BJP

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की जनता ने लोकसभा चुनाव में ८० में से ६२ सीटों पर भाजपा को जीत दिलाकर ऐलानिया साफ किया है कि मौसमी-मौकापरस्त सियासी जोड़-तोड़ के लिए उसके दिल में कोई जगह नहीं है. यानी हर जाति-धर्म के लोगों के लिए राष्ट्रपहले है, बाकी सारे मसले बाद में. देखना यह है कि हमारे सियासत दां इस संदेश से क्या सबक लेते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूबे की अपनी कई रैलियों में दावा किया था कि सपा और बसपा के बीच जो गठबंधन है, उसके खत्म होने की तारीख 23 मई है. उत्तर प्रदेश की 80 में से 62 सीटों पर शानदार जीत दर्ज करने के बाद यह बात न केवल भाजपाई, बल्कि दूसरे खेमे के लोग भी करने लगे हैं. अखिलेश यादव ने जिस दिन मायावती के साथ अपने समझौते का ऐलान किया था, उसी दिन से राजनीतिक पंडितों ने अनुमान लगाना शुरू कर दिया था कि अबकी बार नरेंद्र मोदी के लिए उत्तर प्रदेश की राह आसान नहीं रहने वाली. वे अपनी बात के समर्थन में उपचुनावों में गठबंधन को मिली जीत का उदाहरण देते थे. कहा जा रहा था कि जब बुआ-बबुआ की दोस्ती के कारण योगी आदित्य नाथ अपना घर गोरखपुर नहीं बचा पाए, तो पूरे उत्तर प्रदेश को क्या बचा पाएंगे? अखिलेश यादव बार-बार कहते थे कि जातीय गोलबंदी करके भाजपा ने मुझे कुर्सी से हटाया, अब उसी हथियार से हम नरेंद्र मोदी को दिल्ली की सत्ता से बेदखल कर देंगे. लेकिन जब चुनावी नतीजे आए, तो बड़े से बड़े राजनीतिक पंडित दंग रह गए. सपा-बसपा गठबंधन को सिर्फ 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जिसमें बसपा को १० और सपा को केवल ०५ सीटें मिलीं.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सपा के वोट तो बसपा की तरफ  गए, लेकिन बसपा के सारे वोट सपा को नहीं मिले. इसलिए गठबंधन का फायदा सिर्फ बसपा को मिला और वह शून्य से १० तक पहुंच गई. दरअसल, मुलायम सिंह यादव खुद इस गठबंधन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन अखिलेश यादव की जिद के चलते वह लाचार हो गए. नतीजा यह हुआ कि अखिलेश अपनी पत्नी डिंपल यादव को भी नहीं जिता पाए, उनके परिवार के धर्मेंद्र यादव एवं अक्षय यादव भी चुनाव हार गए. नतीजों की समीक्षा के आधार पर जानकार बताते हैं कि मायावती और अखिलेश यादव ने गठबंधन तो कर लिया, लेकिन दोनों पार्टियों के जमीनी कार्यकर्ताओं ने इसे दिल से स्वीकार नहीं किया. सपा-बसपा के शीर्ष नेताओं को लगा कि समय के साथ तालमेल बन जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और दोनों के वोट एक-दूसरे को नहीं मिल सके. नतीजे आने के बाद दोनों खेमों के लोग समझने लगे हैं कि यह साथ बहुत फायदेमंद साबित नहीं हुआ और न आगे रहेगा. इसलिए शीर्ष नेताओं को इस दोस्ती पर दोबारा विचार करना चाहिए.

जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो उसे साल 1977 के बाद सबसे खराब नतीजों से रूबरू होना पड़ा. सिर्फ सोनिया गांधी अपनी रायबरेली सीट निकाल पाईं, राहुल गांधी तो अमेठी में चित हो गए. अमेठी की हार बताती है कि कांग्रेस और राहुल गांधी नरेंद्र मोदी की चालें समझने में एक बार फिर नाकाम रहे. ‘चौकीदार चोर’ का नारा उल्टे कांग्रेस के गले की फांस बन गया और नरेंद्र मोदी ने उसे पूरे देश में भुना लिया. पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी के तौर पर प्रियंका गांधी इस चुनावी अखाड़े में कूदीं तो जरूर, लेकिन सही मायने में उनका दिल वहां नहीं लगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बजाय उनका ज्यादा वक्त दिल्ली, रायबरेली और अमेठी में गुजरा. नतीजा सबके सामने है. जहां तक भाजपा का सवाल है, तो उसने पूरी संजीदगी के साथ यह चुनाव लड़ा. वह अच्छी तरह जानती थी कि कहीं कुछ भी बेहतर हो जाए, लेकिन दिल्ली के सिंहासन का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाएगा. बिना उत्तर प्रदेश में अच्छा किए सत्ता लौटनी नहीं है. इसलिए 2014 में अमित शाह ने सूबे में जो माइक्रो संगठन बनाया था, उसे इस बार फिर पूरी तरह सक्रिय कर दिया गया. उन सांसदों के टिकट पूरी बेदर्दी के साथ काट दिए गए, जिन्हें जनता पसंद नहीं कर रही थी. अमित शाह ने पूरे उत्तर प्रदेश में छोटी-छोटी जातियों के सम्मेलन शुरू करा दिए. इन जातियों को लगा कि भाजपा उन्हें पूरा सम्मान दे रही है. नरेंद्र मोदी से राज्य में ज्यादा से ज्यादा रैलियां करने का आग्रह किया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.

दरअसल, उपचुनावों की हार ने योगी आदित्य नाथ के कान खड़े कर दिए थे. उसी क्षण से उन्होंने राज्य सरकार की योजनाओं के समुचित क्रियान्वयन पर विशेष जोर देना शुरू कर दिया. केंद्र की सभी लोक कल्याणकारी योजनाएं जमीन पर उतारने का कार्य पहले से तेज हो गया. मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने जनता से सीधा संवाद स्थापित करके यह सुनिश्चित किया कि भाजपा के वोट बैंक में कहीं से भी सेंध न लग सके. उम्मीदवारों के चयन को लेकर भी दोहरी सतर्कता बरती गई. मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने आम चुनाव में भाजपा की जीत को ऐतिहासिक बताते हुए इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को दिया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस, सपा एवं बसपा को नकारात्मक राजनीति का खामियाजा भुगतना पड़ा. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सफल नेतृत्व और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की संगठनात्मक रणनीति के चलते ही भाजपा की बंपर जीत संभव हो सकी. योगी ने कहा कि जनता ने वंशवाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार फैलाने वालों को सिरे से खारिज कर दिया. देश सुशासन, सुरक्षा, विकास और राष्ट्रवाद की सकारात्मक राजनीति चाहता है. हालांकि, योगी आदित्य नाथ यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस जीत के साथ चुनौती खत्म नहीं हुई है. सूबे में भाजपा को मिली कामयाबी टीम वर्क का नतीजा है, जिसे बनाए रखना हर हाल में जरूरी है, तभी पार्टी उत्तर प्रदेश में आगे का सफर आसानी से तय कर पाएगी.