raam mandir

देश के करोड़ों हिंदुओं के लिए यह एक मुख्य मुद्दा है. इसकी चर्चा घर-घर हो रही है. मीडिया में भी लगातार बहस हो रही है. इस मामले की वजह से सामाजिक सौहाद्र्र बिगडऩे का खतरा बना हुआ है. राजनीति भी जमकर हो रही है.

राम जन्मभूमि विवाद पर 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. लोगों को उम्मीद थी कि राम मंदिर पर फैसले की टाइम लाइन मिल जाएगी, सालों से चले आ रहे इस विवाद को खत्म करने का रास्ता तैयार होगा. लेकिन अदालत की कार्रवाई शुरू होते ही नई तारीख दे दी गई और मामले को 29 जनवरी तक टाल दिया गया. अब फिर से पांच जजों की नई बेंच का गठन किया जाएगा. 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने मामले की जैसे ही सुनवाई शुरू की, वैसे ही मुस्लिम पक्ष की ओर से अदालत में पेश हुए राजीव धवन ने बड़ी चतुराई से एक विवाद खड़ा कर दिया. उन्होंने बेंच में शामिल जस्टिस यूयू ललित के बारे में ऐसी जानकारी दी, जिसका इस मामले से सीधे तौर पर तो ताल्लुक नहीं था. लेकिन, उन्हें पता था कि जस्टिस यूयू ललित जैसे ईमानदार अपराईट जज फौरन खुद को इस बेंच से अलग कर लेंगे. दरअसल, साल 1994 में जस्टिस ललित एक अन्य मामले में बतौर अधिवक्ता कल्याण सिंह की ओर से अदालत में पेश हुए थे. राजीव धवन ने कहा, कोई सवाल नहीं उठा रहा हूं, बस कोर्ट की निगाह में इस बात को रखना चाहता हूं. राजीव धवन की आपत्ति के बाद जस्टिस ललित ने खुद को इस मामले से अलग कर लिया. मुस्लिम पक्ष एक बार फिर मामले को टालने में सफल हो गया.

देश के करोड़ों हिंदुओं के लिए यह एक मुख्य मुद्दा है. इसकी चर्चा घर-घर हो रही है. मीडिया में भी लगातार बहस हो रही है. इस मामले की वजह से सामाजिक सौहाद्र्र बिगडऩे का खतरा बना हुआ है. राजनीति भी जमकर हो रही है. मुस्लिम पक्ष के वकील रहे कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल ने सुनवाई की शुरुआत में ही अपनी मंशा उस समय साफ कर दी थी, जब उन्होंने अदालत से यह गुजारिश की कि किसी भी तरह इस विवाद पर फैसला लोकसभा चुनाव 2019 के बाद आए. नोट करने वाली बात यह है कि चार अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि 11 अगस्त 2017 से इस मामले की रोजाना सुनवाई होगी. सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच रोजाना दोपहर दो बजे से सुनवाई करेगी.

रोजाना सुनवाई तो दूर, यह मामला भी अन्य मामलों की भांति कोर्ट रूम के दांवपेंच में फंस गया. अदालत ने मामले को जल्द से जल्द निपटाने की बजाय एक अव्यवहारिक प्रस्ताव दे दिया. अदालत ने इसे धर्म और आस्था से जुड़ा मामला बताते हुए संबंधित पक्षकारों से आपसी बातचीत के जरिये इसका हल निकालने को कहा था. अदालत ने यह भी कहा था कि अगर जरूरत पड़ी, तो वह मध्यस्थता कर सकती है. सवाल यह है कि अगर हिंदू और मुस्लिम पक्ष आपस में ही मामले को सुलझाने की स्थिति में होते, तो वे अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाते? इससे तो यही लगता है कि अदालत इस मामले पर कुछ भी फैसला देने से बच रही है. शायद वह चाहती है कि सरकार ही इसका हल निकाले, सरकार ही कानून बनाकर राम मंदिर पर अगली कार्रवाई करे. यह विवाद अगर सिर्फ जमीन का होता, तो शायद कोई रास्ता निकल भी सकता था. लेकिन, यह मामला तो आस्था से जुड़ा है, हिंदुस्तान की सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ा है. और तो और, यह राजनीति का भी एक अहम हिस्सा है. यही वजह है कि अदालत के साथ-साथ सरकार भी इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है.

इसमें कोई शक नहीं है कि आगामी लोकसभा चुनाव में राम मंदिर का मुद्दा अहम रोल अदा करने वाला है. दरअसल, यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि देश में लोकसभा चुनाव 2019 के बाद किस पार्टी की सरकार होगी, यह तय करने की क्षमता इसी मुद्दे में है. भारतीय जनता पार्टी पर इस विवाद पर पहल करने का काफी दबाव है. वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही तय करेगी कि उसे क्या कदम उठाना है. सरकार का यह दायित्व भी है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में राम मंदिर बनाने का वादा किया था. बड़ी संख्या में लोगों ने इसी मुद्दे पर भाजपा को वोट दिया था. यही वजह है कि हिंदूवादी संगठन एवं भाजपा समर्थक भी मोदी सरकार पर लगातार अध्यादेश लाने का दबाव बना रहे हैं.

वहीं विपक्ष भी सरकार से मंदिर कब बनेगा, किस तारीख से निर्माण कार्य शुरू होगा, जैसे सवाल पूछता है. प्रधानमंत्री मोदी कोई फैसला नहीं ले पा रहे हैं, अदालत में हर बार कुछ न कुछ अड़ंगा लग जाता है और सुनवाई टल जाती है. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को आए आठ साल बीत चुके हैं. और, अब तक यह भी तय नहीं हो पाया है कि इसे सुनने वाली बेंच में कौन-कौन जज शामिल होंगे?  अदालत ने पहले यह कहा था कि जनवरी 2019 में तय होगा कि कौन- कौन जज इस मामले को सुनेंगे, सुनवाई कैसे होगी? सुनवाई हर दिन होगी या तारीख भी लगेगी? यह सब 10 जनवरी को तय होना था, लेकिन जस्टिस ललित पर आरोप लगाकर मुस्लिम पक्ष ने इसे अधर में लटका दिया है.

समझने वाली बात यह है कि यह एक रिव्यू पिटीशन है. साल 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट इस मामले में अपना फैसला सुना चुकी है. यह तय हो चुका है कि जिस जगह पर विवादित ढांचा था, वहीं श्रीराम का जन्म हुआ था. विवादित भूमि को राम जन्मभूमि घोषित किया जा चुका है. हाईकोर्ट ने उक्त भूमि हिंदू पक्षकारों को सौंपने का आदेश देते हुए यह भी कहा था कि वहां से रामलला की मूर्तियां नहीं हटाई जाएंगी. अदालत ने कहा, चूंकि सीता रसोई और राम चबूतरा आदि कुछ हिस्सों पर निर्मोही अखाड़े का कब्जा रहा है, इसलिए उक्त हिस्सा उसके पास ही रहेगा. कुछ हिस्से में मुसलमान नमाज अदा करते रहे हैं, इसलिए विवादित भूमि का एक तिहाई हिस्सा उन्हें दे दिया जाए. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा है. अब न तो तफ्तीश होनी है, न किसी एसआईटी का गठन होना है और न कोई कमेटी बननी है. सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ और सिर्फ यह परखना है कि हाईकोर्ट ने जिस आधार पर यह फैसला दिया, वह विधिसम्मत है या नहीं. लेकिन पता नहीं, क्यों यह मामला आठ साल से घसीटा जा रहा है. मामले को टालने की कोई साजिश हो रही है या फिर यह मान लिया जाए कि देश में अदालत का काम करने का तरीका यही है.

राम जन्मभूमि विवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि मुस्लिम पक्ष शुरू से दावा करता रहा कि जिस भूमि पर विवादित ढांचा था, वहां कभी कोई मंदिर था ही नहीं. न कोई मंदिर तोड़ा गया और न वहां श्रीराम के जन्म के प्रमाण हैं. वैसे भी सेकुलर पार्टियां श्रीराम को एक मिथक मानते रही हैं. यूपीए सरकार ने रामसेतु के मामले में अदालत में हलफनामा देकर कहा था कि राम एक मिथक हैं, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है. इतना ही नहीं, राम जन्मभूमि विवाद में साल 1995 में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने हलफनामा दिया था कि अगर विवादित ढांचे के नीचे मंदिर के निशान मिले, तो वह अपना दावा वापस ले लेगी. इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ढांचे के नीचे खुदाई करने के आदेश दिए. हिंदू एवं मुस्लिम पक्ष, दोनों की मौजूदगी में खुदाई हुई और जमीन के अंदर से सिर्फ और सिर्फ राम जन्मभूमि मंदिर के अवशेष मिले. खुदाई करने वाले दल में मुसलमान भी शामिल थे.

एएसआई के जाने-माने आर्कियोलॉजिस्ट केके मुहम्मद ने भी प्रामाणिक रूप से यह दावा किया है कि विवादित ढांचा मंदिर को तोडकऱ उसके मलबे पर बनाया गया था. अच्छा तो यह होता कि खुदाई में सुबूत मिलने के बाद मुस्लिम पक्ष विवादित जमीन से अपना दावा वापस ले लेता. मामला खत्म हो गया होता. लेकिन, सेकुलरिज्म की दुहाई देने वाले नेताओं, इतिहासकारों एवं सिविल सोसाइटी के लोगों ने इस मामले को जिंदा रखा. इसलिए, अदालत का रोल अहम है. मामले को टालने की कोई वजह नजर नहीं आती. इससे सरकार के साथ-साथ न्यायपालिका की भी साख पर आंच आएगी. जनता में संस्थानों के प्रति अविश्वास पैदा होगा. सवाल यह है कि अगर अदालत एक आतंकवादी के लिए रात में खुल सकती है, तीस्ता शीतलवाड़ को फोन पर जमानत मिल सकती है और आधार, तीन तलाक व सबरीमाला जैसे मामले साल-दो साल में निपटाए जा सकते हैं, तो करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा राम जन्मभूमि मामला आठ साल से क्यों लटकाया जा रहा है?