प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक हजार व पांच सौ के नोट बंद करने के फैसले ने आम लोगों के मन में भरोसा पैदा किया है तो कुछ लोगों के मन में आंशका भी है। भरोसा यह कि देश में कालेधन के विरुद्ध प्रधानमंत्री की यह मुहिम सफल हुई तो समाज में ‘ग्रेट इक्वलाइजर’ की भूमिका अदा करेगी। आशंका यह कि सरकार के इस एक कदम से ‘कालेधन’ पर क्या वास्तव में पाबंदी लग जाएगी?

पेशे से वकील, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता अजय पांडे बताते हैं, ‘आम लोग मोदी के इस अभियान का सर्मथन कर रहे हैं। पर देश में ‘कालाधन’ पैदा न हो, इस दिशा में यह एकमात्र कदम पर्याप्त नहीं है। आम लोगों की तकलीफ बयां कर मोदी सरकार से असहमत लोग जरूर कह रहे हैं कि देश बड़ा है। आमतौर पर इतना बड़ा फैसला एक झटके में बिना तैयारी के नहीं लिया जाता है।’ रही बात आम आदमी को होने वाली तकलीफ की तो लंका और बीएचयू के आसपास के क्षेत्र में ट्राली चलाकर जीवन गुजार रहे सत्तर साल के रामा का यह बयान भी गौरतलब है-‘मैंने नेहरू और इंदिरा गांधी का शासन भी देखा है। लेकिन ‘बाहर’ के आदमी ने आकर इतना बड़ा फैसला कर दिया।’
रामा की नजर में मोदी ‘बाहर’ के आदमी हैं। हालांकि मोदी बनारस के सांसद भी हैं। यह जानकारी भी रामा को है। बैंकों में ‘करेंसी’ की कमी की वजह से शुरुआती हफ्ते तक अफरा-तफरी जरूर मची थी। पर अब एटीएम पर लाइन लगाने वाली भीड़ काफी हद तक कम हुई है। पर यह भीड़ जब बैंक से पैसे के बिना खाली हाथ लौट रही है तो उसका गुस्सा सातवें आसामन पर होता है। वे कहते हैं-‘पैसा हमारा, यह मोदी तय करेंगे कि हम कब, कितना और कैसे अपना पैसा निकालेंगे।’

दरअसल ये वो पढेÞ-लिखे लोग हैं जो असली परेशानी क्या होती है, नहीं समझते। पिछले बीस साल से उन्होंने परेशानी देखी ही नहीं है। ऐसे लोग इतिहास से भी सबक लेने का तैयार नहीं हैं। नोट की पाबंदी को देश में ‘आर्थिक आपातकाल’ लागू होंने की संज्ञा दी जा रही है और मोदी को ‘तानाशाह’ बताया जा रहा है। संत रविदास नगर, भदोही के आध्यात्मिक गुरु कृपेश महाराज बताते हैं-‘मोदी ने सबको औकात बता दी। यह कि चार हजार से ज्यादा औकात किसी की भी नहीं है। क्या गरीब, क्या अमीर।’

वे बताते हैं कि पैसे की कमी की वजह से किसी भी किसान के जरूरी काम नहीं रुक रहे हैं। किसी गरीब की बेटी के शादी-ब्याह के लिए पैसे का इंतजाम भी लोग अपने परम्परागत तरीके से कर ले रहे हैं। आपसी व्यवहार और उधार के जरिये। गांव-जवार के रिश्ते की दुहाई देकर। आडेÞ वक्त में एक-दूसरे की मदद की गुहार लगाकर। यह उस आम आदमी का तरीका है, जो आपसी समझदारी से अपना काम निकालने में माहिर होता है। इस आम आदमी की आड़ में आज मोदी के फैसले से असहमत राजनीतिक दल और लोग मोदी के फैसले को देश में ‘आर्थिक आपातकाल’ लागू होने की बात कर रहे हैं।

दरअसल पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिले में करेंसी की कमी की एक बड़ी वजह यह भी बताई जा रही है कि बनारस में ही ज्यादातर बैंकों का ‘करेंसी चेस्ट’ है। गोरखपुर, मिजार्पुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों को करेंसी की ‘सप्लाई’ बनारस के ‘करेंसी चेस्ट’ से होती है। बैंको में पुराने नोटों का तो ‘अंबार’ लगा है पर नए नोट जरूरत के मुताबिक उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। ‘करेंसी’ की किल्लत की मुख्य वजह यह भी है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि सरकार का यह फैसला तो ठीक है पर ऐसा लगता नहीं है कि सरकार ने ऐसा कदम उठाने से पहले पर्याप्त तैयारी की थी।

जाहिर है कि सरकार की ओर से इस दिशा में जरूरी उपाय जल्द लागू नहीं किए गए तो इसके उलटे नतीजे उतनी ही तेजी से सामने आएंगे। देश और चुनावी प्रदेशों का चुनावी व्याकरण और सियासी समीकरण का पहिया उलटी दिशा में घूमता नजर आएगा। पर लोगों का यह भरोसा है कि मोदी कोई ऐसे पप्पू ‘राजनेता’ नहीं हैं कि हाथ में आई इस राजनीतिक बाजी को, जिसकी वजह से चारों तरफ उथल-पुथल मची है यूं ही निकल जाने देंगे। इस मुद्दे की अकाल मौत नहीं होने देंगे और न अपना ऐतिहासिक फैसला वापस लेंगे।

यह दुधारी तलवार है जिस पर दौड़ना और ठहरना दोनों खतरनाक हो सकता है। इस फैसले से जुडेÞ दो तरह के सवाल उठ रहे हैं। यह कि क्या मोदी ऐसे फैसले अकेले लेते हैं अथवा राय-मशविरा करने वाली टीम उनके पास है? दूसरा यह कि विपक्षी दलों की आम जनता की नब्ज पकड़ने की क्षमता कम हुई है? ये दोनों सवाल ऐेसे हैं जिन पर मोदी के प्रशंसकों, सर्मथकों आलोचकों की राय अलग-अलग हो सकती है। पर इस बात पर सहमति दिखती है कि ऐसे फैसले एक झटके में, गोपनीय तरीके से, अन्य परिस्थितियों का भली भांति आकलन कर, दुरुस्त वैकल्पिक व्यवस्था सुनिश्चित कर, प्रबन्धन के बेहतर उपाय तय कर लागू किए जाते हैं ताकि आम-जन को कम से कम तकलीफ हो।

बैंकों और एटीएम पर लाइन में लगे लोग पैसे की कमी की वजह से परेशानी का इजहार तो कर रहे हैं, तो कई जगह मारपीट की खबरें भी आ रही हैं। पर दंगे-फसाद होने की नौबत नहीं आई है जैसी कि सुप्रीम कोर्ट ने आशंका जताई है। हां, फिजूलखर्ची पर रोक जरूर लगी है। पिछले पच्चीस-तीस साल में पैदा हुए मध्यवर्ग में दिखावे की जीवनशैली पर एक ‘बे्रक’ जरूर लग गया है। इस मामले में बिहार का उदाहरण ले सकते हैं। आमतौर पर बिहार के लोग पढ़ाई, सगाई और दवाई पर अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च करते हैं। पढ़ाई और दवाई तो जीवन का जरूरी हिस्सा है। पर बेटा-बेटी की शादी पर बेहिसाब खर्च और ‘तामझाम’ एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए काफी तकलीफदेह होता है। कई बार असहनीय भी। बीएचयू के छात्र नेता रहे संजय सिंह बताते हैं, ‘इस बार पिछले 16 नवंबर को घर में शादी पड़ी थी। बेटा-बेटी वालों ने आपसी समझदारी से शादी की रस्म को पूरा किया। लेन-देन की बात भी कम में निबट गई। पवनी-परजुनिया भी आगे अपना हक मिलने की उम्मीद पर राजी हो गए। बारात राजी खुशी विदा हुई।’

लंका की प्रसिद्ध पान की दुकान पर सामाजिक कार्यकर्ता विजय नारायण मिले। मोदी के फैसले पर बताते हैं, ‘आम आदमी मोदी के इस फैसले से खुश। भले ही एक दो हफ्ते परेशानी हो।’ दूसरी पटरी से लगभग ललकारते हुए फक्कड़ (चाय की दुकान चलाते हैं) पास आए। बिना कुछ जाने-पूछे अपनी प्रतिक्रिया देने लगे, ‘सा रखो और पैसे। मोदी है सबकी भूसी छुड़ा देगा।’ बनारस का साड़ी उद्योग इस फैसले से जबरदस्त तरीके से तबाह है। यहां लेने-देने के परम्परागत तरीके ही चलते हैं। आमतौर पर ‘गृहस्थ’ नगदी पेमेंट करते हैं। इस वजह से पुराने नोट बदलने की सबसे बड़ी लाइन साड़ी व्यवसायियों के मुहल्ले में ही लगी है। नोट बदलने के लिए और तय सीमा से अधिक नकदी प्राप्त करने के लिए मजदूरों को लाइन में लगवाया गया। स्याही लगाने की शुरुआत के बाद लाइन अपने-आप छोटी होेने लगी। पूर्वांचल के के्रसर उद्योग पर कालेधन पर पाबंदी का चाबुक अभी नहीं लगा है। सोनभद्र जिले के डाला में लगभग साढ़े तीन सौ के्रसर प्लांट हैं। पूरे पूर्वांचल समेत आसपास के दूसरे प्रदेशों में डाला से गिट्टी की सप्लाई होती है। के्रसर मालिक आज भी नगद भुगतान लेने की पुरानी आदत पर अडेÞ हैं। चेक के जरिये पेमेंट लेने में आनाकानी कर रहे हैं। उन्हें नए नोट और वह भी पूरा पेमेंट एक साथ चाहिए। इस वजह से निर्माण कार्य में सुस्ती आने का अंदेशा है।

रियल एस्टेट को इस फैसले से जोरदार झटका लगा है। एक अनुमान के मुताबिक रियल एस्टेट में लगभग पचास फीसदी पैसा काली कमाई का लगा है। जमीन का और रियल एस्टेट का भाव जमीन पर आ गया है। इस उद्योग से जुडेÞ व्यवसायी बताते हैं कि कम से कम एक से डेढ़ साल तक लगेगा इस उद्योग को सुधरने में। मकान और जमीन के खरीदार नहीं मिल रहे हैं।

नरेन्द्र मोदी की इस ‘शॉक थेरेपी’ ने लोगों का अपनी जीवन शैली बदलने के लिए मजबूर किया है, तो दूसरी ओर लोग यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि बैंकों की लाइन में वे खास लोग कहां गायब हैं, जो बड़ी हवेलियों में रहते हैं और बडेÞ पैसे वाले हैं। आम आदमी ही क्यों लाइन में नजर आ रहे हैं।

एक अर्थशास्त्री की निगाह में मोदी के फैसले से समाज में साठ-चालीस का विभाजन हो चुका है। लोगों की परेशानी कुछ जरूर बढ़ी है पर नाराजगी की हद तक नहीं। लोगों की उम्मीदें कायम हैं कि शायद बैंक दरें कम हों। बैंकों से कर्ज आसानी से उपलब्ध होंगे, क्योंकि बैंकों के पास बड़ी मात्रा में पैसे आए हैं। पर हो सकता है कि कर्ज अदायगी में कुछ विलंब हो। निजी बैंक खुदरा कर्ज देने में दिक्कत पेश करें। इस फैसले का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि पुराने बडेÞ नोट मजाक का पात्र बन चुके हैं। बनारस में आम लोग तो क्या भिखारी तक खुदरा पैसे देने से मना कर रहे हैं। कुछ छोटे व्यवसायी तो भिखारियों से छुट्टे पैसे एक्सचेंज करते दिखे। बनारस के पर्यटन उद्योग पर भी इस फैसले का असर पड़ा है। पर्यटन के लिहाज से नवंबर से मार्च तक पीक सीजन होता है। ऐन वक्त पर विदेशी पर्यटक अपनी बुकिंग कैंसिल करा रहे हैं। नदीजीवी समाज के नाव के धंधे भी ठप्प हो गए हैं। मंदिरों के चढ़ावे में भी कमी आई है। लोगबाग यह भी सवाल पूछ रहे हैं कि विश्वनाथ मंदिर और संकट मोचन मंदिर के चढ़ावे में आई रकम का इस्तेमाल अब किस रूप में होगा। विश्वनाथ मंदिर का संचालन एक ट्रस्ट के जरिये होता है। पर संकट मोचन, दुर्गाकुंड मंदिर, मानस मंदिर के संचालन के विषय में लोगों की दिलचस्पी इन दिनों बढ़ गई है। कुल मिलाकर इस फैसले से आम आदमी व्यावहारिक अर्थशास्त्र की जानकारी हासिल करने के लिए उत्सुक हुआ है। एक अजीब किस्म की बेचैनी भी लोग महसूस कर रहे हैं। पर इस फैसले से लोगों में नई उम्मीदें भी जगी हैं। 