बालेन्दु शर्मा दाधीच

मोबाइल फोन सहज संपर्क का निजी उपकरण भर नहीं रह गया है। तकनीकी नवोन्मेष की बदौलत वह धीरे-धीरे एक सुसंगठित मंच में तब्दील हो रहा है, जिसे अन्य मीडिया या नेटवर्किंग माध्यम की तरह एक खास तरह से एड्रेस (संबोधित) किया जा सकता है। स्मार्टफोन पर इंटरनेट, क्लाउड और एप्स का रूपांतरकारी प्रभाव स्पष्ट है।

प्रधानमंत्री का बयान मोबाइल फोनों की अपरिमित पहुंच की तरफ भी इशारा करता है। देश में एक अरब से ज्यादा मोबाइल कनेक्शन हो गए हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि भारत के करीब 90 फीसदी घरों में कम से कम एक कनेक्शन जरूर है। न टेलीविजन, न रेडियो और न ही अखबार इस तरह हर घर में पहुंच सकता है। ब्रॉडकॉस्ट इंडिया के पिछले साल के सर्वे के मुताबिक 64 फीसदी हिंदुस्तानी घरों में टेलीविजन सेट मौजूद थे। इस अंतराल को छोड़ भी दिया जाए तो एक माध्यम के रूप में टेलीविजन विज्ञापन और मार्केटिंग के लिए बहुत महंगा माध्यम है और चैनलों की विविधता के कारण पर्याप्त संख्या में लक्षित उपभोक्ताओं तक विज्ञापनदाता का संदेश पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है। मोबाइल अपने जबरदस्त विस्तार और व्यापक पहुंच के बावजूद अपेक्षाकृत किफायती दरों पर लोगों तक पहुंचने का ज्यादा कारगर जरिया साबित हो सकता है। बल्कि कुछ इनोवेटिव तरीकों का इस्तेमाल कर आप लगभग शून्य बजट पर भी बड़ी संख्या में मोबाइल उपभोक्ताओं तक संदेश पहुंचा सकते हैं।

मोबाइल, डिजिटल और सोशल नई पीढ़ी के लिए आॅक्सीजन के समान हैं और देश की आबादी में पचास फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाला युवा वर्ग न सिर्फ संख्याबल के लिहाज से बल्कि अपने प्रभाव और सक्रियता के लिहाज से भी राजनैतिक दलों का भविष्य तय करने की स्थिति में है। युवा पीढ़ी की भाषा बोलने तथा उसके तौर-तरीकों के साथ तालमेल बिठाने में सक्षम दल और नेता इस पीढ़ी के राजनैतिक विचारों को प्रभावित करने में दूसरों से बेहतर स्थिति में होंगे। अगर कोई उपकरण या तकनीक मतदाताओं इतने शक्तिशाली वर्ग तक पहुंचाने में सक्षम है तो आधुनिक सोच वाला कोई राजनैतिक दल उसे अनदेखा करने की स्थिति में नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी भाजपा के सांसदों को यही मंत्र देने की कोशिश करते हैं जब वे कहते हैं कि ‘डिजिटल आज की नई भाषा है और मोबाइल नया संदेशवाहक।’

हालांकि प्रधानमंत्री के बयान को सिर्फ मोबाइल तक सीमित करके देखना अल्पदृष्टि होगा। वे मोबाइल को एक प्रतीक के रूप में भी ले रहे हैं और व्यापक स्तर पर इसका अर्थ सोशल मीडिया और डिजिटल तथा इंटरएक्टिव प्लेटफॉर्मों व माध्यमों से लगाया जाना चाहिए जिनमें मोबाइल के साथ-साथ फेसबुक, व्हाट्सऐप, स्काइप, ट्विटर, ईमेल, मोबाइल एप्स और वेबसाइटें भी शामिल हैं। ये सब उस डिजिटल जीवनशैली की तरफ इशारा करते हैं जो धीरे-धीरे आम हिंदुस्तानी के दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुकी है। शहरी और ग्रामीण इलाकों में डिजिटल माध्यमों की पहुंच और स्वीकार्यता का स्तर अलग-अलग हो सकता है लेकिन उसका दखल है दोनों जगह। एक तरफ डिजिटल इंडिया जैसी सरकारी पहल और दूसरी तरफ रिलायंस जियो जैसी संचार कंपनियों के आक्रामक विस्तार कार्यक्रमों की बदौलत आज गांवों में इंटरनेट कनेक्टिविटी का स्तर काफी बढ़ चुका है। और अभी हम 2017 में हैं। आने वाले दो साल में स्थितियां और बदल चुकी होंगी। जाहिर है, प्रधानमंत्री की नजर आज की स्थितियों के साथ-साथ आने वाले कल पर भी है।

किसी राजनेता का इस तरह की बात करना आश्चर्यजनक तो है ही, वह प्रभावशाली भी है क्योंकि भविष्य की स्थितियों के आधार पर इस तरह की प्लानिंग कुछ साल पहले तक कंपनियों में ही देखी जाती थी। राजनैतिक दल हद से हद अपने समय के साथ तालमेल बिठा लेते थे लेकिन अपने समय से आगे की बात सोचना उन्हें नरेंद्र मोदी ने सिखाया है। अब ऐसा नहीं है कि उनके इस बयान का संकेत सिर्फ भाजपा तक सीमित रहेगा। इसे दूसरे दलों के लिए भी वेक-अप कॉल के रूप में देखा जा सकता है।

और ये सब कोरी हवाई बातें नहीं हैं। मोबाइल आज इंटरनेट पर आधारित कन्टेन्ट की खपत करने वाला सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है। यूं पिछले चार-पांच साल से तकनीकी दुनिया ‘मोबाइल फर्स्ट’ की बात करती रही है, जिसका मतलब यह कि अब अगर हम भविष्य की प्लानिंग करेंगे तो मोबाइल को केंद्र में रखकर चलेंगे। प्रधानमंत्री अब राजनैतिक दलों, विशेषकर भाजपा के लिए भी ‘मोबाइल फर्स्ट’ की रणनीति का सूत्रपात करने जा रहे हैं जो समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली बात है। भाजपा, जो पहले ही आॅनलाइन माध्यमों पर दूसरी पार्टियों से काफी आगे है, का लगातार नए अवसरों के प्रति सजग रहना शायद उसकी सफलताओं के पीछे का एक महत्वपूर्ण कारण है। हालांकि अन्य दलों में भी डिजिटल माध्यमों के प्रति जागरूकता बढ़ी है लेकिन इस तरह की प्रो-एक्टिव दृष्टि उनमें दिखाई नहीं देती। यह अगले चुनाव में भाजपा को डिजिटल माध्यमों पर शुरुआती बढ़त दिलाने में सक्षम हो सकती है।

बात मोबाइल पर कन्टेन्ट की खपत की हो रही थी। ईवाई नामक संस्थान की ओर से पिछले साल डिजिटल कन्टेन्ट की खपत पर जारी रपट कहती है कि जिन स्मार्टफोन उपभोक्ताओं के पास इंटरनेट कनेक्टिविटी मौजूद है, उनमें से 84 फीसदी दिन में तीन घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। आज पैंसठ फीसदी डिजिटल कन्टेन्ट का इस्तेमाल मोबाइल फोन के जरिये हो रहा है और कंप्यूटर समेत बाकी सभी माध्यमों के हिस्से में महज 35 फीसदी हिस्सेदारी रह गई है। यह दृश्य भी तेजी से बदल रहा है। वीडियो देखने के लिए आज मोबाइल फोन सबसे बड़ा माध्यम बन रहा है और टेलीविजन चैनलों के लिए चुनौती बन रहा है। हॉट स्टार का उदाहरण देखिए। स्टार टीवी के इस मोबाइल एप्प के एक करोड़ डाउनलोड इसके लांच के महज 40 दिन में ही हो गए थे। कौन सा टेलीविजन चैनल चालीस दिनों में इतनी बड़ी संख्या में दर्शकों तक पहुंच सका है?
स्टार टीवी को हॉटस्टार एप्प लाना पड़ा क्योंकि एक तरफ उसके सामने टेलीविजन दर्शकों के घटते चले जाने का खतरा था और दूसरी तरफ आॅनलाइन माध्यमों पर उभरते हुए नए अवसर। इस मास्टरस्ट्रोक से उसने अपने विकास का रास्ता खोज निकाला। फेसबुक का उदाहरण भी दिलचस्प है। फेसबुक पहले एक डेस्कटॉप आधारित सोशल नेटवर्किंग सर्विस थी। एक प्लेटफॉर्म के रूप में उसने मोबाइल को कोई तवज्जो नहीं दी थी। बहुत देर से, 2015 में फेसबुक मोबाइल लांच किया गया और वह भी अनमने ढंग से। लेकिन देखते ही देखते वह हिट हो गया। फेसबुक के आंकड़े बताते हैं कि इस साल उसकी 85 फीसदी आय मोबाइल के रास्ते हुई है और डेस्कटॉप की हिस्सेदारी महज 15 फीसदी रह गई है।
सो, मोबाइल की बढ़ती ताकत, पहुंच से शायद ही कोई इनकार कर सके और इस बात से भी कि वह एक माध्यम के रूप में परिपक्व होता चला जा रहा है। यह अवसर राजनैतिक दलों को भी उपलब्ध है।
हो सकता है, आपके मन में यह सवाल हो कि मोबाइल फोन पर कोई क्या राजनैतिक बहस कर लेगा और क्या विमर्श कर लेगा? इतने छोटे से माध्यम, इतनी छोटी सी स्क्रीन पर कोई ढंग की बात कहने की गुंजाइश ही कितनी है? मोबाइल पर होने वाली चर्चा यूं भी बहुत सीमित, बल्कि कुछ पंक्तियों तक सीमित रहती है। व्हाट्सऐप और एसएमएस पर आप कौन से सैद्धांतिक विमर्श को आगे बढ़ा लेंगे? लेकिन ऐसा सोचते समय हम यह भूल जाते हैं कि आम पाठक या दर्शक की अपनी अभिरुचि में भी बदलाव आ रहा है। वह वेबसाइटों पर लंबे लेखों और सैद्धांतिक विमर्श में उतनी दिलचस्पी नहीं लेता। जिस तरह से आॅनलाइन कन्टेन्ट का निरंतर हमला हो रहा है और जिस तरह दिलचस्प सामग्री के अनगिनत स्रोत पैदा हो गए हैं, उसने आम पाठक के धैर्य को घटा दिया है। वह फटाफटी कन्टेन्ट में ज्यादा दिलचस्पी रखता है। यह बदलाव एक हकीकत है। लॉन्ग फॉर्म कन्टेन्ट, यानी लंबे आलेखों का पाठक वर्ग निरंतर सिकुड़ता जा रहा है। तभी तो पचास शब्दों वाली खबर और दो सौ शब्दों वाली फिल्म समीक्षा देने वाले एप्प लगातार लोकप्रिय हो रहे हैं। ईवाई की रिपोर्ट में एक उदाहरण दिया गया है और वह यह कि यू-ट्यूब पर देखा जाने वाला 62 फीसदी कन्टेन्ट शॉर्ट फॉर्म कन्टेन्ट है, यानी कम समय के वीडियो। ऐसा कन्टेन्ट देखने में कम समय लेता है और उपभोक्ता की बदलती पसंद के अनुरूप है। फिर कन्टेन्ट छोटा हो तो उपभोक्ता उसे फॉरवर्ड कर दूसरों तक पहुंचाना भी पसंद करता है। यह चेन-रिएक्शन उसे ऐसे ठिकानों तक भी पहुंचा देता है जहां आम तौर पर उसकी पहुंच नहीं हो सकती थी। राजनैतिक दलों के लिए यह बहुत प्रासंगिक है।
सोशल मैसेजिंग माध्यमों और सोशल नेटवर्किंग साइटों, एप्स आदि पर कन्टेन्ट और विमर्श भले ही छितराया हुआ हो, लेकिन कहीं न कहीं हमारे दिमागों में एक समग्र तसवीर पैदा करने लगा है। शायद हम इस बिखरे हुए कन्टेन्ट को एक साथ जोड़कर देखने और उससे निष्कर्ष निकालने की नई क्षमता हासिल कर चुके हैं। फिर इन माध्यमों की त्वरित, अर्थात रियल टाइम में संदेशों को प्रसारित करने की क्षमता, उनकी पारदर्शिता और इंटरएक्टिविटी कुछ ऐसे पहलू हैं जो हमें इन्हें गंभीरता से लेने के लिए प्रेरित करते हैं। अन्ना हजारे का आंदोलन और अरविंद केजरीवाल की ऐतिहासिक दिल्ली जीत को भूल सकते हैं आप?
सो मोबाइल राजनैतिक मैसेजिंग का अहम जरिया बन रहा है, इसमें संदेह या ताज्जुब नहीं होना चाहिए। अमेरिका के पिछले चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की टीम ने मतदाताओं तक पहुंचने के लिए मोबाइल और सोशल माध्यमों का अच्छा प्रयोग किया। जहां हिलेरी क्लिंटन के इवेन्ट्स में ज्यादा बड़ी संख्या में लोग जुटते दिखाई दिए वहीं ट्रंप की टीम ने अंदर ही अंदर डिजिटल, सोशल और मोबाइल माध्यमों के इस्तेमाल में कौशल दिखाया। उसने जियो टारगेटिंग पर ध्यान केंद्रित किया, यानी जिस स्थान या मतदाता के लिए जो मुद्दा ज्यादा अहम है उसे उसी के लिहाज से विज्ञापन या संदेश दिखाया जाए। मिसाल के तौर पर अश्वेत मतदाताओं को वह वीडियो दिखाया गया जिसमें हिलेरी क्लिंटन ने कभी अश्वेतों की तुलना आदिम इंसान से की थी। तकनीकी क्षमताओं का यह संयोग राजनैतिक दलों को हर व्यक्ति तक व्यक्तिगत रूप से पहुंचने में सक्षम बना सकता है। भारत में भी हम आने वाले चुनाव में शायद ऐसी ही बहुत सी बातों को घटते हुए देखें।
मतदाता को प्रभावित करने के साथ-साथ अब मोबाइल फोन राजनैतिक दलों के प्रबंधन की क्षमता से भी लैस हो रहा है। माइक्रोसॉफ़्ट के काइजाला एप्प को देखिए जिसमें एक ही क्षण में लाखों लोगों तक संदेश भेजने, हजारों-लाखों लोगों के समूह (ग्रुप) और उप-समूह बनाने, किसी भी मुद्दे पर पलक झपकते ही लोगों की राय लेने के लिए सर्वेक्षण या मतदान कराने जैसी सुविधाएं हैं। स्काइप लाइट नामक ऐप्प के जरिए राजनेता बड़ी संख्या में मतदाताओं को वीडियो पर संबोधित कर सकते हैं। ऐसे इलाकों में भी, जहां अच्छी इंटरनेट कनेक्टिविटी मौजूद नहीं है। टू जी का इस्तेमाल करते हुए भी लोग मोदी जी का उद्बोधन लाइव देख सकें, इससे बेहतर सुविधा किसी राजनैतिक दल के लिए क्या हो सकती है।
प्रधानमंत्री के बयान का आशय यह नहीं है कि मोबाइल पर मतदान हो जाएगा (कम से कम हाल फिलहाल ऐसी उम्मीद नहीं) या फिर यह कि नेताओं को जनता से प्रत्यक्ष संपर्क करने की जरूरत ही नहीं है। उनका आशय एक रणनीति के तौर पर मोबाइल को अहमियत दिए जाने और उसकी अद्भुत क्षमताओं का दोहन करने से है। हर नेता को इन माध्यमों से जुड़ने और उनके इस्तेमाल का हुनर सीखने की जरूरत है। प्रधानमंत्री का आशय उस डिजिटल ट्रांसफॉरमैशन (डिजिटल रूपांतरण) से भी है जो आज लगभग हर संस्थान, हर संगठन, हर सरकार और हर व्यक्ति को प्रभावित कर रहा है। हमारे राजनैतिक दल और नेता भी इस प्रक्रिया से अनछुए नहीं रह सकते। बल्कि यहां उन्हें बढ़त लेने की जरूरत है।