अनूप भटनागर

राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने भले ही प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को पद से हटाने के प्रस्ताव के कांग्रेस, वाममोर्चा और कुछ अन्य विपक्षी दलों के नोटिस को अस्वीकार कर दिया हो लेकिन इन दलों की इस कारगुजारी से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को जो ठेस पहुंची है उसकी भरपाई शायद आसानी से नहीं हो पाएगी। प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव का नोटिस अस्वीकार होने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल का यह कहना कि सभापति का आदेश असंवैधानिक व गैरकानूनी है और किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले उन्हें सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम से ही परामर्श कर लेना चाहिए था, उनकी मंशा पर सवाल खड़े करता है। जहां तक सवाल कोलेजियम का है तो दीपक मिश्रा सहित पांच वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य हैं। मतलब साफ है कि प्रधान न्यायाधीश को पद से हटाने के प्रस्ताव के नोटिस पर उपराष्ट्रपति को न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ से परामर्श करना चाहिए था। इन चारों वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश की कार्यशैली के खिलाफ 12 जनवरी को संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस की थी।
वित्त मंत्री अरुण जेटली के इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि कांग्रेस अब न्यायपालिका पर दबाव बनाने के लिए इस प्रक्रिया का हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी को पद से हटाने के लिए लोकसभा में मई 1993 में हुई कार्यवाही में प्रभावशाली भाषण देने वाले माकपा के तत्कालीन नेता सोमनाथ चटर्जी जो बाद में लोकसभा अध्यक्ष भी बने, ने वेंकैया नायडू के निर्णय पर टिप्पणी करते हुए इसे जल्दबाजी में लिया गया फैसला बताया। यह उनका मत है लेकिन इस तथ्य को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि सभापति के फैसले से एक दिन पहले ही कांग्रेस ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा से सभी प्रशासनिक और न्यायिक जिम्मेदारियों से हट जाने की मांग की थी। कांग्रेस की इस मांग का आशय साफ था कि दीपक मिश्रा यदि नोटिस लंबित होने के दौरान जिम्मेदारियों से हटते हैं तो उनका प्रभार दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलामेश्वर को ही मिलता जो 22 जून को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि आखिर कांग्रेस क्यों चाहती थी कि प्रधान न्यायाधीश इस दौरान प्रशासनिक और न्यायिक जिम्मेदारियों से दूर रहें।
इस पूरे घटनाक्रम से एक सवाल बार-बार उठता है कि आखिर न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को इस तरह से धूल धूसरित करने का कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का मकसद क्या था? क्या वे अयोध्या के राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद, रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने और आधार कार्ड को लेकर शीर्ष अदालत में लंबित मामलों की सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनाव तक टलवाना चाहते थे? या फिर इसका मकसद किसी न किसी तरह न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ बगावत करने वाले न्यायाधीशों का नेतृत्व कर रहे न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, जो 22 जून को सेवानिवृत्त होंगे, को किसी तरह प्रधान न्यायाधीश के प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों की जिम्मेदारी दिलाकर कुछ संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुकदमों को अपनी सुविधानुसार इधर-उधर कराना था?
बहरहाल, कांग्रेस और कुछ विपक्षी दल प्रधान न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए बनाई गई अपनी रणनीति में बुरी तरह विफल हो गए हैं। अब देखना यह है कि प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चे की अगुवाई करने वाले कांग्रेस के नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और इस अभियान में शामिल अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता (यदि कोई और थे) क्या उनके न्यायालय में पेश होंगे या फिर उनके सेवानिवृत्त होने का इंतजार करेंगे। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा का कार्यकाल एक अक्टूबर तक है। भले ही आज कांग्रेस न्यायपालिका को कमजोर करने या अपने अनुरूप चलाने के आरोप नरेंद्र मोदी सरकार पर लगा रही हो लेकिन इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कांग्रेस ने ही न्यायपालिका को राजनीति की ओर धकेला और उसकी गरिमा को भी ठेस पहुंचाई। कांग्रेस के ही शासन में जनवरी 1977 में वरिष्ठतम न्यायाधीश हंसराज खन्ना की वरिष्ठता को नजरअंदाज करके न्यायमूर्ति एमएच बेग को प्रधान न्यायाधीश बनाया गया था।
यही नहीं, दीपक मिश्रा पर कदाचार के आरोप (जो स्थापित नहीं हुए हैं) लगाने वाली कांग्रेस ने ही सबसे पहले भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाने की कार्यवाही का सामना करने वाले सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वी रामास्वामी का बचाव किया था। तब कपिल सिब्बल ने अपनी पेशेवर जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए ऐसा किया था। न्यायमूर्ति रामास्वामी को पद से हटाने के प्रस्ताव पर मई 1993 में लोकसभा में हुई बहस और मतदान के दौरान प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की मौजूदगी में कांग्रेस और उसके समर्थक दलों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था। इस तरह न्यायमूर्ति रामास्वामी को पद से हटाने का प्रस्ताव पास नहीं हो सका था और वे इस प्रकार पद से हटाए जाने के अपमान से बच गए थे। लेकिन उस घटना ने भ्रष्टाचार और कदाचार के प्रति कांग्रेस की आसक्ति को बेपर्दा कर दिया था।

क्या कहता है न्यायाधीश जांच अधिनियम
राज्यसभा के सभापति के फैसले पर उठाए जा रहे सवालों के मद्देनजर संविधान में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को पद से हटाने संबंधी प्रावधानों और न्यायाधीश जांच कानून में निर्धारित प्रक्रिया को समझना जरूरी है। संविधान के अनुच्छेद 124(4) के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर उन्हें हटाए जाने के लिए संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत और उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दिया है। इसी तरह अनुच्छेद 124 (5) में प्रावधान है, संसद खंड (4) के अधीन किसी समावेदन के रखे जाने की और न्यायाधीश के कदाचार या असमर्थता की जांच और साबित करने की प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन कर सकेगी। न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 के प्रावधानों के अनुसार, किसी भी न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए प्रस्ताव पर राज्यसभा के कम से कम 50 और लोकसभा के मामले में कम से कम सौ सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए। प्रधान न्यायाधीश के मामले में कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी दलों ने राज्यसभा के सभापति को इस प्रस्ताव का नोटिस दिया था। इस कानून की धारा तीन के अनुसार, ऐसा नोटिस मिलने पर सभापति या लोकसभा अध्यक्ष, जैसी भी स्थिति हो, को अपने विवेक से यह निर्णय करना होता है कि क्या यह नोटिस स्वीकार करने योग्य है और क्या इसमें संविधान में प्रदत्त अनिवार्यताओं का पालन किया गया है। धारा तीन में स्पष्ट प्रावधान है कि इस तरह का नोटिस मिलने पर अध्यक्ष या सभापति, जैसी भी स्थिति हो, ऐसे व्यक्तियों से परामर्श करके जिन्हें वह उचित समझते हों और सारी सामग्री, जो उन्हें उपलब्ध कराई गई हो, पर विचार के बाद ऐसा प्रस्ताव स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं।
यदि प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है तो इसी धारा के अंतर्गत सुुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की जाती है। इसके दो अन्य सदस्यों में एक किसी हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश और दूसरा सदस्य कोई प्रतिष्ठित विधिवेत्ता होगा।
वेंकैया नायडू ने भी ठीक ऐसा ही किया और उन्होंने विधिवेत्ताओं तथा संविधान विशेषज्ञों से परामर्श कर यह नोटिस अस्वीकार कर दिया। यही नहीं, सभापति ने तो बाकायदा दस पन्ने के आदेश में नोटिस अस्वीकार करने की 22 वजहें भी बताई हैं। नायडू ने अपने आदेश में कहा कि यह प्रस्ताव राजनीति से प्रेरित है और इसके तर्कों तथा तकनीकी आधार में कोई दम नहीं है। कदाचार साबित करने के लिए ठोस सबूत चाहिए लेकिन इस मामले में तो महज संदेह के आधार पर ही आरोप लगा दिए गए हैं। कई आरोप तो न्यायपालिका के आंतरिक मुद्दे हैं जिन पर आगे जांच की आवश्यकता नहीं है। साथ ही यह भी कहा कि इस तरह का नोटिस स्वीकार होने से पहले इसकी जानकारी मीडिया को देना राज्यसभा के नियमों के विरुद्ध है।
अभी तक ऐसी जांच समिति के अध्यक्ष पद के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में प्रधान न्यायाधीश से परामर्श करने की परंपरा रही है। चूंकि अब प्रधान न्यायाधीश को ही पद से हटाने का मुद्दा था तो यह सवाल उठना भी स्वाभाविक था कि अब समिति की अध्यक्षता के लिए न्यायाधीश के चयन हेतु किससे परामर्श किया जाएगा? क्या दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश जे चेलामेश्वर या फिर न्यायमूर्ति रंजन गोगोई से जो पहले ही प्रधान न्यायाधीश की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए गंभीर आरोप लगा चुके हैं? क्या ऐसा करना न्यायोचित होगा? इस तथ्य पर यदि गंभीरता से गौर किया जाए तो विपक्ष द्वारा प्रधान न्यायाधीश को हटाने के मामले में नोटिस देने की मंशा स्वत: साफ हो जाती है।

इन वजहों से भी नोटिस पर संदेह
दीपक मिश्रा को पद से हटाने के लिए विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव पर संदेह का आधार कुछ और भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। महाराष्ट्र के जज बीएच लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत की स्वतंत्र जांच के लिए कांग्रेस के तहसीन पूनावाला और अन्य की याचिकाएं 19 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में खारिज होने के अगले ही दिन प्रधान न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए सभापति को नोटिस दिया जाना भी बहुत कुछ बयां करता है। इसकी पृष्ठभूमि में जाने से पहले यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि कपिल सिब्बल ने ही दिसंबर 2017 में एक मुसलिम पक्षकार की ओर से बहस करते हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली विशेष खंडपीठ से अनुरोध किया था कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद सुनवाई की जाए। हालांकि विशेष पीठ ने कपिल सिब्बल का अनुरोध अस्वीकार कर दिया था लेकिन इस समय सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. राजीव धवन भी अप्रत्यक्ष रूप से इसी तर्क को आगे बढ़ा रहे हैं।
धवन का यही कहना है कि निकाह-हलाला और बहुविवाह की कुरीति के खिलाफ दायर याचिकाओं पर संविधान पीठ द्वारा विचार करने से पहले अयोध्या मामले में शीर्ष अदालत के 1993 के फैसले से उठ रहे सवालों पर संविधान पीठ विचार करे। मतलब साफ है कि किसी न किसी तरह प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ अयोध्या मामले पर आगे नहीं बढ़ सके। दिसंबर की घटना के एक महीने बाद ही अचानक 12 जनवरी को शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस की थी। इससे ऐसा लगता है कि प्रधान न्यायाधीश को पद से हटाने की दिशा में कहीं न कहीं रणनीति काफी पहले से बनाई जा रही थी। हो सकता है कि इन चारों न्यायाधीशों को इसकी भनक तक न हो लेकिन कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने उनकी प्रेस कांफ्रेंस में उठाए गए मुद्दों को अपने राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल कर लिया।
इन न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश पर आरोप लगाया था कि संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुकदमों के आवंटन में मनमानी हो रही है। ऐसे मामले जूनियर पीठ को आवंटित किए जा रहे हैं। जज लोया की मौत का मामला भी इनमें से एक था। इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता डी राजा की न्यायमूर्ति चेलामेश्वर से उनके निवास पर मुलाकात ने अनेक सवालों को जन्म दिया था। इस अप्रत्याशित घटना के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारी नृपेन्द्र मिश्र ने प्रधान न्यायाधीश से मुलाकात का प्रयास किया लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली थी।
न्यायमूूर्ति चेलामेश्वर की नाराजगी को पिछले साल नवंबर में हुई एक घटना से भी जोड़कर देखा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में लंबित मेडिकल कॉलेज से संबंधित मामले में अनुकूल समाधान के लिए कथित रूप से रिश्वत से जुड़ा था। इस संबंध में ओडिशा हाई कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश को सीबीआई ने गिरफ्तार किया था। इस संबंध में शीर्ष अदालत में एक जनहित याचिका दायर हुई थी। चूंकि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा उस समय एक संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे इसलिए यह याचिका न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ के समक्ष आया। पीठ ने इसे बहुत गंभीर बताते हुए कहा था कि वरिष्ठता के क्रम में पहले पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ इस पर सुनवाई करेगी। लेकिन एक दिन बाद प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कामिनी जायसवाल की याचिका पर विचार के लिए संविधान पीठ गठित करने का दो सदस्यीय पीठ का आदेश निरस्त कर दिया। संविधान पीठ ने दो सदस्यीय पीठ के आदेश पर आपत्ति जताते हुए कहा कि प्रधान न्यायाधीश ही संविधान पीठ का गठन कर सकते हैं। 