जिरह- मुजाहिद से तारक बने केजरीवाल

हिंदी की एक फिल्म आई थी ‘बहू बेगम’। 1967 में आई इस फिल्म में साहिर लुधियानवी का एक गीत है, जिसके बोल हैं- निकले थे कहां जाने के लिए, पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं। अब अपने भटकते कदमों को मंजिल का निशां मालूम नहीं। यह गीत आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल की मौजूदा दशा को बहुत सही बयां करता है। एक पार्टी जो भ्रष्टाचार के विरोध में शुरू हुए आंदोलन के गर्भ से जन्मी थी उसने भ्रष्टाचार के किसी आयाम को छोड़ा नहीं है। एक के बाद एक उसके छह में से तीन मंत्रियों को पद से हटना पड़ा है। तीनों को पार्टी और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने बचाने की भरपूर कोशिश की। यह दीगर बात है कि वे कामयाब नहीं हो पाए। सड़क से अदालत तक आम आदमी पार्टी के खिलाफ माहौल है पर पार्टी के रवैए में किसी तरह का न तो बदलाव आया है और न ही उसके संकेत हैं। कुछ दिन पहले तक दिल्ली सरकार के मंत्री रहे संदीप कुमार की सेक्स सीडी का सामने आना तो शर्मनाक था ही, पार्टी नेताओं का उसके बचाव में उतरना उससे भी ज्यादा शर्मिंदा करने वाला था। पार्टी के प्रवक्ता आशुतोष ने अपने ब्लॉग में जिस तरह से संदीप कांड की तुलना महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी से की उसने सार्वजनिक विमर्श को और नीचे गिरा दिया। आशुतोष इसे सहमति से किया गया सेक्स कहकर संदीप को निर्दोष बताते रहे। दो दिन भी नहीं लगा कि पीड़ित महिला पुलिस में शिकायत लिखवाने पहुंच गई। संदीप कुमार जेल में हैं और पंजाब पहुंचकर केजरीवाल कह रहे हैं कि सुखबीर सिंह बादल के पास आम आदमी पार्टी के नेताओं/ कार्यकर्ताओं के खिलाफ तिरसठ सीडी हैं। उन्हें यह जानकारी कहां से मिली और इसमें कोई सचाई है भी कि नहीं इसका वे कोई जवाब नहीं देते। वैसे यह केजरीवाल और उनके साथियों का स्थाई भाव बन चुका है कि अपने विरोधी पर इतना बड़ा आरोप लगा दो कि आपके खिलाफ सचाई सामने आए तो वह छोटी दिखने लगे। इस कला में वे पारंगत हो चुके हैं।

डेढ़ साल की सत्ता ने अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार के खिलाफ मुजाहिद से भ्रष्टाचारियों का तारक (रखवाला) बना दिया है। सरकार और पार्टी की कारगुजारियों से दुखी अन्ना हजारे को आखिर चुप्पी तोड़नी पड़ी। उन्होंने कहा कि राजनीतिक बदलाव का जो सपना उन्होंने देखा था वह चकनाचूर हो गया है। अन्ना ने धमकी दी कि वे एक बार फिर आंदोलन के लिए दिल्ली आ सकते हैं। इस बार उनके निशाने पर अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी होगी। अन्ना के बयान के बाद भी केजरीवाल ने उन्हें सफाई देने या उनके सामने अपना पक्ष रखने की कोई जरूरत नहीं समझी। जाहिर है कि अब केजरीवाल को अन्ना हजारे की जरूरत नहीं है। दरअसल केजरीवाल को अब ज्यादा ईमानदार लोगों की ही जरूरत नहीं है। फिर वह अन्ना हजारे हों, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, एडमिरल राम दॉस या फिर कोई और। केजरीवाल को संदीप कुमार, जीतेन्द्र तोमर, असीम खान और सोमनाथ भारती जैसे लोगों की संगत रास आने लगी है। पिछले दो साल में अरविंद केजरीवाल ने बार बार साबित किया है कि वे दूसरे दलों के परम्परागत नेताओं से किसी मायने में भिन्न नहीं हैं। उन्हें अपने आसपास ऐसे लोगों का ही जमावड़ा चाहिए जो उनकी हां में हां मिला सकते हों।

केजरीवाल दिल्ली में चौतरफा घिर रहे हैं। दिल्ली के उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से अधिकारों की लड़ाई वे हाईकोर्ट में हार चुके हैं। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है। उनके इक्कीस विधायकों की विधानसभा सदस्यता लाभ के पद के कारण खतरे में है। चुनाव आयोग का ‘आप’ के खिलाफ फैसला दिल्ली में केजरीवाल को फंसा सकता है। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को इस समय केवल पंजाब दिख रहा है। पंजाब के लिए केजरीवाल दिल्ली छोड़ने को तैयार नजर आते हैं। लेकिन पंजाब में उन्हें घर के लोगों से ही चुनौती मिल रही है। राज्य में पार्टी का अब तक चेहरा रहे सुच्चा सिंह छोटेपुर अपमानित होकर पार्टी से बाहर हो चुके हैं। पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने मोर्चे आवाज-ए-पंजाब की घोषणा के साथ ही केजरीवाल की किरकिरी भी कर दी है। इसके अलावा पार्टी के दो सांसद धर्मवीर गांधी और हरिंदर सिंह खालसा भी केजरीवाल विरोधी खेमे में हैं। आम आदमी पार्टी से निकले हुए और दरवाजे से लौटे नेता ही पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रहे हैं। ये सब एक मंच पर आ गए तो केजरीवाल की राह और कठिन हो जाएगी। प्रत्येक पार्टी की अपनी एक विशेषता होती है। आम आदमी पार्टी ने प्रधानमंत्री और दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को गरियाने और हर समस्या के लिए जिम्मेदार ठहराने को अपनी विशिष्टता बना लिया है। अकाली दल भाजपा गठबंधन और कांग्रेस से ऊबे पंजाब के मतदाताओं की नजर पिछले डेढ़ साल से दिल्ली में केजरीवाल की सरकार पर है। पंजाब में आम आदमी पार्टी का राजनीतिक भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि इस मतदाता की नजर में मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल का कामकाज कैसा है। इस इम्तहान से बचने के लिए ही शायद उन्होंने चुनाव तक दिल्ली छोड़कर पंजाब में रहने का ऐलान किया है। माना कि मतदाता की याददाश्त कमजोर होती है पर इतनी भी नहीं।

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