उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति को आप किस तरह देखते हैं?

उत्तर प्रदेश पूरे देश की राजनीति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। पर यहां का दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय दलों के स्तर पर जो चीजें आमजनों की अपेक्षाओं के मुताबिक दिखना चाहिए वह पिछले कई वर्षों से नहीं दिख रहीं। इस कारण आज स्थिति गंभीर है। व्यक्ति जब आर्थिक और सामाजिक रूप से खुद को मुख्यधारा के साथ जुड़ा हुआ नहीं देखता है और कोई लीडरशिप उसका नेतृत्व करती हुई नजर नहीं आती है तो उसकी मजबूरी होती है कि वह सबसे पहले परिवार की तरफ फिर जाति की तरफ जाता है। यहां का एक बड़ा तबका इन चीजों से जुड़ा हुआ है। देश के दो बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार दुर्भाग्य से इसकी चपेट में हैं। फिलहाल उत्तर प्रदेश की जो स्थिति है वह स्पष्ट नहीं कही जा सकती है।

जब भी जाति आधारित चुनाव होते हैं भाजपा हारती है और आप कह रहे हैं कि यूपी और बिहार जातिवाद की चपेट में हैं?

हमें पब्लिक के टेस्ट को समझना होगा। उनकी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को भी जानना पड़ेगा। उनके साथ अपने आपको जोड़ना पड़ेगा। जब उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई देती है तब ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश या बिहार ने उन्हें समर्थन न दिया हो। लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी जी के रूप में आशा की किरण दिखी तो भाजपा को समर्थन मिला। जातीय दीवारों को तोड़ा। किसी भी अन्य वाद से उठकर लोगों ने राष्ट्र के हित में निर्णय लिया। लेकिन जब कहीं संभावना नहीं दिखेगी तो उसकी मजबूरी है। हम चुनाव के समय कुछ चिल्लाएं और शेष समय कुछ और करें, ये चीजें नहीं चलती हैं।

भाजपा जब भी जीतती है तो कोई न कोई लहर होती है। जैसे राम मंदिर की लहर, फिर मोदी लहर…

1991 से पहले उत्तर प्रदेश में भाजपा का ग्राफ देखिए। न के बराबर रहा है। यहां की जनता स्वाधीनता आंदोलन की अग्रणी पंक्ति को लीड करने वाली थी। उसके अंदर राष्ट्रीयता का भाव कूट-कूटकर भरा हुआ है। जब भी उसे कहीं आशा की किरण दिखती है तो वह खुलकर समर्थन करती है। जब उसको थोड़ा शक होता है तो वह दूसरा ठिकाना ढूंढने में देर नहीं करती।

लोकसभा चुनाव के बाद 16-17 महीनों का जो दौर है, क्या लगता है कि जो ज्वार था उसमें कोई कमी आई है या लोगों में निराशा की भावना आई है?

केंद्र सरकार ने बहुत अच्छा करने का प्रयास किया है। जितनी घोषणाएं हुई हैं और जितना काम जमीनी स्तर पर हुआ है, पहली बार जनधन योजना में आम गरीब का खाता खुला है। पहली बार एक गरीब आदमी भी यह संभावना देख रहा है कि एक समय सीमा के बाद मैं भी पेंशन ले लूंगा। वह भी एक रुपये रोज से 2 लाख रुपये का सुरक्षा बीमा ले सकता है। ठेला खोमचा, रेहड़ी लगाने वाले व्यक्ति के लिए भी संभावना बनी है कि वह प्रधानमंत्री मुद्रा योजना से लोन ले सकता है। विकास के लिए सरकार ने बेहतर काम किया है। लेकिन निचले स्तर तक उसका प्रचार प्रसार कितना हुआ है यह उस पर निर्भर करता है। 2014 में हम मोदी जी के नेतृत्व में आक्रामक भूमिका में थे। उसमें उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का कुशासन, केंद्र में कांग्रेस यूपीए के कुशासन से त्रस्त आम जनमानस आशा की किरण के रूप में मोदी जी को देख रहा था। आज उत्तर प्रदेश में भाजपा के 73 सांसद हैं। उनकी भूमिका और सक्रियता क्या है और केंद्र सरकार की योजनाओं को कितने हद तक निचले स्तर तक पहुंचाया गया है, यह फैक्टर भी इस चुनाव में रहेगा। अन्यथा एंटीइनकंबेंसी फैक्टर सिर्फ समाजवादी पार्टी के लिए ही नहीं बल्कि भाजपा के लिए भी रहेगा।

आप पूरे प्रदेश में घूमते रहते हैं, आपको लगता है कि उत्तर प्रदेश के सांसदों का परफार्मेंस पर्याप्त है?

देखिए, मैं इस पर बोलने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूं लेकिन जनता समय आने पर अपना निर्णय दे देती है।

बिहार के चुनाव में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करने का नुकसान भाजपा को हुआ है। क्या उत्तर प्रदेश में इस गलती को सुधारना चाहिए?

भाजपा का संसदीय बोर्ड इन सब मुद्दों पर व्यापक विचार विमर्श, चिंतन कर रहा होगा। पार्टी के हित में जो होगा, वह निर्णय अवश्य लेंगे।

पार्टी जो निर्णय लेगी वह लेगी लेकिन आपकी निजी राय क्या है? किसी को प्रोजेक्ट करना चाहिए या नहीं?

इस पर मेरी कोई निजी राय नहीं है। पार्टी के हित में जो होगा, संसदीय बोर्ड को वह निर्णय लेना चाहिए।

पार्टी अगर यह निर्णय करती है कि उत्तर प्रदेश में आपके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए तो…

देखिए, हमलोग कहीं किसी पद के लिए दावेदार नहीं हैं। न किसी एक पद प्राप्त करने की अभिलाषा के साथ राजनीति में आए हैं। कुछ मूल्यों, कुछ सुनिश्चित आदर्शों के लिए राजनीति को हमने सेवा के अवसर के रूप में स्वीकार किया है। पार्टी के लिए हमलोग कार्य करते हैं और करेंगे।

लेकिन पार्टी जिम्मेदारी देने का निर्णय करती है तो आप क्या करेंगे?

देखते हैं क्या स्थितियां बनती हैं। समय बताएगा। उत्तर प्रदेश में बहुत कम समय पार्टी के पास बचा है।

क्या हिंदुत्व भाजपा का चुनावी मुद्दा रहेगा?

देखिए, यह तो तय है। जब भी आप राष्ट्रवाद या हिंदुत्व से अलग हटे तो यूपी में कोई संभावना नहीं बनती है। यहां परिवारवाद है, जातिवाद है, क्षेत्रवाद है। इन सबसे उबरना है तो राष्ट्रवाद में ही इसका हल है। पता नहीं क्यों हिंदुत्व को विकास का विरोधी ठहराया जा रहा है। 1999 से मैं लगातार गोरखपुर से चुनाव लड़ रहा हूं। लगातार सांसद हूं। पहले मेरे गुरूजी सांसद थे। इससे पहले मेरे दादा गुरूजी सांसद थे। आज गोरखपुर पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे विकसित शहर के रूप में डेवलप हुआ है। जबकि हिंदुत्व हमारा प्रमुख मुद्दा था पर विकास में कोई कोताही नहीं बरती गई। गोरखपुर भी पहले वैसे ही था जैसे बस्ती है, फैजाबाद है, गोंडा है लेकिन आज गोरखपुर ने सारी संभावनाओं को अपने भीतर समेटा है क्योंकि हिंदुत्व के साथ लोगों ने विकास को जुड़ा हुआ देखा है। इसलिए हिंदुत्व और विकास को हम एक दूसरे का पूरक मानते हैं। लेकिन जानबूझ कर भ्रम की स्थिति पैदा की जाती है कि अगर हिंदुत्व के मुद्दे पर हम लड़ेंगे तो कहीं लोग हमें विकास विरोधी न ठहरा दें। हिंदुत्व के बगैर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कहीं कोई संभावना नहीं है। डिफेंसिव होंगे तो उसका नुकसान होगा। मुझे लगता है कि इस बारे में हमलोगों को बैठकर सोचना होगा कि हम दूसरों के द्वारा पैदा की गई समस्या को अपने सिर लेने की अनावश्यक चेष्टा क्यों करें। हमें आक्रामक रूप से इन मुद्दों पर कार्य करना होगा।

एक धारणा है कि भाजपा सांप्रदायिकता फैलाती है जिससे दंगे होते हैं?

दंगे कभी भाजपा सरकार के समय नहीं हुए। उत्तर प्रदेश के लिए स्वर्णकाल था, जब बीजेपी की सरकार थी। वो पीढी आज जवानी से आगे गुजर चुकी है जिसने कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह जी की सरकार देखी है। शासन की शुचिता और पारदर्शिता कैसी होनी चाहिए, उस सरकार के समय देखने को मिला था। एक आदर्श सरकार के रूप में 1991 में कल्याण सिंह की सरकार थी। एक भी दंगे नहीं हुए। विकास के मामले में किसी के साथ भेदभाव नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश के अंदर विकास ने एक नई रफ्तार पकड़ी थी। जबकि सपा सरकार के समय 400 से अधिक दंगे हो चुके हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के मुताबिक उत्तर प्रदेश में हत्या, अपहरण, बलात्कार की घटनाएं प्रतिदिन हो रही हैं।
हमारी कोई नीति सांप्रदायिक आधार पर नहीं है। हम भेदभाव किसी के साथ नहीं करेंगे पर तुष्टिकरण भी किसी का नहीं करेंगे। हमने ये कभी नहीं कहा कि कन्या विद्याधन देंगे लेकिन सिर्फ मुस्लिम कन्याओं को। हमने ये कभी नहीं कहा कि बाउंड्रीवाल के लिए पैसा दे रहे हैं तो सिर्फ कब्रिस्तान के लिए देंगे। हमारी नीति है कि सुंदरीकरण अगर होना है तो कब्रिस्तान का भी होगा और श्मशान का भी। अगर आपको अनुदान देना है तो सिर्फ मदरसों को ही क्यों देंगे, संस्कृत विद्यालयों को भी देंगे। लोकतंत्र में मैं सबसे बड़ा पाप मानता हूंअल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के आधार पर समाज को बांटना। इस देश के अंदर अल्पसंख्यक आयोग को भंग किया जाए, इसकी सिफारिश 1980 से 88 तक की अल्पसंख्यक आयोग की खुद की वार्षिक रिपोर्ट में की गई है। इसके प्रतिवेदन में कहा गया है कि अल्पसंख्यक आयोग लोकतंत्र के लिए खतरनाक प्रवृति है। इसको समाप्त किया जाए और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के तहत इसे शामिल किया जाए। बाद में 1992 में इसे संवैधानिक दर्जा दे दिया गया। भाजपा की नीति है भेदभाव किसी के साथ नहीं, तुष्टीकरण किसी का नहीं।

भेदभाव किसी के साथ नहीं, इसके बाद भी भाजपा की छवि सांप्रदायिक क्यों है?

ये हौव्वा खड़ा किया गया है। खासकर आजादी के बाद से जिस प्रकार की प्रवृति को देश के अंदर पनपाया गया है, सेक्युलरिज्म के नाम पर जिन मुद्दों को आगे बढ़ाया गया है, उसका परिणाम देश भुगत रहा है। जो जितना अधिक हिंदुओं का विरोध कर सके, जो जितना अधिक मुस्लिमों का तुष्टिकरण कर सके, वह उतना अधिक सेक्युलर मान लिया जाता है। भाजपा न हिंदुओं का विरोध करती है और न ही मुसलमानों का विरोध करती है।

उत्तर प्रदेश में अक्सर कहा जाता है कि भाजपा और समाजवादी पार्टी में मिलीभगत है?

दोनों में कभी दोस्ती नहीं हो सकती है। एक उत्तर है तो दूसरा दक्षिण। भाजपा नीतियों सिद्धांतों वाली पार्टी है जबकि समाजवादी पार्टी का न तो कोई मूल्य है और न ही आदर्श। मुझे तो उसे समाजवादी कहने में भी संकोच होता है। लोहिया जी की आत्मा उस पार्टी के कृत्यों को देखकर रो रही होगी क्योंकि यह समाजवाद नहीं बल्कि परिवारवाद को पुष्ट करने वाली पार्टी है। इसे नौकरियों में, सरकार में और प्रशासन में देख सकते हैं। उत्तर प्रदेश की सरकर समाजवाद के नाम पर मजाक है। केंद्र में जो भी सरकार होगी, सपा उसके पास आने का प्रयास करेगी ताकि यादव सिंह जैसे कुकृत्यों को ढंका जा सके।