अरविंद मोहन

चौदह दिसंबर को जब सुबह-सुबह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के दफ्तर में सीबीआई के छापे की खबर आई तो केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी की पूरी जमात को समझ नहीं आया कि क्या कहा जाए। आपातकाल लागू होने से लेकर दिल्ली के शकूरपुर बस्ती की घटना से ध्यान भटकाने की कार्रवाई जैसे कम से कम आधा दर्जन कारण दिन भर में गिना दिए गए। संयोग से संसद का सत्र भी चल रहा था। एक मुख्यमंत्री के दफ्तर में उन्हें बताए बगैर छापे का मसला जोर-शोर से उठा तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सफाई दी कि छापा केजरीवाल के खिलाफ नहीं उनके प्रिय अधिकारी राजेंद्र कुमार के खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के मामले में पड़ा है। उनके बोलते ही केजरीवाल ने छापे को दिल्ली क्रिकेट संघ (डीडीसीए) के घपलों की संभावित जांच से जोड़ दिया। उन्होंने दावा कि सीबीआई अरुण जेटली को बचाने और आगे किस तरह की जांच होगी इसके बारे में कागजात देखने आई थी।

जनलोकपाल आंदोलन के दौरान समाजसेवी अन्ना हजारे के साथ अरविंद केजरीवाल
जनलोकपाल आंदोलन के दौरान समाजसेवी अन्ना हजारे के साथ अरविंद केजरीवाल

केजरीवाल की राजनीति को जानने समझने के लिए 14 दिसंबर का दिन बहुत अच्छा है। अब उन्हें आपातकाल याद नहीं आता। अब उन्हें शकूरपुर में झुग्गियां गिराने और एक बच्ची की मौत का मामला याद नहीं आता। अब उन्हें अपने खराब जनलोकपाल बिल और विधायकों की तनख्वाह पांच गुना करने का फैसला छुपाने की जरूरत नहीं लगती। अब जो हैं सो जेटली हैं। सब पाप उनका किया हुआ है और उनको घेरना सबसे बड़ी राजनीति है। बाकी सारे मसले, सारे भ्रष्टाचार गायब हो गए हैं। केजरीवाल के सौभाग्य और संयोग से जेटली के दुश्मन भी कम नहीं हैं। डीडीसीए समेत बीसीसीआई और हॉकी वगैरह के जो मामले सामने आते जा रहे हैं उसमें सर्वेसर्वा की भूमिका वाले जेटली सीधे न फंसकर भी बचते नजर नहीं आ रहे हैं।

केजरीवाल को विषयों का चुनाव करना और सीधे जनता के बीच जाना अच्छी तरह आता है। उनसे लड़ने से पहले अरुण जेटली जैसे राजनेता को ज्यादा सावधान रहना चाहिए। उनकी जाल में तो एक बार नरेंद्र मोदी भी उलझ चुके हैं

कीर्ति आजाद ने केजरीवाल का काम आसान किया तो उनके निष्कासन से और राजनीतिक लडाई को अदालत ले जाकर जेटली ने मामले को ज्यादा उलझा दिया है। हाल में केंद्र ने उपराज्यपाल के माध्यम से केजरीवाल पर अंकुश रखने और अपनी राजनीति चलवाने का जो प्रयास किया है उसने भी उन्हें जीवनदान दिया है और अपनी गलतियां-असफलताएं छुपाने का बहाना भी।

इस बार जब जेटली ही फंसे हैं तो केजरीवाल एंड कंपनी के लिए अपनी राजनीति चमकाने और अपनी कमियां छुपाने का काफी अवसर होता। पर मुश्किल यह है कि जन लोकपाल बिल का नाश करने और विधायकों पर लाभ की बरसात करने से मिल रही आलोचना से बचने के लिए उन्होंने दिल्ली में प्रदूषण कम करने के जिस बडेÞ नाटक की घोषणा कर दी थी, उसे लागू करने की तारीख भी पास आ गई। उनको दिल्ली की हवा में जहर घुलने और वाहनों से होने वाले प्रदूषण की कितनी चिंता थी यह इस घोषणा से भी जाहिर हो गया क्योंकि किसी भी क्षेत्र में पहले से कोई तैयारी नहीं की गई थी। इसके लिए कानून बदलने, सार्वजनिक परिवहन को दुरुस्त करने, प्रदूषण के अन्य स्रोतों पर सख्ती  से लेकर सैकड़ों छोटे-बडेÞ कदम उठने चाहिए थे। अब 15 दिन के प्रयोग और तरह-तरह की छूट के साथ स्कूल बंद करके स्कूल बसों के सहारे काम चलाने की तैयारी है। जो लक्षण दिख रहे हैं, उनसे यही लगता है कि शुक्रवार पहली जनवरी और शनिवार, रविवार के आगे यह प्रयोग बढ़ेगा नहीं। केजरीवाल जनता की तकलीफ के नाम पर इसे रोक देंगे क्योंकि उनका सारा काम जनता के नाम पर होता है। फैसले मर्जी से और न करना हो तो जनता के नाम पर।

दिल्ली सचिवालय ही नहीं सारे मंत्रियों-विधायकों को जिस तरह आम लोगों से दूर किया गया और जिस अंदाज में विधानसभा की कार्रवाई चलाई जा रही है वह उनके मन में लोकतंत्र के प्रति आदर को दर्शाता है

आम तौर पर एक बड़ी योजना को शुरू करने सेपहले ऐसी भविष्यवाणी नहीं करनी चाहिए। वह भी दिल्ली के जानलेवा प्रदूषण को रोकने के नाम पर शुरू हो रही योजना के बारे में। पर आम आदमी पार्टी  और केजरीवाल की राजनीति का अब तक का छोटा ही रिकॉर्ड इस नाउम्मीदी का आधार है। नाउम्मीदी भी ज्यादा है क्योंकि इस मंडली ने चुन-चुन कर सबसे बड़े और भारी मसले उठाए हैं और अपनी राजनीति चमकाने व सत्ता हथियाने के अलावा कुछ नहीं किया है। भ्रष्टाचार और जन लोकपाल के मुद्दे पर कभी केजरीवाल और उनकी असली टोली अपनी जान दांव पर लगाए हुई थी और बेचारे अन्ना को भी दांव पर चढ़ा दिया था। पर इन दोनों सवालों पर उनका और उनकी पार्टी का रिकॉर्ड साफ बताता है कि सिर्फ और सिर्फ झांसा दिया गया। भ्रष्टाचार दूर करने की बड़ी-बड़ी बातें जाने कहां हवा हो गई। आप लालू की पार्टी को जिताने का ही खेल नहीं कर रहे हैं, उनसे गले मिलने के बाद भी झूठ और बहाने का सहारा ले रहे हैं। जो आदमी बिना किसी वैचारिक निष्ठा और नैतिकता के सिर्फ सत्ता पाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दे वह दूसरों की जान की क्या परवाह करेगा। सीना चौड़ा करना या उपवास करना बुरा नहीं है। पर जैसे ही आप सार्वजनिक जीवन में आते हैं आपकी सोच में बदलाव न हो, अपने समाज के नैतिक आग्रह आप पर लागू न हों तब आप कहीं नहीं जा सकते हैं। और इन सबमें विचारधारा ही आपकी मददगार होती है। यह काम विचारों के सहारे ही किया गया। गांधीजी ने बड़े मजे से इतिहास की गति को पीछे भी मोड़ा और चरखे से मैनचेस्टर की मिलों को चुनौती भी दी। पर उन्होंने कभी स्वच्छंद आचरण नहीं किया। विचारधारा का विकास भी उसके दायरे में रहकर ही किया जा सकता है। वह कभी बंधनकारी नहीं होती। बिना विचारों के आदमी या तो पशु होता है या शैतान।

प्रदूषण दूर करने का सवाल भी भ्रष्टाचार दूर करने की तरह मात्र नाटक का विषय बनकर किनारे लग जाए, इससे पहले सचेत करने में कोई गलती नहीं है। केजरीवाल को विषयों का चुनाव करना और सीधे जनता के बीच जाना बहुत अच्छी तरह आता है। सो उनसे लड़ने से पहले अरुण जेटली जैसे शीर्ष राजनेता को ज्यादा सावधान रहना चाहिए। उनकी जाल में तो एक बार नरेंद्र मोदी जैसे नेता भी उलझ चुके हैं। लोकसभा चुनाव के समय केजरीवाल की बिना परीक्षा वाली राजनीति का उन्होंने लगभग अंत कर दिया था। बनारस के मुकाबले में भी और दिल्ली के संसदीय मुकाबले में भी। पर भाजपा और मोदी ने ही छोटी गलती करके उन्हें जीवनदान दे दिया। उसके बाद उन्होंने पार्टी के अपने वरिष्ठ साथियों प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, अजीत झा समेत पार्टी के आंतरिक लोकपाल, पंजाब से चुनकर आए अधिकांश सांसदों, शाजिया इल्मी, अश्विनी उपाध्याय, मधु भादुड़ी जैसे तपे-तपाए साथियों का क्या हाल किया सबके सामने है।

दिल्ली सचिवालय ही नहीं सारे मंत्रियों-विधायकों को जिस तरह आम लोगों से दूर किया गया और जिस अंदाज में विधानसभा की कार्रवाई चलाई जा रही है वह उनके मन में लोकतंत्र के प्रति आदर को दर्शाता है। एक साल से कम समय में ही आप के जितने मंत्री और विधायक सीधे-सीधे आपराधिक और भ्रष्ट कामों में पकड़े गए हैं वह नेतृत्व की लोगों को पहचानने की क्षमता को भी बताता है। यह अच्छी बात मानी जा सकती है कि अब भी कई लोगों को दिल्ली की आप सरकार और इसके नेता अरविंद केजरीवाल से उम्मीदें हैं। वे मानते हैं कि पार्टी में टूट-फूट और कई सारे और भी हंगामों के बाद भी प्रचंड बहुमत की इस सरकार को पांच साल चलना है। इस बीच अगर उसने भ्रष्टाचार कम किया और अच्छा शासन दिया तो भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों की राजनीति और कुशासन से ऊबे हुए लोग आप को आगे बढाएंगे। आप ने एकदम नई पार्टी होकर भी स्थापित दलों को जबर्दस्त तरीके से धूल चटा दी तो उसके पीछे यही उम्मीदें थीं। बल्कि इससे कई गुना ज्यादा उम्मीदों के बल ने ही उसे इस स्थान तक पहुंचाया।

बहुत महत्वाकांक्षी और चालाक अरविंद ने जिस तरह से केंद्र की भाजपा सरकार की गलतियों से अपनी प्रशासनिक और राजनीतिक गलतियों को छुपाया है और भाजपा को भ्रष्टाचार की पोषक व तानाशाह बताकर गैर-भाजपा शासित प्रदेशों के नेताओं को अपने पीछे गोलबंद करने का दांव चला है वह भी इसी ओर इशारा करता है। यह दलील भी दी जा रही है कि दिल्ली के पहले जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें से कुछ में आप का प्रदर्शन ठीक रहेगा। वह आगे की राजनीति में एक विकल्प की तरह उभर सकती है। पर यह उम्मीद बंदरिया माँ द्वारा अपने मृत बच्चे को सीने से लगाए रखने और चूमते-चाटते रहने की तरह ही है। इतने कम समय में आप और अरविंद केजरीवाल ने निराशा पैदा करने और उम्मीद तोड़ने वाले इतने काम किए हैं कि अब उनसे ज्यादा उम्मीद तो किसी भी नई पहल से की जा सकती है।

कई ज्यादा समझदार लोग अन्ना हजारे द्वारा आप के गठन के समय ही नए दल से नाता तोड़ने और राजनीति से दूर रहने के फैसले को उस भारी लोकतांत्रिक लड़ाई का अधोपतन मानते हैं। अन्ना आंदोलन ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पूरे देश को झकझोरा था। काफी लोगों को लग रहा था कि उसमें नई राजनीति की संभावना है। अब एक मुद्दे के जनांदोलन और वैकल्पिक राजनीति करने वाले दल के बीच काफी फासला होता है। अगर आंदोलन का नेता ही इतना अनमना हो या तैयार न हो तब यह काम मुश्किल होता है। लोकपाल आंदोलन को काफी सोच-समझकर खड़ा करने वाले अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी को दल बनाने और सत्ता पाने की इच्छा थी। आंदोलन के समय जुटे योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार जैसे हजारों लोग जिनमें ऊंची-ऊंची तनख्वाह वाली नौकरियां और पढ़ाई छोड़कर आए लड़के-लड़कियां  शामिल थे। नक्सली रुझान वाले शहराती समर्थक और बड़ी संख्या में एनजीओ वाले लोगों ने भी उनके इस सपने को अपना सपना बनाया। तभी जाकर आंदोलन के बाद और अन्ना के मुंह फेर लेने और कई बार विरोध करने के बावजूद न सिर्फ आप बनी बल्कि उसने बहुत कम समय में तीन में से दो चुनावों में शानदार जीत हासिल की। सारे बिखराव के बावजूद लोकसभा चुनाव में भी संसद से लेकर सड़क तक अपनी ठीक-ठाक उपस्थिति दर्ज कराई।

नरेंद्र मोदी की ठीक नाक के नीचे दिल्ली का चुनाव जीतना और सरकार बनाना भी कम बड़ी बात नही थी। आज दिल्ली सरकार को जो परेशानियां हैं निश्चित रूप से भाजपा और नरेंद्र मोदी की तरफ से उस पराजय का बदला लेने की बेचैनी भी एक कारण है। पर साल भर से कम समय में ही पार्टी के बिखर जाने, अरविंद केजरीवाल के श्रीहीन हो जाने और कार्यकर्ताओं समेत ज्यादातर समर्थकों का मन टूट जाने के कारण ज्यादा गहरे हैं। वह सिर्फ अरविंद द्वारा आनंद कुमार और अजीत झा को गाली देने, उसका रिकॉर्ड सामने आने, चार नेताओं के निष्कासन, कुछ दागियों को टिकट देने, चंदे के धंधे, कुछ विधायकों के घटिया आचरण और कारनामों, अरविंद द्वारा अपनी अधिकार सीमा से आगे जाकर सत्ता पाने का प्रयास करने, मीडिया पर अंकुश लगाने, उनके दुलारे मंत्री जीतेंद्र सिंह तोमर के फर्जी डिग्री घोटाले में पकड़े जाने और दूसरे मंत्री वसीम के लेन-देन की बातचीत सामने आने जैसे कारणों से नहीं है। ये सब अपनी जगह हैं और इतने कम समय में बड़ी-बड़ी बातें करने वालों का ऐसा आचरण भी आपकी हवा बिगाड़ेगा। पर ज्यादा बड़ी बात यह है कि जब आपके पास साफ विचारधारा नहीं होगी, उसके अनुरूप आपका प्रशिक्षण और आचरण नहीं होगा, आपमें नई स्थितियों के अनुरूप परिवर्तन करने, नए फैसले करने की समझ न हो,अनुभवी और अच्छे लोगों से कुछ सीखने-लेने की तमीज न हो और दुनिया भर के बदलावों की समझ न हो तो आप नई राजनीति नहीं कर सकते।

बिना विचार और समझ के तो वह व्यापार भी नहीं होता जो शुद्ध रूप से अपने भौतिक लाभ के लिए किया जाता है। दूसरों और समाज के लिए किए जाने वाले राजनीतिक कर्म तो इसके बगैर हो ही नहीं सकते। अरविंद केजरीवाल और उनके परम भक्तों के लिए गीता-बाईबल-कुरान मानी जाने वाली स्वराज्य नामक किताब, जिससे योगेंद्र एंड कंपनी ने भी जाने क्यों स्वराज संवाद पद लिया है, निहायत औसत स्तर की किताब है। इससे कोई स्वराज या राजनीति या सामाजिक काम का रास्ता देखने-दिखाने जाएगा तो वह ठीक वही करेगा जो आज केजरीवाल कर रहे हैं। यहां मुख्य दर्शन यह है कि ऊपर से अर्थात केंद्र से जो साधन या धन आएगा उसका बंटवारा कैसे होगा। इसके लिए कैसे मोहल्ला कमेटी और ग्राम सभा बनेगी। किसी चीज का उत्पादन कैसे होगा, शासन का स्वरूप और उत्पादन और सेवाओं में उसकी भागीदारी क्या और कैसी होगी। इन सबमें श्रमिकों और सेवा प्रदाताओं की भूमिका क्या और कैसी होगी इन सबकी चर्चा न तो उस किताब में है न आप के चिंतन के दायरे में। पर विडंबना यह है कि बहुत पढ़ाई और चिंतन करने वाले, अनुभव रखने वाले और मुख्यत: अपने विचारों और आचरण से लोगों को पसंद आने वाले योगेंद्र यादव, आनंद कुमार और मेधा पाटकर जैसे लोग भी जब अरविंद के साथ गए तो बाजाप्ता उनके दर्शन और तर्क को मानकर और वकालत करके।

आज योगेंद्र को सजप के स्व. सुनील को दिए जवाब पर फिर कुछ बोलने में दिक्कत होती होगी कि नई शताब्दी की राजनीति नई होगी। पहले की तरह सारी वैचारिक सफाई हो जाने के बाद ही राजनीति में उतरने का तर्क अब पुराना हो गया है। अब तो पार्टी पहले बनेगी फिर विचारधारा का विकास होने का दौर है। संभव है कि योगेंद्र के इस तर्क में कुछ दम हो पर इस आधार पर आप और मेधा जैसे लोग भी पार्टी ज्वाइन करते हुए और अपना सब कुछ दांव पर लगाने के पहले भी अरविंद से दो चार बातों पर सफाई नहीं पूछ सकते थे। और सच कहें तो यही दो-चार बातें विचारधारा की बुनियाद तय करती हैं।आगे आने वाली चीजों और घटनाओं पर पार्टी या नेता द्वारा लिए जाने वाले रास्ते का संकेत करती हैं।

भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीतियों पर केजरीवाल एंड कंपनी की क्या राय है किसी को मालूम हो तो बताए। गरीब और कमजोरों की पक्षधरता, जल-जंगल-जमीन की मिल्कियत के सवाल, विशेष अवसर के सिद्धांत (जो जाति, लिंग, चमड़ी के रंग, आर्थिक हैसियत समेत भोदभाव के हर प्रकार को कम करने का आज की दुनिया का एक प्रभावी तरीका है), विकेंद्रीकरण और लोकतंत्र के बारे में भी घालमेल है। और सब कुछ इस नाम पर चल रहा है कि हम किसी तरह का अंतर नहीं करते। केजरीवाल ने सरकार में एक भी महिला, एक भी अल्पसंख्यक, एक भी दलित को नहीं रखा। पार्टी में लोकतंत्र का हाल तो सब देख रहे हैं। जब तक इस किस्म की सफाई नहीं आएगी केजरीवाल हों या कोई और किसी पर भरोसा करना मुश्किल है और किसी की राजनीति को नया विकल्प मानना उससे भी ज्यादा मुश्किल।  अगर राजनीति नहीं बदलेगी तो अर्थव्यवस्था कौन बदलेगा। वैसे भी बाबा मार्क्स कह गए हैं कि अगर राजनीति अर्थव्यवस्था को नहीं बदलती तो अर्थव्यवस्था राजनीति समेत सभी चीजों को बदल देती है। आज सरकार का काम बाजार के लिए पहरेदारी भर का नहीं है।  बाजार में कितनी ताकत है यह अमेरिकी सब प्राइम संकट और अभी हाल के अपने मैगी बवाल समेत जाने कितने अवसर पर दिख गया। पर केजरीवाल की प्रयोगशाला की चिंताएं बहुत सीमित हैं और चालाकियां बहुत अधिक। उनकी खुशकिस्मती यह है कि उनके मुकाबले के लोग उनसे कम चालाक हैं।