विजयशंकर चतुर्वेदी

ऐसा नहीं है कि देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कभी एक साथ हुए ही नहीं। पहले चार लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव 1952, 1957, 1962 और 1967 में साथ-साथ ही हुए थे लेकिन 1971 का साल आते-आते राज्यों में मध्यावधि चुनाव होने लगे थे क्योंकि कांग्रेस के विकल्प स्वरूप बनी संविद सरकारें अकाल मृत्यु को प्राप्त करने लगी थीं। 1971 में ही जब इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करके आम चुनाव भी मध्यावधि में कराने की घोषणा कर दी तो उसके बाद देश में दोनों चुनाव एक साथ कराने का विचार एक सपना बन कर रह गया।
‘एक देश, एक चुनाव’ सुनने में अच्छा लगता है। और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी इसी विचार को दोहराएं तो यह उपयोगी भी जान पड़ता है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दोनों चुनाव एक साथ कराने की राय का समर्थन करते हुए राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर जनवरी 2017 में चुनाव आयोग से कहा था- ‘आप सभी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश कीजिए ताकि आम सहमति बनाई जा सके।’
नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष कानून दिवस के अवसर पर लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की बात दोहराई थी। लेकिन अभी-अभी बजट सत्र के दौरान दिए गए अपने अभिभाषण में जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि देश में बार-बार चुनाव होने से न केवल मानव संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है बल्कि आचार-संहिता लागू होने की वजह से देश के विकास में भी बाधा पहुंचती है। इससे सनसनी फैल गई कि कहीं केंद्र सरकार 2018 में चार राज्यों (कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम) के प्रस्तावित विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव कराने की तो नहीं सोच रही, जो 2019 में होने हैं।
लेकिन दोनों चुनाव इसी वर्ष साथ संपन्न कराने के मार्ग में सबसे बड़ी व्यावहारिक बाधा यह नजर आती है कि कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल घटाना होगा और कुछ का बढ़ाना होगा। केंद्र सरकार को भी छह महीने पहले विदाई लेनी होगी। भला इसके लिए मोदी सरकार क्यों राजी होगी? भाजपा के दिमाग में तो ‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है’ वाली कहावत नाच रही होगी, जब ‘शाइनिंग इंडिया’ के फेर में अटल बिहारी वाजपेयी ने चुनाव समय से काफी पहले करवा लिया था और भाजपा की करारी हार हो गई थी। एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें नहीं हैं, वहां के मुख्यमंत्री समय से पहले ही कुर्सी छोड़ने के लिए क्यों तैयार होंगे?
वर्ष 2004 में एनडीए के घटक दल टीडीपी ने भी लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव का खामियाजा भुगता था। उसे राज्य की सत्ता से बाहर होना पड़ा था। इस बार मई-जून 2019 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू या फिर टीआरएस नेता केसी राव इसके लिए कैसे तैयार होंगे? पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी टीएमसी तो पहले ही इस प्रस्ताव को खारिज कर चुकी है और बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू भी इसके पक्ष में नहीं है।
फिर भी यदि पीएम मोदी, उनकी पार्टी भाजपा और राष्ट्रपति महोदय अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार उत्तम मानते हैं तो इसमें कोई अच्छी बात तो होगी ही। लालकृष्ण आडवाणी तो 2012 में ही इसके पक्ष में थे। नीति आयोग पहले ही कह चुका है- ‘वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ संपन्न कराना राष्ट्रीय हित में होगा।’
देश की सिविल सोसाइटी भी मानती है कि अगर स्थानीय निकायों के चुनाव भी शामिल कर लें तो कोई साल ऐसा नहीं जाता, जब भारत में कहीं न कहीं चुनाव न हो रहे हों। इसके चलते राजनीतिक दल एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन और अक्सर असंभव से दिखने वाले वादे करते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। देश का थिंक टैंक भी समझता है कि लगातार चुनावी मोड में रहने के चलते देश के अंदर और बाहर अस्थिरता बढ़ती है और आर्थिक विकास की अनदेखी होती है। अक्सर चुनावी चकल्लस के चलते सामाजिक समरसता भी भंग होती है। शायद इसीलिए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला ने पिछले वर्ष ही कहा था-‘एक साथ चुनाव कराने को लेकर बहस करने का उपयुक्त समय आ गया है।’
धन का अपव्यय रोकने की बात करें तो एक बार में ही चुनाव कराने से सरकारी खजाने पर भार आधे से ज्यादा घट सकता है। गौरतलब है कि 1952 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव का खर्च कुल मिलाकर मात्र 10 करोड़ रुपये हुआ था जबकि 2014 में मात्र लोकसभा चुनाव में 4,500 करोड़ (सरकारी आंकड़ा) खर्च हो गए। सुरक्षा की दृष्टि से देखें तो सुरक्षा बल बजाय चुनाव ड्यूटी करने के, देश की सीमाओं पर अपनी निर्बाध सेवाएं दे सकेंगे और घुसपैठ व आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा सकेंगे। लाखों सरकारी कर्मचारी और शिक्षक अनावश्यक तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करने से बच जाएंगे। उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखा जाए तो भारत में एक साथ चुनाव करा लेना ही श्रेयष्कर है।
लेकिन कल्पना करने से ज्यादा कठिनाई किसी विचार को जमीन पर उतारने में आती है। पहली कठिनाई तो यही है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न कराने की व्यवस्था हो। इससे राज्यों की स्वायत्तता भी प्रभावित होगी। चुनाव आयोग की राय है कि इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा क्योंकि संविधान विशेषज्ञ एक साथ चुनाव कराने को संघीय ढांचे पर प्रहार बताते हैं। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में हैं लेकिन उनका कहना है- ‘इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172 और 174 में संशोधन करना होगा।’
संघीय ढांचे पर प्रहार का तर्क इसलिए दिया जाता है कि अलग-अलग महत्व के मुद्दों पर लड़े जाने वाले ये चुनाव अगर एक साथ कराए जाएंगे तो जनता तत्कालीन हवा में बह जाएगी और अपने मनोनुकूल मतदान नहीं कर सकेगी। एक साथ चुनाव कराने में सबसे बड़ा पेंच यह भी है कि राष्ट्रीय दल तो अपना सिक्का जमाने में कामयाब हो जाएंगे लेकिन क्षेत्रीय दलों के हाशिये पर चले जाने का खतरा पैदा हो जाएगा, जो ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ और लोकतंत्र की भावना के अनुरूप नहीं होगा। अपने अस्तित्व की कीमत पर क्षेत्रीय दल अपनी सहमति क्यों और किस विधि से देंगे?
अब तक देश में कई अनिवार्यताओं के कारण चुनाव कराए जाते रहे हैं। मध्यावधि चुनाव संवैधानिक अपरिहार्यता के चलते होते हैं। कई बार राष्ट्रपति शासन भी लगाना पड़ता है। एक साथ चुनाव कराने के बाद यह भी देखना होगा कि किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने की परिस्थिति में कौन से प्रावधान काम आएंगे। दिक्कत यह भी होगी कि भारत जैसे विशाल और भौगोलिक विषमता वाले देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए इतने सारे कर्मचारी, ईवीएम मशीनें और चुनाव सामग्री का इंतजाम कैसे होगा और सुरक्षा बलों का प्रभावी संचालन किस प्रक्रिया के तहत संपन्न होगा? एक खतरा यह भी है कि अन्य राज्यों में जनाक्रोश झेलने का भय नदारद हो जाने के चलते जनप्रतिनिधि निरंकुश और सरकारें लापरवाह हो सकती हैं। यह बात सही है कि मोदी सरकार फिलहाल विपक्ष के विरुद्ध ‘एडवांटेज’ की स्थिति में है। इसलिए वह ‘एक देश, एक चुनाव’ की वकालत कर सकती है। 