आज पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस उसी मुकाम पर पहुंच गई है जहां आज से एक दशक पहले वाम मोर्चा था. इस चुनाव में भाजपा उसके लिए एक बड़ी चुनौती बन कर उभरी है. 2014 में दो सीट जीतने वाली पार्टी ने इस बार 18 सीटें पर कब्जा जमा कर राज्य के नक्शे को भगवामय कर दिया. भाजपा की इस कामयाबी में कभी ममता के करीबी सिपहसालार रहे भाजपा नेता अर्जुन सिंह की बड़ी भूमिका रही. अब देखना यह है कि ममता अपनी कुर्सी बचा पाती हैं या अर्जुन के तीर से घायल हो जातीं हैं…
लोकसभा चुनाव से पहले ही यह लग रह था कि पश्चिम बंगाल में भाजपा अपने 2014 के आंकड़ों में सुधार करेगी, लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि ममता बनर्जी के मजबूत किले में इतना बड़ा सुराख हो जाएगा और भाजपा का आंकाड़ा दो से 18 तक पहुंच जाएगा. यदि भाजपा की इस कामयाबी के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के बाद किसी तीसरे व्यक्ति को श्रेय जाता है तो वो निश्चित रूप से भाटपाड़ा के पूर्व टीएमसी विधायक और बैरकपुर से भाजपा के वर्तमान सांसद अर्जुन सिंह हैं. चुनाव से ठीक पहले अर्जुन ने जब भाजपा का दामन थामा था तो उसी समय यह लगने लगा था कि अब ममता बनर्जी की मुशिकलें बढऩे वाली हैं. ममता बनर्जी के करीबी रहे अर्जुन सिंह गैर-बांग्लाभाषी लोगों के एकछत्र नेता हैं. उनके भाजपा में शामिल होने से कोलकाता और उसके आसपास के इलाकों साथ राज्य के अन्य इलाकों के हिंदी भाषी मतदाता भी टीएमसी से छिटक कर भाजपा की ओर चले गए, जिसकी वजह से भाजपा को इतनी बड़ी सफलता मिली.
अर्जुन सिंह के कद का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब वो टीएमसी से अलग हो रहे थे, तो उस समय कई टीएमसी नेताओं ने भाजपा का दामन थामा था, लेकिन अर्जुन सिंह को छोड़ कर ममता ने किसी को मनाने की कोशिश नहीं की थी. अर्जुन सिंह बैरकपुर लोकसभा सीट से टीएमसी का टिकट चाहते थे. टीएमसी के इंकार के बाद उन्होंने भाजपा के टिकट पर यहां से चुनाव लड़ा. उन्होंने खुद की सीट पर जीत हासिल करने के साथ-साथ कोलकता के आसपास के चार और सीटों रानाघाट, बनगांव, हुगली और वर्धमान-दुर्गापुर पर भी भाजपा को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई. अर्जुन सिंह का असर सिर्फ कोलकाता के आसपास ही नहीं बल्कि झारखंंड से लगे राज्य के दक्षिण पश्चिमी भाग और उत्तरी हिस्सों पर भी देखने को मिला जहां भाजपा ने तृणामूल का सफाया कर दिया है.
वर्चस्व की लड़ाई
जिस तरह 2009 के आम चुनावों तृणमूल कांग्रेस की आंधी ने 1977 से राज्य की सत्ता पर विराजमान वाम मोर्चे को उखाड़ फेंकने की चेतावनी दी थी और 2011 में हुए विधान सभा चुनावों में उसे सत्ता से बेदखल कर दिया था, आज लगता है वो चक्र पूरा हो गया है. अब तृणमूल कांग्रेस उसी मुकाम पर पहुंच गई है जहां आज से 8-10 साल पहले वाम मोर्चा खड़ा था. आज तृणमूल को सबसे बड़ी चुनौती भाजपा की ओर से मिल रही है. हालांकि, मौजूदा लोक सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस अब भी पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, लेकिन भाजपा ने जिस तरह से राज्य की सियासत में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है, उसे देखतेे हुए यह कहा जा सकता है कि ममता को अपनी साख बचाए रखने के लिए कुछ बहुत अलग करना होगा. हालांकि कांग्रेस यहां एक सीट जीतने में कामयाब रही है लेकिन उसकी जमीन भी बड़ी तेजी से खिसक रही है.
पिछले चुनाव में ही भाजपा को एहसास हो गया था कि वो पश्चिम बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत कर सकती है. इसलिए उसने सबसे पहले टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा प्रताडि़़त वामपंथ के काडरों पर डोरे डलाना शुरू किया, जिसमें उसे कामयाबी भी मिली. सीपीएम काडरों का भाजपा प्रेम मौजूदा चुनाव के दौरान देखने को मिला. सीपीएम के जिला स्तरीय नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि वे टीएमसी के वर्चस्व के खत्म करने के लिये भाजपा को वोट देंगे. जब तक सीपीएम के बड़े नेताओं की ओर से इस च्गलतीज् को सुधारने की कोशिश की जाती तब तक बहुत देर हो चुकी थी. ममता बनर्जी भी इस रणनीति पर काम कर रहीं थीं कि लेफ्ट और कांग्रेस के मुकाबले भाजपा से निपटना उनके लिए आसान होगा, क्योंकि भाजपा पर हमले और भाजपा का उनके ऊपर किए जाने वाले हमले से राज्य के 27 प्रतिशत मुस्लिम उनका साथ नहीं छोड़ेंंगे और 2019 में उनकी राह आसान हो जाएगी. लेकिन, भाजपा पर हमला उनके लिए महंगा पड़ा.
चुनाव से पहले ममता बनर्जी ने अमित शाह के रोड शो पर रोक कर, चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी पर तीखेे हमले कर और विपक्षी नेताओं की कोलकाता की रैली में बुला कर अपनी महत्वकांक्षाएं जाहिर कर दिया था. जवाब में भाजपा ने भी हिंदुत्व के मुद्दे को राज्य में खूब भुनाया. चाहे मालदा में उर्दू टीचर की बहाली से उठा विवाद हो या रामनवमी में हाथियार युक्त जुलूस, उसने हर उस मुद्दे में अपने लिए मौके देखेे. साथ ही उसने यह भी दिखाने की कोशिश की भले ही राज्य में उसका संगठन बहुत मजबूत नहीं है लेकिन वो टीएमसी के बाहुबल का जवाब बाहुबल से देने की स्थिति में है. चुनाव के पहले चरण से लेकर अंतिम चरण तक हिंसा जारी रही. हर जगह भाजपा ने टीएमसी की हिंसा का जवाब देने की कोशिश की, जिसका फायदा उससे सीटों की शक्ल में तो मिला ही साथ में भाजपा राज्य की सबसे बडी विपक्षी पार्टी भी बन गई.
नतीजों के निहितार्थ
जहां तक वाम मोर्चा का सवाल है तो 2011 में सत्ता से बेदखल होने के बाद, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा दिन प्रति दिन अपना आधार खोता जा रहा है. यदि पिछले तीन आम चुनावों के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो यह स्थिति और स्पष्ट हो जाती है. साल 2009 के आम चुनावों में वाम दलों को राज्य की 42 सीटों में से 15, टीएमसी को 19, भाजपा को एक और कांग्रेस को छह सीटें मिली थीं. 2014 में यह आंकड़ा एक दम से बदल गया था. टीएमसी को 34, भाजपा को 2, वाम मोर्चे को 2 और कांग्रेस को 4 सीटें मिली थीं. यानी वाम मोर्चा अपना आधार लगातार खोता रहा और उसके खिसकते आधार पर भाजपा अपनी इमारत खड़ी करती रही. अब 2019 में नौबत यहां तक पहुंच गई है कि वाम दलों का खाता खुलना तो दूर जादोपूर सीट छोडक़र बाकी सभी सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. वाम दलों को मात्र 7 प्रतिशत वोट मिले हैं.
टीएमसी के लिए परेशानी की बात यह है कि जिस स्थिति में उसने वाम मोर्चा के मजबूत किले को फतह किया था लगभग वही स्थिति आज पैदा हो रही है. हालांकि, टीएमसी का वोट शेयर थोड़ा बढ़ा है लेकिन भाजपा का वोट प्रतिशत 2014 की तुलना में दो गुना बढ़ा गया और वाम मोर्चा अपने स्थापना के बाद से सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है. इसलिए ऐसा दिखाई पड़ रहा है कि राज्य की सियासत में वामपंथ अपनी आखिरी सांसे ले रहा है. दूसरी तरफ भाजपा में अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेता के शामिल होने पार्टी की ताकत कई गुणा बढ़ गई है. ऐसा लग रहा है कि तृणमूल के कई नेताओं का पलायन का सिलसिला शुरू हो जाएगा. बंगाल की राजनीति जिस तरह से बदल रही है उससे ऐसा लगने लगा है कि 2021 के विधान सभा चुनाव में भाजपा के सामने तृणामूल का भी वही हालत होगी, जो 2011 में वाम मोर्चा की हुई थी.
पिछले लोकसभा चुनावों में वोट शेयर (प्रतिशत में)
पार्टी 2009 2014 2019
टीएमसी 31 40 43
भाजपा ०6 17 40
वाम मोर्चा 42 23 ०7
कांग्रेस 13 10 ०5
पिछले लोकसभा चुनावों में मिली सीटें
पार्टी 2009 2014 2019
टीएमसी 19 34 22
भाजपा ०1 ०2 18
वाम मोर्चा 15 ०2 00
कांग्रेस ०6 ०4 ०2
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