कभहूं तो जी करत, फांसी लगा कै जान दे दें

संध्या दिवे्दी ।  तड़के, चिलचिलाती दोपहर, शाम या फिर रात बुंदेलखंड में एक नजारा आम है। सिर पर कलश रखे, हाथों में डब्बे लिए, साइकिलों में कई कई डब्बे बांधे, बैलगाड़ियों में ड्रम रखे लोग। हताश चेहरों और झल्लाई आवाजों में सूखे की त्रासदी साफ झलकती है। महोबा के खन्ना कस्बे की उमा जब कहती है ‘समझ नई आउत का होहे, कैसे बितहे जिंदगी….कभहूं कभहूं तो जी करत फांसी लगा कै जान दे दें।’ दुख, कुंठा, हताशा उसकी आवाज में साफ झलकती है। हो भी क्यों न! दो कलश पानी लाने के लिए तीन किलोमीटर आने जाने का रास्ता तय करना पड़ता है। उस पर भी आश्चर्य तब होता है जब कुएं, तालाब या नलकूप की जगह उमा एक छोटे से गड्ढे से पानी भरती है। यह एक बानगी भर है। बूंद बूंद को तरस रहे पूरे बुंदेलखंड में कई जगह ऐसे गड्ढे, झीरिया इस सूखे के संकट को और त्रासद बना देते हैं। बावजूद इसके सरकार की नजर में महोबा जिले में कोई प्यासा नहीं है। महोबा के डी.एम. का तो यही कहना है, ‘जिले में कोई प्यासा नहीं है। गांव-गांव पानी के टैंकर पहुंच रहे हैं।’ महोबा जैसी ही तस्वीर पन्ना जिले में भी दिखी। अपेक्षाकृत कुछ चौड़े ऐसे ही गड्ढे यहां शहर से कुछ दूर बसे इलाके मानस नगर, गुड़ियान में भी दिखे। अपनी मां को लोटे से पानी भर-भरकर दे रही गड्ढे के भीतर बैठी सात साल की तीता से जैसे ही पूछा कि किस कक्षा में पढ़ती हो तो जवाब में गुथा हुआ सवाल उसकी मां ने हमारी तरफ उछाल दिया, ‘पढ़हें कि पानी भरहें?’ तीता की मां का सवाल बड़ा है। झकझोरने वाला है। मगर पन्ना के डी.एम. ने भी उतनी सख्ती से न सही सधी हुई आवाज में यह जरूर कहा ‘ऐसी कोई जगह हमारी जानकारी में नहीं।’ सवालों से बचने की गरज से दूसरे ही पल उन्होंने हमें भरोसा भी दिलाया कि अगर कहीं ऐसा है तो हम पता लगाएंगे।

चित्रकूट

भउजाई बच्चा जनें और ननदें पानी भरें

‘देखत देखत साठ बरस से ज्यादा हुई गे, पै पानी नहीं आवत है, जवान होत होत हियां पाइपलाइन तौ पड़ गे हवे, लेकिन पानी कबहूं नहीं आव, टंकी बनी रहै तो कुछ भरोस भा लेकिन वहू शोपीस बन गे।’ बुंदेलखंड का सूखा वहां की दरार पड़ी जमीन, रूखे पांव और लोगों के चेहरे पर साफ दिखता है। चित्रकूट के बरहामाफी गांव के कल्लू पाल का यह बयान न खत्म होने वाले सूखे की कहानी बयां करने के साथ-साथ पानी पर हो रही सियासत की भी एक बानगी है। बरहामाफी गांव मानिकपुर के पाठा क्षेत्र में पड़ता है। यह वही पाठा क्षेत्र है जहां 1973 में पाठा पेय जल योजना की शुरुआत इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुई थी। लगभग दो सौ करोड़ रुपए से शुरू हुई इस योजना का प्रचार प्रसार तत्कालीन सरकार ने जनमानस को मोहने के लिए खूब किया। इस योजना ने एशिया में सबसे बड़ी जल परियोजना होने का दर्जा भी पाया। मगर पाठा क्षेत्र के गांव प्यासे के प्यासे रहे। सरकारी विज्ञापनों की लिखावट के साथ शौचालयों की संख्या भी कम नहीं है। लेकिन ये भी किसी काम के नहीं। भरी दुपहरिया में शौच को जाती रामकलिया और उनकी सहेलियों से जब पूछा गया कि शौचालय तो गांव में हैं फिर खेत में क्यों? उनका जवाब था ‘पीएं खातिर पानी नहीं हवै तो बहावें खातिर कहां से आई?’ पानी की त्रासदी को बयान करता और स्वच्छता अभियान को चिढ़ाने वाला रामकली का यह बयान सुनकर क्या हमारी सरकारें पानी-पानी होंगी? बरहामाफी से रामपुर गांव के रास्ते में ब्लास्ट वेल योजना के तहत बने कई कुएं दिखाई पड़ते हैं। ये कुएं सालों पुराने हैं। कहीं अधूरे पड़े तो कहीं पूरे। लेकिन इनमें पानी का नामोनिशान नहीं है। इसमें एक कुएं की लागत करीब तीन लाख आई थी। रामपुर गांव का हाल भी यही है। गांव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर बने कुएं में औरतों और बच्चों का जमावड़ा रात-दिन रहता है। सुनीता के पति पंजाब के जलगांव में रहते हैं लेकिन पिछले तीन महीने से सुनीता अपने मायके में हैं। पीछे खड़ी औरत की तरफ इशारा करते हुए सुनीता कहती है- ‘आखिरी महीना चल रहा है, किसी भी समय बच्चा हो सकता है। इनका बच्चा होने तक मैं यहीं रहूंगी।’ ठिठोली करती हुई सुनीता कहती है- ‘अब तो इस गांव की परंपरा बन गई है, भउजाई बच्चा जनें और ननदें पानी भरें।’ सुनीता ने यह ठिठोली भले ही अपनी भाभी के साथ की हो, मगर असल में यह ठिठोली सरकारी योजनाओं का मजाक उड़ाती है। यहां से करीब तीन किलोमीटर दूर गोपीपुर गांव की औरतें भी यहां रात को पानी भरने आती हैं। दरअसल वे रात में चोरी चोरी पानी भरने आती हैं ताकि रामपुर के लोग उन्हें अपने कुएं से पानी भरने से न रोक पाएं। दोनों गांवों के बीच पानी को लेकर कई बार सिर फुटौवल भी हो चुकी है। यह तस्वीर कुछेक गांवों की नहीं बल्कि पूरे जिले की है। बरगढ़, भरतकूप जैसे कई और गांव सूखे की मार सहने को मजबूर हैं।

महोबा 

चाहे खसम मरी जाए….

चित्रकूट के मानिकपुर से शुरू हुई पानी की पड़ताल के दौरान सामने आने वाली तस्वीरें लगातार भयावह होती गर्इं। इस ताप भरे सफर में बुंदेलखंड की दरार पड़ी जमीन, सूखे तालाब, कुएं और चिलचिलाती धूप में पानी भरने जाते लोगों के बीच से उठते सवालों ने हमें भीतर तक जलाया। यहां हर कोई पानी के डिब्बे, कलश लिए दिखाई देता है। पानी के डिब्बों और कलशों से लदी साईकिल, बैलगाड़ी हर कदम पर दिखाई देती है लेकिन औरतें पानी भरने के सफर में सुबह से रात तक रहती हैं। पानी के इस सफर में उनके साथ होते हैं बच्चे। शिक्षा के अधिकार को मुंह चिढ़ाते, बस्ते की जगह पानी का बोझ ढोते इन बच्चों के लिए तो पानी भरना अब खेल हो गया है। बच्चों में होड़ लगती है, कौन कितने चक्कर लगाएगा? हांफते-पसीना बहाते ये बच्चे एक अजीब जीत की आस में सिर पर पानी से भरे डिब्बे रखकर चक्कर पर चक्कर लगाते हैं। महोबा जिले में जब सात-आठ साल की एक बच्ची यह कहती है, ‘आज हमने सात चक्कर लगाए, शर्त लगी थी गौरी से, मैं जीत गई वह हार गई।’ पसीने से सराबोर बच्ची की यह जीत बुंदेलखंड की प्यास बुझाने में असफल रही सरकारों की हार है। रात करीब सात बजे अंधेरे में उमा, कौशल्या और जमनी तीनों चंद्रावल नदी के किनारे खुदे चूहड़ों से पानी भर भरकर अपने कलश, गगरी और डिब्बे भर-भरकर ले जा रही हैं। उमा और कौशल्या देवरानी जिठानी हैं और जमनी सास। बड़ी मिन्नतों के बाद मुंह से घूंघट उठाने को राजी हुई उमा ने बताया कि दिन भर में पंद्रह चक्कर लगा चुके हैं। उनका यह कहना था कि मेरे दिमाग में गुणा-भाग शुरू हो गया। एक चक्कर यानी आने जाने का करीब तीन किलोमीटर। तो क्या उमा पैंतालिस किलोमीटर चल चुकी है? उमा को जब यह गणित बताया तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। सिर पर कलश रखते हुए इतना भर कहा, ‘समझ नई आउत का होहे, कैसे बितहे जिंदगी….कभहूं कभहूं तो जी करत फांसी लगा कै जान दे दें।’ पास खड़ी कौशल्या उसे ढांढस बंधाती है। दरअसल उमा की शादी को अभी एक साल ही बीता है लेकिन कौशल्या को तीन चार साल हो गए हैं। कौशल्या का दुख भी फूटता है। वह कहती है- दिन रात पानी भरो, घर को काम करो और आदमियन की गारी सुनौ औरतन खों बस अइसयी जिंदगी बीताउने पड़त है। दिन रात पानी भरत रहत हम, पै अगर कबहूं ऐसो होत है कि आदमियन की लात न खाओ। बड़े आराम से पानी भरकर उमा के सिर पर रखती हुई कौशल्या की नजर लगातार इस बात पर बनी है कि कहीं पानी की एक बूंद कलशे से छलक न पड़े। उमा और कौशल्या से हुई मुलाकात ने बुंदेलखंड की उस कहावत की याद दिला दी जो कभी पानी की त्रासदी से जोड़कर बनाई गई थी- ‘भंवरा (तालाब) तेरा पानी गजब कर जाए, गगरी न फूटै चाहे खसम मर जाए।’ वाकई तीन किलोमीटर दूर से भरकर लाई पानी की भरी गगरी अगर गिर जाए तो… गजब हो जाएगा। कबरई ब्लाक के खन्ना कस्बे की मुख्य सड़क से करीब आधा किलोमीटर दूर बसे इस गांव में गड्ढ़ों को खोदकर पानी निकालने का यह सिलसिला कई दशकों से चल रहा है। प्यारे लाल चालीस बरस के हो गए हैं। वह बताते हैं कि मेरे दादा, पिता, मां और बहनों को ऐेसे ही पानी भरते हमने देखा है। बगल के ब्योंड़ी गांव में इस साल टंकी लग गई है। नहीं तो वे लोग भी ऐसे ही चूहड़ खोद-खोदकर पानी भरते थे। कुछ आस बंधी है। शायद हमारे भी अब अच्छे दिन आएंगे। ‘क्या यहां टैंकर आते हैं’ यह पूछने पर वह कहते हैं कि अगर ऐसा हो जाए तो हमें आराम हो जाए। वह उत्सुकता से पूछते हैं, ‘क्या यहां टैंकर आने की बात चल रही है।’ इस गांव से लौटकर जब महोबा के डी.एम. वीरेश्वर सिंह से इस गांव का जिक्र किया तो उनका जवाब चौंकाने वाला था, ‘ऐसा कोई गांव नहीं जहां टैंकर न पहुंचता हो, वे सब झूठ बोलते हैं। चूहड़ सालों पहले खोदे जाते थे, बीते जमाने का किस्सा बन चुके हैं अब तो चूहड़।’ डी.एम. के जवाब से मैं निराश कम और हतप्रभ ज्यादा थी। मेरे मुंह से बस इतना भर निकला- या तो आप महोबा पूरा नहीं घूमे या यह गांव महोबा में नहीं आता! महोबा का मदन सागर, विजय सागर, तीरथ सागर तीनों सूख चुके हैं। पानी से हमेशा लबालब रहने वाले तालाबों की व्यथा दरारें पड़ी जमीन बता रही है। महोबा के चरखारी ब्लाक में बीस से ज्यादा तालाब होंगे। लेकिन सब सूखे हैं। मानसून के इंतजार में यहां के चौदह तालाबों में गहरीकरण का काम जारी है। जयसागर के पास बैठे तिलोमपुर गांव के सुखलाल कहते हैं, ‘पहली बार सारे तालाब सूख गए… बत्तीस साल की जिंदगी में पहली बार इतना सूखा देखा है। अब बस हम आसमान की तरफ ताक रहे हैं… कब बादरा छाएं और पानी बरसाएं।

हमीरपुर

खारे पानी से जूझते लोगों ने सुनाई खरी खरी

बुंदेलखंड के सूखे-सफर का तीसरा पड़ाव बना हमीरपुर जिला। मौदहा से होते हुए मुस्करा ब्लाक तक के रास्ते में सूखे कुओं और तालाबों का सिलसिला जारी था। जहां पानी के टैंकर पहुंचे थे, वहां लोगों की भीड़ जमा थी। इस भीड़ में भी सबसे ज्यादा बच्चे और औरतें ही दिखाई पड़ रहीं थीं। ऐसा नहीं कि पुरुष नहीं थे लेकिन उनकी संख्या कम थी। यहां के कपसा गांव के कुछेक कुओं में पानी तो था मगर खारा। गांव के सूखे तालाब के पास जमा लोगों ने बताया कि इस इलाके की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि यहां का पानी खारा है। गांव के बाहर बने कुछ कुओं में पीने लायक पानी आता है। उनकी बात सही थी। यहां आधा मीटर की दूरी पर दो कुएं थे। दोनों में कुछ कुछ पानी भी था। मगर पियो तो लगेगा कि नमक घोलकर पानी पी रहे हैं। यहां से निकलकर करीब-करीब बने दो गांवों शायरा और उपरी के लोगों का भी यही रोना था। बगल में तालाब जिसे बड़ा तालाब के नाम से जाना जाता है, की तरफ इशारा करते हुए संतोष ने बताया कि इस बार पहली बार यह तालाब सूख गया। एक कुएं का पानी भी सूख गया। एक कुआं जिंदा है। इसमें भी दोपहर होते होते पानी घट जाता है। उपरी और शायरा मिलाकर यहां करीब दस हजार वोटर हैं। इस आबादी पर रोजाना एक टैंकर से तालाब सूखे हैं। लेकिन गर्मियों के बाद कुछ में पानी आ जाता है। हम पूरे साल इसी कम खारे पानी के सहारे जिंदगी बिताते हैं। गांव के लोगों ने बताया उपरी गांव का भी यही हाल है। हमीरपुर के कुछ गांव ही खारेपन के इस श्राप से मुक्त हैं। नहीं तो कम या ज्यादा यहां के गांव के गांव खारे पानी पर जिंदगी बसर करने के लिए मजबूर हैं।

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