लाल पर क्यों चढ़ा भगवा

अभिषेक रंजन सिंह

भारतीय जनता पार्टी असम के बाद त्रिपुरा में भी सीपीएम शासन को मात देने में कामयाब हुई है। भारतीय राजनीति में एक नया इतिहास रचते हुए भाजपा और उसके सहयोगी दल उनसठ में से तेंतालीस सीटें जीतने में कामयाब हुए। सीपीएम के खाते में सिर्फ सोलह सीटें आर्इं। त्रिपुरा की राजनीति में सीपीएम का यह सबसे खराब प्रदर्शन रहा वहीं भाजपा की यह जीत भारतीय राजनीति के लिहाज से एक कीर्तिमान भी है। शून्य से शिखर तक पहुंचने में एक तरफ भाजपा कार्यकर्ताओं की मेहनत तो दूसरी तरफ संघ की सधी हुई रणनीति कारगर साबित हुई।

हालांकि त्रिपुरा की जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देव, योगी आदित्यनाथ और राम माधव नायक रहे हैं। लेकिन भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाने में त्रिपुरा के भाजपा प्रभारी सुनील देवधर की अप्रतिम भूमिका रही है। मूलत: महाराष्ट्र के रहने वाले सुनील देवधर ने पार्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन किया। करीब चार साल से वे त्रिपुरा में हैं और भाजपा को मजबूत करने में उन्होंने गांव-गांव का दौरा किया है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और सीपीआई की बात करें तो राज्य में इनका खाता तक नहीं खुला। साठ सदस्यीय विधानसभा वाले इस राज्य में आदिवासियों की आबादी चौंतीस फीसदी है। पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा वामदलों का मजबूत गढ़ रहा है। लेकिन भाजपा ने अप्रत्याशित जीत हासिल करते हुए दो तिहाई सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा की जीत में जहां एक तरफ आरएसएस और वनवासी कल्याण आश्रम ने बड़ी भूमिका निभाई वहीं पच्चीस वर्षों की सत्ता विराधी लहर का खामियाजा भी माकपा सरकार को भुगतना पड़ा।

त्रिपुरा में आदिवासियों की संख्या अधिक है। वाम सरकार में जितना विकास उनका होना चाहिए उतना नहीं हुआ। अपनी इसी अनदेखी से नाराज आदिवासियों का माणिक सरकार से मोहभंग हुआ। आदिवासियों को पहले कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में आदिवासियों का जुड़ाव भाजपा के प्रति बढ़ा है। इसकी कई वजहें हैं। केंद्र में सबसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जनजातीय कल्याण मंत्रालय बना। इसका सर्वाधिक फायदा पूर्वोत्तर के आदिवासियों को मिला। देश में आदिवासियों की कुल आबादी का पचास फीसदी पूर्वोत्तर में निवास करता है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों का गठन केंद्र की भाजपा की सरकार में हुआ। इससे संदेश गया कि भाजपा आदिवासियों के कल्याण के प्रति गंभीर है। इस बार त्रिपुरा में सीपीएम सरकार को भाजपा से कड़ी टक्कर मिलेगी इसकी संभावना तो जरूर थी। लेकिन ढाई दशकों से सत्ता पर काबिज सीपीएम को इतनी बड़ी हार मिलेगी ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। भाजपा ने पूर्वोत्तर खासकर त्रिपुरा के लिए एक खास चुनावी रणनीति बनाई थी। अमूमन राजनीतिक दल चुनाव से छह महीने पूर्व तैयारियों में जुटते हैं। लेकिन भाजपा और संघ त्रिपुरा में पिछले कई वर्षों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे। पूर्वोत्तर के राज्यों में प्रधानमंत्री मोदी का बार-बार जाना भी साबित करता है कि वह पूर्वोत्तर के आदिवासियों के प्रति गंभीर हैं। पूर्वोत्तर में तीन रात गुजारने वाले पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने नार्थ-ईस्ट काउंसिल को संबोधित किया। चालीस साल बाद उनके समय में नार्थ-ईस्ट काउंसिल की मीटिंग शुरू हुई। केंद्र सरकार का एक मंत्री हर पखवाड़े नार्थ-ईस्ट की यात्रा पर जाते हैं। साढ़े तीन वर्षों में करीब डेढ़ सौ केंद्रीय मंत्रियों ने पूर्वोत्तर की यात्रा की और वहां केंद्रीय योजनाओं की समीक्षा की। त्रिपुरा में अभी तक कोई केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री नहीं गया था। जेपी नड्डा आजादी के बाद पहले ऐसे स्वास्थ्य मंत्री हैं जो त्रिपुरा आए। इसमें कोई शक नहीं कि पच्चीस वर्षांे के वाम शासन में गरीबों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती चली गई। त्रिपुरा की 67 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है। 1998 में माणिक सरकार जब मुख्यमंत्री बने उस समय में राज्य में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या पचासी हजार थी। बीते उन्नीस वर्षांे में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या बढ़कर आठ लाख हो गई है। 1993 में सीपीएम सत्ता में आई। इसी साल वहां चौथा वेतनमान लागू हुआ। पच्चीस वर्षांे में वहां के सरकारी कर्मचारियों का यही वतन है। प्रधानमंत्री मोदी के समय देश में सातवां वेतनमान लागू हुआ। असम में भी पांचवां वेतनमान ही चल रहा था लेकिन वहां भाजपा की सरकार बनने के तुरंत बाद सातवां वेतनमान लागू कर दिया गया। त्रिपुरा में मतदाताओं की कुल संख्या पच्चीस लाख है। जिनमें राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या दो लाख है। ढाई लाख के करीब पेंशनर हैं और इन्हें अपने पक्ष में साधने में भाजपा कामयाब रही। त्रिपुरा में प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने काफी चुनावी जनसभाएं कीं। इसकी प्रमुख वजह थी उनका नाथ संप्रदाय से संबंध होना। त्रिपुरा में नाथ संप्रदाय से जुड़े सत्रह छोटे-बड़े मंदिर हैं। राज्य में पिछड़ी जातियों की आबादी तीस प्रतिशत है और उनमें अस्सी प्रतिशत लोग नाथ संप्रदाय से जुड़े हैं। योगी आदित्यनाथ पहले भी त्रिपुरा आते रहे हैं प्रवचन देने। त्रिपुरा चुनाव में भाजपा की कामयाबी में उनकी भी बड़ी भूमिका है।

भाजपा के लिए इंडीजीनियस नेशनल पीपुल आॅफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) और इंडीजीनियस पीपुल फ्रंट आॅफ त्रिपुरा के साथ चुनावी गठबंधन करना भी फायदेमंद रहा। इन दोनों पार्टियों का जनजातीय इलाकों में अच्छा असर है। ये दोनों पार्टियां हर हाल में सीपीएम को सत्ता से बाहर देखना चाहती थीं। त्रिपुरा में आदिवासियों के लिए बीस सीटें आरक्षित हैं और दलितों के लिए दस सीटें। इन सभी जगहों पर भाजपा और उसके सहयोगी दलों को अहम कामयाबी मिली। त्रिपुरा और नगालैंड में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकार बनने के बाद यह कहा जा सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव में पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा को फायदा होगा। त्रिपुरा के चुनावी नतीजे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के लिए चिंता की बात जरूर हैं। त्रिपुरा में बांग्ला भाषी मतदाताओं की संख्या भी अधिक है। इस बार बांग्ला भाषियों ने जिस तरह भाजपा के पक्ष में मतदान किया उसका असर पश्चिम बंगाल के आगामी चुनावों में देखा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ वर्षांे में भाजपा के उभार से स्पष्ट है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को पश्चिम बंगाल से ठीक-ठाक सीटें मिलेंगी। इसके अलावा इतना तय है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अधिकांश सीटों पर मुख्य मुकाबला तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच होगा। हाल में कूचबिहार लोकसभा उपचुनाव और विधानसभा उपचुनावों के नतीजे भी इस तरफ इशारा करते हैं। त्रिपुरा में भाजपा प्रभारी सुनील देवधर ने चुनाव से कुछ महीने पहले ही ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में कहा था कि त्रिपुरा में भी भाजपा का उदय होगा। राज्य के चुनावी नतीजे के बाद उनकी कही तमाम बातें अक्षरश: सत्य साबित हुर्इं।

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