मिथिलेश

नई दिल्ली।  अस्सी के दशक की जाती हुई सर्दियों के दिन थे। तब अपना ठिकाना जबलपुर हुआ करता था। नौकरी के नाम पर था हितवाद अखबार जो कुछ ही दिनों बाद ज्ञानयुग हो गया। टीम के सहयोगी थे- हरि भटनागर, दिनेश जुयाल, नंदकिशोर, लक्ष्मण सिंह भंडारी, टिल्लन रिछारिया, अरविंद उप्रेती, राजेश नायक। उस जमाने के लिहाज से हिंदी पत्रकारिता में आए बहुत बेनाम से चेहरे जो बाद के दौर में अपनी- अपनी कोटर के  सितारे हिंद बने। यही वह दौर था जब कथाकार ज्ञानरंजन की पहल परवान चढ़ रही थी। ज्ञानरंजन को ऐसे नौजवान चेहरों की तलाश थी जिनमें आदमी को आदमी और गदहे को गदहा कहने का साहस हो। हम उनकी टीम में शामिल हो गए। हिंदी पत्रकारिता अपनी जगह और ज्ञान जी और सुनयना भाभी अपनी जगह। ज्ञान जी जब कभी हमारे दफ्तर आते,  हम उनके साथ फुर्र। काम बाद में होता रहेगा, यह सोचकर या किसी के सुपुर्द कर। तब हमारा पता होता था- 763, अग्रवाल कालोनी जबलपुर। आवारगी के उसी दौर में पहल के अंक उलटते- पुलटते हम एक कविता से जा भिड़े। यह कविता थी- राम सिंह। कवि थे वीरेन डंगवाल।

कविता ने जितना प्रभावित किया, उससे ज्यादा गुस्से में भर दिया। वजह थी नेपाली कवि मोदनाथ पाश्रित की  नेपाली बहादुर, जो राम सिंह के काफी पहले छप चुकी थी। मिजाज, कंटेंट, सरजमीन, चिंता- किसी भी लिहाज से राम सिंह को पढ़ना नेपाली बहादुर के रूबरू होना था।  दूसरे दिन हमने एसटीडी फोन मिलाया। बरेली को। बगैर यह सोचे कि सामने वाला हमारी चिंता पर किस तरह रिएक्ट करेगा। हमारा सवाल था- राम सिंह और नेपाली बहादुर के कंटेंट और क्राफ्ट में क्या बुनियादी फर्क है? अगर दोनों का कंटेंट एक है तो फिर यह कविता लिखने की जरूरत क्यों पड़ी, खास तौर पर तब नेपाली बहादुर छप चुकी थी? जो जवाब मिला, वह नायाब था। जवाब था- अगर बाल्मीकि रामायण लिख चुके थे तो फिर तुलसीदास को क्या जरूरत थी रामचरित मानस लिखने की? अगर इस महादेश में भयानक गरीबी है तो क्या गरीबी पर कवियों को कविताएं नहीं लिखनी चाहिए? यह हमारी पहली मुठभेड़ थी एक कवि से जो बाद में एक स्थापित पत्रकार बना और जिसने हिन्दी पत्रकारिता को एक अलग किस्म की जुबान और एक अलग तरह के स्वाद से रूबरू कराया।

वह वीरेन दा अब नहीं हैं, यह सुनना किसी भी लिहाज से भरोसेमंद नहीं लगता लेकिन दिनेश जुयाल ने पोस्ट डाला है  तो झूठ थोड़े ही डाला होगा। जुयाल झूठ नहीं बोलेगा- तीस साल से भी ज्यादा पुराने अपने इस दोस्त से तो हरगिज नहीं। मानना ही होगा कि वीरेन डंगवाल नहीं हैं। उन्हें कैंसर ने निगल लिया। हैरत इस बात की नहीं है कि मौत जीत  गई और वीरेन डंगवाल हार गए। हैरत इस बात पर है कि ‘जगह मिलने पर पास देंगे’ वाले अंदाज  में बड़ी से बड़ी मुश्किल को किनारे लगा देने  वाले इस जांबाज के घर की सांकल खटखटाने का मौत ने साहस कैसे किया होगा?

वीरेन डंगवाल धूमिल और राजकमल चौधरी के फौरन बाद वाली पीढ़ी के कवि थे। उस पीढ़ी के जिसने नक्सलवादी उभार के ताप, उसकी धमक, उसके खिलाफ चलाए गए बर्बर दमनचक्र और इन सबके बीच उसके अनहद विस्तार को न सिर्फ देखा बल्कि उसे अपनी कविता की केंद्रीय चिंता में भी रखा। यकीनन यह पीढ़ी अपने पूर्ववर्तियों से ज्यादा सलाहियतपसंद थी क्योंकि उसके पास एक विराट और कभी खत्म न होने वाली लड़ाई की विरासत रही।

वीरेन डंगवाल की एक कविता है तोप।  कोर्स में भी पढ़ाई जाती है। इलाहाबाद के कंपनीबाग (जो अब चंद्रशेखर आजाद पार्क है) में रखी है यह जंगआलूदा  तोप और चिड़ियों का एक झुंड उस पर खेल रहा है। चिड़ियां कभी उसके मुंह पर कूदती हैं तो कभी उसकी नाल पर। कवि की चिंता यह कूदफांद नहीं है और न कंपनीबाग है। उसकी चिंता यह भरोसा है कि तोप चाहे जैसी भी हो, उसके मुंह को एक न एक दिन बंद जरूर होना है। कविता में जब तक इस किस्म के भरोसे हैं- यकीन मानिए, वीरेन डंगवाल कहीं न कहीं आपके पास हैं।