अजय विद्युत।

शुरू से वामपंथी दबदबे वाले जेएनयू के छात्र संघ चुनाव में फिर से वामपंथी उम्मीदवारों की जीत को लेकर मीडिया में ऐसा माहौल बना दिया गया है मानो वह अगले साल देश से मोदी सरकार की विदाई का गीत हो। टीवी चैनल के एंकर सुधीर चौधरी सोशल मीडिया पर लिखते हैं, ‘जेएनयू छात्र संघ के चुनाव के बारे में अखबारों ने ऐसा लिखा है जैसे विश्वविद्यालय का नहीं बल्कि देश का चुनाव हो और उसमें नया प्रधानमंत्री चुना गया हो। इस देश में और भी विश्वविद्यालय हैं, लेकिन उनके चुनाव नहीं छपते। आज के अखबार पढ़कर लगा देश में लेफ़्ट की सरकार आ गयी।’

जेएनयू के छात्र संघ चुनाव में संयुक्त वाम प्रत्याशियों ने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव चारों महत्वपूर्ण पदों पर कामयाबी हासिल की जिसे लेकर देश भर के वामदलों में भरपूर उत्साह छाया हुआ है। ‘जब देश ने वामपंथ को ठुकरा दिया तो जेएनयू ही इसे पनाह दिए हुए है’ यह कहना है राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर अपूर्वानंद का। एक छात्रसंघ चुनाव की बिना पर किस हद तक राजनीतिक ख्याली पुलाव पकाए जा सकते हैं इसकी बानगी है अपूर्वानंद की यह टिप्पणी, ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) एक बार फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ में जगह बनाने में नाकाम रही है। मीडिया के लिए यह खबर किसी विधानसभा चुनाव से कम महत्व की नहीं थी।’

विशेष बात यह नहीं है कि मीडिया में जेएनयू छात्रसंघ चुनाव को इतनी प्रमुखता क्यों मिली। असल बात है कि जिस विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव ने पिछले पांच आम चुनावों के माहौल का सटीक आकलन किया और उसके अनुरूप ही केंद्र में सरकार बनी, उस दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) छात्र संघ चुनाव को मीडिया ने खास नोटिस नहीं लिया।

छात्रों की संख्या के आधार पर देखें तो जेएनयू में 8,432 स्टूडेंट्स हैं जबकि डीयू में एक लाख 32 हजार रेगुलर और दो लाख 61 हजार नॉन फॉर्मल स्टूडेंट्स हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में मुख्य टक्कर भाजपा की छात्र इकाई एआईबीपी और कांग्रेस की छात्र इकाई नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन आफ इंडिया (एनएसयूआई) के बीच होती रही है। संयोग से डीयू छात्र संघ चुनावों और लोकसभा चुनावों के बीच एक रिश्ता सा बन गया है। 1997, 1998, 2003, 2008 और 2013 में हुए डीयू छात्र संघ चुनावों में जो दल जीता, जब एक साल के भीतर लोकसभा चुनाव हुए तो उनमें वही परिणाम दोहराए गए। डीयू में 2013 की ही स्थिति इस बात भी बन गई है। चार में से तीन प्रमुख पदों अध्यक्ष उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव पर एबीवीपी उम्मीदवार विजयी रहे हैं जबकि सचिव पद पर एनएसयूआई का प्रत्याशी जीता। 2013 में भी अध्यक्ष उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव पदों पर एबीवीपी जीती थी और 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बनी। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी समेत एनडीए ने लोकसभा की 543 में से 325 सीटें जीत लीं। अकेले भाजपा ने ही 282 सीटें जीतीं थीं जो बहुमत के आंकड़े 272 से दस अधिक था।

1997 के डीयू छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी ने अध्यक्ष उपाध्यक्ष, सचिव और संयुक्त सचिव चारों पदों पर अपना परचम लहराया था। 1998 लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए सत्ता में आया। इसी तरह 1998 के डीयू छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष और महासचिव के दो अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण पद एबीवीपी ने जीते थे जबकि उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव पदों पर एनएसयूआई विजयी रही थी। और अगले साल हुए लोकसभा चुनावो में फिर से एनडीए की सरकार बनी।

वहीं 2003 में डीयू छात्र संघ चुनाव में चारों महत्वपूर्ण पदों पर एनएसयूआई को कामयाबी मिली और 2004 में हुए लोकसभा चुनावों में वाजपेयी सरकार की हार हुई और कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए ने सरकार बनाई।

2008 में हुआ डीयू छात्र संघ का चुनाव काफी दिलचस्प रहा। अध्यक्ष पद पर एबीवीपी का प्रत्याशी विजयी रहा लेकिन बाकी तीन अन्य महत्वपूर्ण पदों उपाध्यक्ष, महासचिव और संयुक्त सचिव पर उसकी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी एनएसयूआई के प्रत्याशियों को सफलता मिली। 2009 में हुए लोकसभा चुनावों में यही परिणाम परिलक्षित हुआ और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पुन: कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने सरकार बनाई।

ऐसे आरोप समय समय पर उछलते रहे हैं कि मीडिया अपने खास चश्मे से चीजों को देखता है।  मीडिया में जेएनयू छात्र संघ चुनाव नतीजों की अतिरंजित राजनीतिक व्याख्या और डीयू छात्रसंघ नतीजों पर सोची समझी उदासीनता देखते हुए इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।