तुम्हीं बताओ मुन्ना, देश की दौलत से ऐश करने, महल-कोठियां बनवाने, जनता को धोखा देने, भाई के हाथों भाई का खून बहाने, कमीशन-रिश्वत खाने और दफ्तरों में सिर्फ गप्पें हांकने वाले लोग जब इस व्यवस्था के खंभे हो सकते हैं तो हमारी बिरादरी पांचवें खंभे का दर्जा क्यों नहीं पा सकती?
बसे स्कूल में नागरिक-शास्त्र पढऩा शुरू किया, मैंने यही जाना कि लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ तीन हैं, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका. समय बीता तो ज्ञानवद्र्धन हुआ कि एक चौथा स्तंभ भी है, जिसे मीडिया कहते हैं. समझ कुछ और मजबूत हुई तो जाना कि यह चौथा वाला स्तंभ लोकतंत्र में उसी भूमिका में है, जैसे पाठा के जंगलों में कभी ददुआ जी महाराज और तेंदू के पत्ते के कारोबार में उनकी पत्ती हुआ करती थी. इतना तो ठीक था कि लोकतंत्र के सारे स्तंभों और उनकी स्थिति के बारे में जानकारी हो जाए, लेकिन बीते दिनों एक ऐसी घटना घटी कि बंदे के ज्ञानचक्षु बहुत भीतर तक खुल गए और इतने खुले कि बिखरते-बिखरते बचे. हुआ यह कि मेरी कॉलोनी में 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस के मौके पर झंडारोहण का कार्यक्रम चल रहा था. दसवीं कक्षा में तीन बार फेल होने के कारण विद्यालय बदर हुए नेता जी अपने श्रीमुख से लोकतंत्र का माहात्म्य उगल रहे थे. उनका भाषण सुन-सुनकर वहां मौजूद कुछ लोग हंस रहे थे तो कुछ अनमने से अपने मुंह में पान मसाले की कुटाई-पिसाई कर रहे थे.
मेरे बगल में अपने जमाने में इलाके के दादा रहे जगदीश उर्फ जग्गे भइया खड़े थे. झंडारोहण संपन्न हुआ, जलेबियां बंटने लगीं. अचानक जग्गे भइया ने इस बंदे नाचीज से पूछा, लोकतंत्र में कुल खंभे (स्तंभ) कितने हैं? मैंने जवाब दिया, दद्दा, लिखत-पढ़त में तो तीन हैं, लेकिन टोटल खंभेगीरी में मीडिया की भी पत्ती है, इसलिए वह चौथे स्तंभ के रूप में जाना और पहचाना जाता है. मेरा जवाब सुनकर नवीं कक्षा पास जग्गे भइया कुछ देर तक तो चुप रहे, फिर मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, बेटा, अपनी दादागीरी की बदौलत वह मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा खंभा बन बैठा, जो जोर-जुल्म के विरुद्ध हर लड़ाई का ठेकेदार बना फिरता है, लेकिन हमारी बिरादरी (अपराध जगत) के साथ न्याय कब और कौन करेगा, जिसकी वजह से लोकतंत्र के खंभा नंबर एक का वजूद बरकरार है, जिसकी वजह से खंभा नंबर दो के 99 फीसद चेहरे दो नंबरी होने के बावजूद पूरी तरह से सुरक्षित हैं. खंभा नंबर तीन के लोग तो तीन-तीन हाथों से रोजी-रोटी जुटा रहे हैं. और तो और, खंभा नंबर चार का भी 50 फीसद धंधा हमारी बिरादरी पर ही टिका है. तो ऐसे में क्या उसे लोकतंत्र का खंभा नंबर पांच कहलाने का हक नहीं है?
जग्गे भइया जारी थे, अंग्रेजों से मिली आजादी न जाने कब की साठा हो चुकी है. रिटायरमेंट की उम्र आते-आते तो औड़म-बौड़म आदमी तक समझदारी छौंकने-बघारने लगता है, लेकिन हमारे देश के नेता हैं कि उस 69 साल प्रौढ़ लोकतंत्र के गुणगान करते नहीं थकते, जिसकी पोथी एक सैकड़ा से भी ज्यादा पैबंद खाकर गुलाबो-सिताबो की ओढऩी बन चुकी है. अब तुम्हीं बताओ मुन्ना, देश की दौलत से ऐश करने, महल-कोठियां बनवाने, जनता को धोखा देने, भाई के हाथों भाई का खून बहाने, कमीशन-रिश्वत खाने और दफ्तरों में सिर्फ गप्पें हांकने वाले लोग जब इस व्यवस्था के खंभे हो सकते हैं तो हमारी बिरादरी पांचवें खंभे का दर्जा क्यों नहीं पा सकती? जग्गे भइया ने इस बार कुछ ज्यादा ही जोर दिया. इतना कहकर वह मुड़े और फिर दूसरी ओर चले गए, लेकिन उनके दर्द के पीछे छिपा सच मुझे काफी देर तक झकझोरता रहा कि वास्तव में जब चोरों, लुटेरों, गद्दारों, कमीशनखोरों और कामचोरों के हाथों में ही व्यवस्था की बागडोर है तो असल अपराध-तंत्र को लोकतंत्र का एक और स्तंभ मान लेने में हर्ज क्या है? आप क्या कहते हैं!