रमेश कुमार ‘रिपु’

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एम्स अस्पताल में 17 जनवरी की सुबह सिलोकोसिस से पीड़ित संजय शर्मा की मौत हो गई। बीमारी की वजह से उसकी नौकरी भी चली गई थी। उसकी पत्नी मधु शर्मा के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह अपने पति के शव को समता कॉलोनी ले जा सके। उसकी मदद एम्स प्रशासन ने भी नहीं की। थक हार कर वह हाथ ठेले से अपने पति का शव घर ले गई। सुकमा जिले के गोंदपल्ली आश्रम में छात्रा पूजा की मौत के बाद विभागीय अफसरों ने मृतका के शव को उसके गृहग्राम गादीरास के कोन्द्रे से तीन किलोमीटर पहले एंबुलेंस से छोड़ दिया और वापस चले गए। पोस्टमार्टम न होने की वजह से पिता पदमी आयकता व परिजन खटिया पर कोन्द्रे से पूजा का शव लेकर 8 किलोमीटर चलकर गादीरास पीएचसी लेकर आए जहां पुलिस रिपोर्ट के बाद पोस्टमार्टम किया गया। आश्रम अधीक्षिका की लापरवाही से समय पर इलाज न मिलने से उसकी मौत हो गई थी। दंतेवाड़ा के कटेकल्याण ब्लॉक की रहने वाली सुकरी बाई (78 वर्ष) को पिछले तीन माह से पेंशन नहीं मिली है। 300 रुपये के लिए उसका बेटा और नाती उसे कांवड़ में बिठाकर जनपद पंचायत के अधिकारियों से लेकर पंच सरपंच और सचिव के पास दर-दर घूम रहे हैं।
छत्तीसगढ़ की यह तीन बानगी रमन सरकार से सवाल कर रही है कि आखिर सरकार किसके लिए है। 17 बरस हो गए छत्तीसगढ़ राज्य बने लेकिन विकास के नारों के झोले से निकल कर आम आदमी तक क्यों नहीं पहुंचा। आखिर अपने परिजनों के शव को ले जाने के लिए शव वाहन न मिलने पर कितने लोगों को दाना माझी बनना पड़ेगा। क्या प्रशासन आयोडेक्स नहीं है? आम आदमियों की छोटी-छोटी जरूरतों को अब तक सरकार पूरा क्यों नहीं कर सकी? आखिर ऐसी क्या वजह है कि सरकारी योजनाएं गांवों तक पहुंच नहीं पातीं। चौंकाने वाली बात है कि गर्भवती महिलाओं को अस्पताल तक ले जाने के लिए महतारी एक्सप्रेस है लेकिन सड़क मार्ग न होने की वजह से ग्रामीणों को कांवड़ से सड़क मार्ग तक पीड़ितों को लाने के बाद ही महतारी एक्सप्रेस मिलती है। कोंडागांव की रसली बाई (28 वर्ष) को घर के लोग कांवड़ से पांच किलोमीटर दूर मुख्य सड़क तक लेकर आए तब एंबुुलेंस सुविधा मिल सकी। माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में ऐसी समस्याएं आम हैं। सवाल यह है कि आखिर कितने गणतंत्र के बाद आम आदमी को अपने परिजन के शव को घर तक ले जाने या मरीज को अस्पताल तक ले जाने के लिए एंबुलेंस मिलेगी।

बीमार हैं अस्पताल
बस्तर संभाग के नारायणपुर जिले का अबूझमाड़ इलाका आजादी के सात दशक बाद भी अबूझ है। यहां के अस्पताल स्वयं बीमार हैं। इन अस्पतालों में बीमार जिंदगी के इलाज की उम्मीद बेमानी है। विकास की किरणें यहां अब तक नहीं पहुंची हैं। 36 ग्राम पंचायतों के बीच एक ओरछा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। चार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 37 उपस्वास्थ्य केंद्र भवन विहीन हैं। 33,556 जनसंख्या वाले अबूझमाड़ में सड़कों का अकाल है। कोई बीमार हो गया तो एंबुलेंस मौके पर पहुंच ही नहीं सकती। गंभीर मरीजों को मुख्यालय तक पहुंचने के लिए (30-40 किलोमीटर) एंबुलेंस की जगह चारपाई ही एक मात्र साधन है। बीते साल 200 महिलाएं प्रसव के दौरान मर गर्इं। यह सरकारी आंकड़ा है, वास्तविक तो इससे भी अधिक होगा। उल्टी दस्त और मामूली बीमारी से मरने वालों की संख्या अलग है। इनके रिकॉर्ड सरकारी अस्पतालों में दर्ज नहीं हैं।

डॉक्टर के 244 पद खाली
बस्तर संभाग का करीब 60 फीसदी क्षेत्र पहुंच विहीन हैं। इसलिए चारपाई ही यहां एंबुलेंस है। संभाग में करीब 12 सौ अस्पताल हैं। इंद्रावती नदी के पार ज्यादातर अस्पताल भवन विहीन हैं और सुविधाएं भी नहीं हैं। पूरे संभाग में 19 विशेषज्ञ और एमबीबीएस डॉक्टरों के 244 पद खाली हंै जबकि 310 पद मंजूर किए गए हैं। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो माओवादी क्षेत्र दंतेवाड़ा और सुकमा जिले में एक भी विशेषज्ञ चिकित्सक नहीं है। जबकि दंतेवाड़ा में 38 और सरगुजा में 22 पद स्वीकृत हंै। इसी प्रकार बीजापुर में 40 में से 39, नारायणपुर में 21 में से 20, जगदलपुर के महारानी अस्पताल में 49 में से 46 और कोंडागांव में 37 में से 35 पद खाली हैं।

75 फीसदी केंद्रों में डॉक्टर नहीं
राजधानी रायपुर के 75 स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सक ही नहीं हैं। एक डॉक्टर के भरोसे चार स्वास्थ्य केंद्र हैं। प्रदेश में एक हजार विशेषज्ञ चिकित्सकों समेत डेढ़ हजार चिकित्सकों की जरूरत है। राजधानी में संचालित लगभग दर्जन भर स्वास्थ्य केंद्रों में मात्र 25 फीसदी पूर्णकालिक चिकित्सक हैं। बाकी सभी प्रभार पर चल रहे हैं। यानी एक चिकित्सक को चार स्वास्थ्य केंद्रों का प्रभार संभालना पड़ रहा है। प्रदेश में 1,277 विशेषज्ञों के पद स्वीकृत हैं लेकिन सरकार की कई कोशिशों के बाद भी 1,114 पद रिक्त हैं। हालत यह है कि प्रदेश में चिकित्सकों के 1,873 पदों के मुकाबले 410 पद और नर्सिंग स्टॉफ के 10,769 स्वीकृत पदों के मुकाबले 1,512 पद भरे नहीं जा सके। एएनएम के 6,088 पदों के मुकाबले 466 पद अभी भी खाली हैं। एलएचवी के 1,168 पद में 393 खाली हैं। नर्सिंग सिस्टर के 258 पदों में 120 रिक्त हैं। स्टाफ नर्स के 3,275 पदों में 533 अभी भी खाली हैं।

बरसों बाद भी पुल नहीं
बस्तर संभाग के जिले चकाचक हैं लेकिन अंदर के गांवों का मौसम नहीं बदला है। कोंडागांव जिले के राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर ग्राम घनोरा बसा है। यहां से होकर इरागांव जाने के लिए न तो सड़क है और न ही पुलिया है। दोनों गांवों के बीच बारदा नदी बहती है। इस पर आज तक पुल नहीं बना है जबकि उस पार 30 गांव हैं। प्रशासन को पता है कि बारिश में चार माह तक ग्रामीण कोंडागांव मुख्यालय से कट जाते हैं। जिला मुख्यालय तक पहुंचने के लिए ग्रामीणों ने लकड़ी के पाटे का पुल बनाया हुआ है। उसी पाटे के सहारे आते जाते हैं। जरा सा संतुलन बिगड़ा तो धम्म से बहती नदी में। ग्रामीण नहरूराम कहते हैं कि गांव वालों की पुल की मांग कोई आज की नहीं है। बल्कि उनके बाप-दादा पुलिया की मांग करते-करते गुजर गए लेकिन आश्वासन ही मिला। नदी के उस पार प्राथमिक शाला है। आगे की पढ़ाई के लिए घनौरा हाई स्कूल के अलावा और कोई स्कूल नहीं है। इसलिए बच्चों को नदी पार कर के आना ही पड़ता है। नदी जब उफान पर होती है तो घर वाले बच्चों से कहते हैं कि देखना बेटा, पानी ज्यादा हो तो नदी पार मत करना, लौट आना वापस। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिया के दोनों ओर पुलिस के जवान तैनात रहते हैं। शासन को सब कुछ पता है। उन्हें मालूम है कि कोंडागांव जिले के केशकाल ब्लॉक के ईरागांव थाना अन्तर्गत कारागांव, उमला, गद्दाड़, चूरेगांव, सावलवाही, डूण्डाबेड़मा, बुयकी जुगानार, बिंझेकलेपाल, पराली, कानागांव, कोरगांव, बाड़ागांव, तुर्की के अलावा कई गांव में बरसात के दिनों में राशन तक नहीं पहुंचाया जा सकता है। कोंडागांव के कलेक्टर नीलकंठ टेकाम कहते हैं, ‘बारदा नदी पर पुल निर्माण की स्वीकृति के लिए केंद्र को पत्र भेजा गया है। वहां से अनुमति मिलते ही निर्माण कार्य प्राथमिकता के तौर कराया जाएगा।’

बच्चे मरें, सरकार का क्या
राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ कई सालों से बाल कुपोषण के मामले में शीर्ष दस में है। माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास के साथ बच्चों में कुपोषण दूर करने की गति काफी धीमी है। राज्य निर्माण के 17 साल बाद भी कुपोषण की समस्या मुंह बाये खड़ी है। प्रदेश के पांच जिले कुपोषण में शीर्ष पर हैं। बिलासपुर में 44,791, राजनांदगांव में 42,255, रायपुर में 39,876, रायगढ़ में 34,876 और बलोदाबाजार में 33,983 बच्चे कुपोषित हैं। सरकारी आंकड़े के मुताबिक प्रदेश में अभी 7 लाख 11 हजार 831 बच्चे कुपोषित हैं। हालांकि पिछले 17 सालों में 17 फीसदी कुपोषण में कमी आई है। जाहिर है यह रफ्तार बहुत धीमी है। कवर्धा मुख्यमंत्री रमन सिंह का गृह जिला है। यहां 23,100 बच्चे कुपोषण के शिकार हैं जिनमें से 6,100 बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं और 17 हजार बच्चे अल्प कुपोषण से ग्रस्त हैं। महिला एवं बाल विकास विभाग के नौ परियोजना केंद्रों के तहत 1,548 आंगनबाड़ी व 67 मिनी आंगनबाड़ी केंद्र संचालित हैं। इनमें 78,578 बच्चे दर्ज हैं। प्रदेश में अब भी 33.29 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यह सरकारी आंकड़ा है। जमीनी हकीकत तो इससे भी अधिक है।
प्रदेश के एक दर्जन से अधिक जिलों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में मासूमों के समुचित इलाज की व्यवस्था नहीं है। कुपोषण दूर करने का जिन्हें जिम्मा दिया गया है वे या तो बजट का सही उपयोग नहीं कर पाते हैं या फिर डकार जाते हैं। नतीजा कुपोषण का पोषण पिछले 17 सालों से हो रहा है। माओवाद प्रभावित दंतेवाड़ा, कोंडागांव, नारायणपुर और बस्तर जिलों में बाल कुपोषण की दर 41.69 फीसदी है। सुकमा स्थिति इन जिलों से बेहतर है। वहां कुपोषण 27.78 फीसदी है। वहीं राजधानी रायपुर में 31.87 फीसदी है। निश्चय ही सरकार को नक्सलवाद के साथ कुपोषण की भी लड़ाई लड़नी चाहिए। धमतरी जिले में 33.71 फीसदी, राजनांदगांव में 38.04 फीसदी, सुकमा में 27.78 फीसदी, कोंडागांव में 41.84 फीसदी, गरियाबंद में 36.68 फीसदी, महासमुंंद में 34.03 फीसदी, कोरबा में 28.52 फीसदी, कबीरधाम में 30.89 फीसदी, कोरिया में 29.87 फीसदी, जशपुर में 33.17 फीसदी, रायगढ़ में 32.20 फीसदी, सरगुजा में 30.65 फीसदी, मुंगेली में 30.36 फीसदी और सूरजपुर में 31.35 फीसदी कुपोषण है।

27 हजार बेटियां लापता
छत्तीसगढ़ राज्य बने 17 साल हो गए, बावजूद इसके यहां गरीबी में कोई कमी नहीं आई है। 2014 में आए एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक 47.9 लोग छत्तीसगढ़ में गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। जाहिर है कि गरीबी का फायदा उठाने वालों के निशाने पर इस राज्य के वे सभी जिले हैं जहां आदिवासी लड़कियां घर में काम दिलाने, देह व्यापार और हरियाणा, पंजाब, राजस्थान या उत्तर प्रदेश में विवाह करा देने के नाम पर दलालों के शिकंजे में फंस जाती हैं। दिल्ली में तकरीबन 300 से अधिक प्लेसमेंट एजेंसियां हैं जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर, बस्तर और रायगढ़ आदि जिलों की आदिवासी लड़कियों को घरेलू नौकरानी का काम दिलाने के लिए आकर्षित करती हैं। 2008 से अब तक प्रदेश की 27 हजार बेटियां लापता हो गई हैं। राजधानी रायपुर से ही 2017 में 2,123 लड़कियां लापता हैं। कानून व्यवस्था चुस्त न होने की वजह से राजधानी अस्मत लुटेरों की राजधानी बन गई है। रायपुर में 190 मामले दर्ज किए गए जो प्रदेश के 27 जिलों में पहले स्थान पर है। दुर्ग दूसरे स्थान पर है (129), तीसरे स्थान पर सरगुजा (110), चौथे स्थान पर बिलासपुर (107) और पांचवा नंबर रायगढ़ जिले का है जहां 105 मामले दुष्कर्म के दर्ज किए गए। 2015 में दुष्कर्म के 1,629 मामले दर्ज हुए जो 2016 में बढ़कर 1,700 हो गए। 2017 में 1,716 मामले दर्ज हुए। इसी तरह सामूहिक दुष्कर्म के 2014 से 2017 तक 257 मामले दर्ज हुए। नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंह देव कहते हैं, ‘साल दर साल बढ़ते दुष्कर्म के मामले से जाहिर है कि महिलाओं की सुरक्षा में सरकार नाकाम रही है। सरकार को चाहिए कि वह महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पुलिस व्यवस्था को और दुरुस्त करे। साथ ही समाज में जागरूकता लाने की आवश्यकता है।’

गजराज बने यमराज
छत्तीसगढ़ के 27 जिलों में से 17 जिले हाथियों के उत्पात से प्रभावित हैं। पिछले पांच सालों में 199 लोगों की हाथियों की वजह से मौत हुई है और करीब 7,000 घरों को हाथियों ने तोड़ डाला। जबकि 32,953 हेक्टेयर फसल को नुकसान पहुंचाया। हाथियों की वजह से प्रभावित परिवारों को राज्य सरकार की तरफ से 39 करोड़ 49 लाख 85 हजार 650 करोड़ रुपये का मुआवजा बांटा गया। झारखंड और ओडिशा में पेड़ों की अवैध कटाई और खनन से सिकुड़ते जंगलों की वजह से हाथियों ने छत्तीसगढ़ का रुख किया है। केंद्र सरकार से हाथी अभ्यारण्य बनाने की मंजूरी मिलने के बाद भी प्रदेश सरकार ने कोयले की चाह में परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल रखा है। हाथी को साथी बनाने की मंशा सरकार में नहीं दिख रही है।

किसानों की कब्रगाह बना प्रदेश
धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ किसानों की कब्रगाह बन चुका है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार खुदकुशी के मामले में महाराष्ट्र, तेलंगाना और मध्य प्रदेश के बाद छत्तीसगढ़ चौथे स्थान पर है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले 14 सालों में प्रदेश में 14,793 किसानों ने आत्महत्या की है। एनसीआरबी ने 2011 से 2013 की अवधि में ऐसी मौतों की गणना नहीं की। प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग की रिपोर्ट के अनुसार 2013 में 2,077 लोगों ने आत्महत्या की थी। जबकि वर्ष 2014 में 443 किसानों में 52 महिला किसानों ने खुदकुशी की। साल 2015 से 30 अक्टूबर 2017 तक 1,344 किसानों ने की खुदकुशी। जाहिर है कि खेती को लाभ का धंधा बनाने की बात केवल सियासी बयान तक सिमट कर रह गई है।

22.84 लाख युवक बेरोजगार
प्रदेश में आबादी के अनुसार रोजगार का सृजन नहीं हो पाया है। प्रदेश में दिसंबर 2017 तक 22 लाख 84 हजार 550 पंजीकृत शिक्षित बेरोजगार थे। इनमें से 15 लाख 9 हजार 315 पुरुष और 7 लाख 75 हजार 376 महिलाएं शामिल हैं। प्रदेश के शिक्षित बेरोजगारों को 500 रुपये मासिक भत्ता दिया जाता था जो 2015 से बंद है। प्रदेश में सबसे अधिक 2 लाख 69 हजार 965 शिक्षित बेरोजगार दुर्ग जिले में पंजीकृत हैं। रायपुर में रोजगार के अवसर की ज्यादा संभावना है। यहां 18,259 बेरोजगार पंजीकृत हैं। माओवाद प्रभावित सुकमा जिले में सबसे कम 6,937 बेरोजगार ही रोजगार कार्यालय में पंजीकृत हैं। बिलासपुर में 1,62,181, राजनांदगांव में 1,17,636, जांजगीर-चांपा में 1,17,078, रायगढ़ जिले में 1,60,509 शिक्षित बेरोजगार हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल का कहना है कि ये तो सरकारी आंकड़े हैं मगर हकीकत यह है कि प्रदेश के 45 लाख युवा बेरोजगार हैं।

नहीं थमी नक्सली आहट
डेढ़ दशक से अधिक समय हो गया लेकिन छत्तीसगढ़ को माओवादियों से निजात नहीं मिली। साल 2017 में 300 से ज्यादा नक्सलियों को मार गिराया गया और 1,017 नक्सली गिरफ्तार हुए जिनमें 79 नक्सलियों पर इनाम था। पिछले दो साल में 1,476 नक्सल आॅपरेशन चलाए गए। इनमें 1,994 नक्सलियों की गिरफ्तारी हुई और 1,458 नक्सलियों को मार गिराया गया। इस दौरान 102 जवान शहीद भी हुए और जवानों के 43 हथियार लूटे गए। केंद्र और राज्य सरकार के 70 से 75 हजार जवान नक्सलियों से लड़ रहे हैं। चार नई बटालियन में पांच हजार जवान इस साल मार्च तक तैनात किए जाएंगे। डीजीपी एएन उपाध्याय ने बताया, ‘आपरेशन के साथ-साथ विकास के भी काफी काम हुुुए। बस्तर में पुलिस की देखरेख में दो साल में 700 किलोमीटर सड़क बनी और 1,300 किलोमीटर सड़क बनाने का काम जारी है। वहीं 75 नए थाने भी खोले गए।’

जाहिर है, अभी राज्य सरकार को विकास की कई सीढ़ियां चढ़नी बाकी हैं। केवल मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का लोकसुराज के जरिये लोगों तक पहुंचना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि समस्याओं के जो आवेदन आते हैं उन पर गौर कर उसका निराकरण भी जरूरी है। तभी इस तंत्र के प्रति गण में सम्मान का भाव जगेगा और छत्तीसगढ़ की पहचान आधुनिक छत्तीसगढ़ के रूप में बन पाएगी। 