राजीव थपलियाल

‘पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती’ कहावत सामाजिक चिंतकों और राजनीतिज्ञों की जुबानी अक्सर उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों से होते पलायन पर चिंता जताते सुना जाना आम है। इस कहावत की सच्चाई पर कोई शक नहीं है। वाकई पहाड़ी गांवों में रहना बेहद कठिन है। पलायन को लेकर जो भी परिभाषाएं गढ़ी जाती हों, लेकिन हकीकत में इसी कठिन जीवन से मुक्ति का नाम है पलायन।

पलायन से हो रहे नफा-नुकसान की चिंताओं के बीच पहाड़ के गांवों की हकीकत जानने निकलें तो पाएंगे कि जिम्मेदार लोगों की चिंता नकली है। यदि चिंता असली होती तो खाली होते पहाड़ पर ऐसे लोग खुद घर बनाकर रह रहे होते, न कि सुविधा संपन्न शहरों में रहकर मात्र सेमीनारी चिंतन-मनन तक सीमित रहते। उत्तराखंड की वास्तविकता यह है कि राज्य गठन के बाद इन 15 सालों में तीन हजार पहाड़ी गांवों से लगभग 40 फीसदी पलायन हुआ है। हालांकि, विकास के नाम पर इन सालों में पर्वतीय क्षेत्रों में लगभग 15 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। इसके बावजूद गांवों का खाली होना थम नहीं सका है।

sushil-kumar-AD-statics-departmentउत्तराखंड के गांवों में विकास के कारण पलायन थमा है। हां, पहाड़ी इलाकों में मैदानों की अपेक्षा गांवों के गैर आबाद होने की संख्या अपेक्षाकृत जरूर ज्यादा है।

– सुशील कुमार, अपर निदेशक, राज्य अर्थ एवं संख्या विभग

हाल ही में ‘गांव बचाओ यात्रा’ से लौटे हिमालयन यूनिटी मिशन से जुड़े जेपी मैठाणी के मुताबिक पर्वतीय गांवों में कर्मचारी और ग्रामीण दृष्टिकोण की बजाय एकतरफा विकास का फंडा पलायन का मुख्य कारण है। मैठाणी कहते हैं कि गांवों के विकास के नाम पर सड़कें बनाई जा रही हैं लेकिन इन सड़कों का मलबा कहां गिर रहा है, उससे क्या नुकसान हो रहे हैं, इसका ख्याल नहीं रखा जाता। स्कूल-अस्पताल की बिल्डिंग बना दी जाती हैं लेकिन वहां कर्मचारी-अधिकारी रहकर काम कर सकें, इसके लिए माकूल माहौल बनाने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

yashpal-Aryaउत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों को विकसित करने की अभी और आवश्यकता महसूस हो रही है जिसके लिए प्रयास हो रहे हैं। पलायन रोकने के लिए स्वावलंबन और रोजगारपरक शिक्षा अति आवश्यक है।

– यशपाल आर्य, राजस्व मंत्री, उत्तराखंड

हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर में समाजशास्त्र की प्रोफेसर डॉ. किरन डंगवाल ‘पुश एंड पुल’ थ्योरी का जिक्र करते हुए मैठाणी की बात का समर्थन करती हैं। वे कहती हैं कि समाज का स्वभव बेहतर सुविधाओं की ओर गमन का होता है। आजीविका, सुख-सुविधा और शिक्षा-स्वास्थ्य-यातायात की उपलब्धता के लिए समाज में पलायन की प्रवृत्ति पाई जाती है। यही पहाड़ी गांवों में भी हो रहा है। मगर रिटायर्ड खंड विकास अधिकारी केके थपलियाल सुख-सुविधाओं में कमी को ही पलायन का कारण नहीं मानते हैं। उनके मुताबिक गांवों में लड़ाई-झगडे भी अक्सर पलायन का कारण बनते हैं। भई-भई के बीच भी खेत-मकान-रास्ते के झगड़े कई बार इतने आगे बढ़ जाते हैं कि सक्षम व्यक्ति रोज की झकझक से मुक्ति पाने के लिए गांव को अलविदा कह देता है। वे बताते हैं कि पौड़ी जिले में स्थित उनका गांव खेती के लिहाज से सुविधा संपन्न है। पढ़ाई के लिए जरूर तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता है लेकिन यह कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। गांव के नीचे पश्चिमी नयार बहती है तो एक ओर पानी से लबालब गधेरा उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। इसके बावजूद उन्हें गांव छोड़ना पड़ा। कारण, गांव में होने वाले झगड़े। वे बताते हैं कि एक-एक कर पूरा गांव सिर्फ इन्हीं झगड़ों के कारण पलायन कर गया।

जिलावार खाली घर

जिला           संख्या       जिला       संख्या       जिला          संख्या

अल्मोड़ा       36401     पौड़ी         35654     टिहरी          33689

पिथौरागढ़    22936     देहरादून   20625     चमौली        18535

हरिद्वार       18437     नैनीताल   15075     उत्तरकाशी     11710

चंपावत         11281      रुद्रप्रयाग  10971      बागेश्वर       10073

ऊधमसिंहनगर   11438

(2011 की जनगणना के मुताबिक)

मनोविज्ञानी डॉ. पवन सैनी भी गांव में होने वाले आपसी झगड़ों को पलायन का एक बड़ा कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि आरामतलबी, काम न करने की प्रवृत्ति के अलावा मेहनत के अपेक्षाकृत कम फसली उत्पादन भी लोगों को गांव छोड़ने के लिए विवश करता है। हालांकि, इस पलायन के दंश के बीच कुछ ऐसे भी लोग हैं जो तमाम दिक्कतों के बावजूद वापस गांव में बसने का सपना लिए हुए हैं। इन्हीं में हैं डॉ. श्रीकांत चंदोला। आईएफएस अधिकारी चंदोला इसी साल 31 अक्टूबर को वन विभग के मुखिया पद से रिटायर हुए हैं। रिटायमेंट से पूर्व ही उन्होंने गांव में जाने की योजना बनाते हुए पुरखों के घर का जीर्णोद्धार कराया। हर तरह से सक्षम होने के बावजूद उनका गांव की ओर रुख करना अचभित जरूर करता है। शायद पौड़ी की आबोहवा उन्हें लुभा रही हो।

डॉ. चंदोला की तरह ही सॉफ्टवेयर इंजीनियर दुर्गपाल सिंह चैहान भी रिवर्स माइग्रेशन का एक बड़ा उदाहरण हैं। दुर्गपाल सिंह दिल्ली से कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद रोजगार के लिए ब्रिटेन जा पहुंचे। ब्रिटेन में बेहतरीन पगार के साथ ही सॉफ्टवेयर इंजीनियर लड़की से उन्होंने शादी की और बच्चों के साथ उन्हें ब्रिटेन की नागरिकता का तोहफा भी मिला। सबकुछ पाने के बावजूद दुर्गपाल का मन अपनी जड़ों की तलाश में अपने गांव में आ बसा। ब्रिटेन की नागरिकता को ठोकर मारकर वे रूद्रप्रयाग स्थित अपने गांव में आ बसे। मगर यहां के कठिन जीवन में ब्रिटेन की आदी उनकी पत्नी और बच्चा एडजस्ट नहीं हो पाए तो देहरादून में उन्हें घर लेना पड़ा। दुर्गपाल और उनकी पत्नी अब देहरादून से ही अपनी सॉफ्टवेयर कंपनी चला रहे हैं।

करोड़ों खर्च, नतीजा सिफर

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में ढाई लाख से अधिक घरों पर ताले लटके हैं। गांव वीरान हो रहे हैं और खेत-खलिहान बंजर। हिमालयन यूनिटी मिशन से जुड़े लोगों के मुताबिक पिछले 15 सालों में पंचवर्षीय योजनाओं के तहत वर्ष 2014 तक उत्तराखंड में विभिन्न विकास कार्यों पर 50 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। इसमें से 15 हजार करोड़ रुपये पहाड़ों के नाम पर बहाए गए। अनियोजित विकास और विषम परिस्थितियों की अनदेखी के कारण पहाड़ी गांवों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। सूबे के विकास का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि करीब 5000 गांव आज भी सड़क से वंचित हैं। यही हाल अन्य मूलभूत सुविधाओं के विस्तार और रोजगार के अवसर जुटाने का है। यही कारण है कि सूबे में करीब 3000 गांव पलायन से खाली हो चुके हैं। हालांकि सरकारी आंकड़ों में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार गैर आबाद गांवों की संख्या मात्र 1048 ही है। राज्य अर्थ एवं संख्या विभग के अपर निदेशक सुशील कुमार के अनुसार सूबे में विकास के कारण वर्ष 2001 की अपेक्षा वर्ष 2011 में खाली गांवों की संख्या में 17 की कमी आई है। जहां वर्ष 2001 में राज्य में 1065 गांव खाली थे, वहीं वर्ष 2011 में इनकी गिनती घटकर 1048 हो गई। लेकिन यही आंकड़े यह भी बताते हैं कि पहाड़ों में जहां जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग किमी 41 तक सिमटा है, वहीं मैदानों में सुविधाओं के कारण 801 तक है।

दुर्गपाल अपने जीवन को पलायन के चार हिस्सों में परिभाषित करते हैं। पहला, उनके पिता गांव छोड़कर दिल्ली गए। दूसरा, दुर्गपाल दिल्ली से पढ़ाई के बाद विदेश चले गए। तीसरा, रुपया-इज्जत कमाने के साथ गांव लौटे और अंत में गांव की दिक्कतों से परेशान बीवी-बच्चे के साथ देहरादून आकर बस गए। दुर्गपाल इस पलायन को कम सुविधाजनक स्थान से अधिक सुविधाजनक स्थान की तलाश के फायदे के साथ जोड़ते हैं। साथ ही वे मन की तसल्ली का संबंध भी पलायन से मानते हैं।

इसी तसल्ली की बात से इत्तेफाक उद्योगपति रमाकांत धनपुरी भी रखते हैं। उत्तराखंड में जन्में रमाकांत पंजाब के लुधियाना में हौजरी इंडस्ट्री से ताल्लुक रखते हैं। रमाकांत कहते हैं कि उत्तराखंड में पलायन का रूप बदला है। पहले यह पलायन बड़े स्तर का था। पहले लोग रोजगार और सुविधाओं की तलाश में दिल्ली या किसी अन्य बड़े शहर की ओर रुख करते थे। लेकिन अब यह पलायन छोटे स्तर पर नजर आता है। रमाकांत कहते हैं कि इसी बदले पलायन के कारण पर्वतीय कस्बों का आकार लगातार बढ़ता नजर आ रहा है। यदि गांव खाली हो रहे हैं तो उनके निकटवर्ती कस्बे बड़े हो रहे हैं। जहां जिसको फायदा दिखता है, वहां चला जाता है। उनको पंजाब में फायदा दिखा तो वे वहां चले गए। आगे अगर उन्हें उत्तराखंड में शिक्षा, यातायात, स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ ही रोजगार-कारोबार का फायदा मिलेगा तो वे शायद उधर की ओर जाने का विचार कर सकते हैं।

फायदे के हिसाब से रमाकांत धनपुरी की पलायन की बात सही मानी जा सकती है। असुविधाजनक गांव से सुविधाजनक कस्बे या शहर में पलायन करना फायदा ही तो है। यह फायदा शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, पेयजल जैसी सुविधाओं को पाने का है। कोई भी नुकसान के लिए पलायन नहीं करता। इस फायदे को सामाजिक कार्यकर्ता मृणाल धूलिया बड़े आसान शब्दों में समझाते हैं कि पलायन पर भषण देकर चिंता जताने वालों का अपना फायदा है तो पलायन के नाम पर विकास के बहाने पैसा खर्च करने वाले सरकारी तंत्र का अपना फायदा। अंतत: पैतृक घर-गांव छोड़कर किसी शहर में बसने वाले पलायनकर्ता का अपना फायदा और पलायनकर्ता को बसने के लिए जमीन-घर की सुविधा देने वाले का अपना फायदा। कुल मिलाकर पलायन फायदे का ही गणित है।