड के जरिये घुसपैठ को शून्य प्रतिशत तक ले आया जाए। यदि इजराइली तकनीक आ जाती है तो इस लक्ष्य को हासिल करने में कोई मुश्किल नहीं होगी।

पाकिस्तान जैसे बिगड़ैल पड़ोसी से निपटने का यही तरीका अब शेष रह गया है क्योंकि जिस तरह का छद्म युद्ध वह छेड़े हुए है उसमें और कोई विकल्प हो भी नहीं सकता है। सबसे अच्छी बात यही है कि सरकार सीमांत वासियों का विश्वास जीतने लगी है। बिना सीमांत नागरिकों के सहयोग के कोई अंतरराष्ट्रीय लड़ाई नहीं जीती जा सकती। देखना यह है कि जमीनी स्तर पर ये घोषणाएं कैसे लागू होती हैं।

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हैं)

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