गुलाम चिश्ती/ सदन मोहन महाराज

आखिरकार सरकार, प्रशासन, मीडिया और आम लोगों की बेरुखी ने देश-विदेश में आयरन लेडी के नाम से चर्चित मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला को अपना फैसला बदलने को बाध्य कर ही दिया। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) को हटाने की मांग को लेकर लगातार 16 साल से अनशन कर रही शर्मिला ने 26 जुलाई को घोषणा की कि वह नौ अगस्त को अपना अनशन समाप्त कर देंगी और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी। अगले वर्ष 17 फरवरी से पहले होने वाले मणिपुर विधानसभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस, भाजपा व अन्य स्थानीय पार्टियां शर्मिला को अपनी-अपनी पार्टी में लाने की लगातार कोशिश कर रही हैं। मगर उन्होंने किसी पार्टी में जाने या किसी विचारधारा को अपनाने से बेहतर निर्दलीय चुनाव लड़ना तय किया है।

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भवानंद सिंह ने ओपिनियन पोस्ट से बातचीत में स्वीकार किया कि उन्होंने शर्मिला को भाजपा में लाने की पूरी कोशिश की मगर उन्होंने इससे इनकार कर दिया। उनके मुताबिक, ‘सिर्फ भाजपा ने ही नहीं, सभी पार्टियों ने उन्हें अपने साथ जुड़ने का आॅफर दिया था। उनका कहना है कि असम विधानसभा चुनाव के बाद मणिपुर में भाजपा का जनाधार बढ़ा है। पार्टी कैडरों की संख्या में वृद्धि हुई है। फिलहाल भाजपा के प्रदेश में दो विधायक हैं मगर अगले चुनाव में भाजपा यहां सरकार बनाने के करीब होगी। यदि शर्मिला भाजपा में आ जातीं तो भाजपा को और मजबूती मिलती। फिर भी, हम उनके फैसले का सम्मान करते हैं और राजनीति में आने का स्वागत करते हैं।’ प्रदेश कांग्रेस सहित राज्य की अन्य छोटी-बड़ी पार्टियों ने उनके राजनीति में आने का स्वागत किया है।

अपने इस फैसले पर शर्मिला कहती हैं, ‘फिलवक्त वह सरकार, मीडिया और आम लोगों से काफी निराश हैं जो उनके आंदोलन को समुचित महत्व नहीं दे रहे। मगर इसका कतई मतलब नहीं है कि मैंने अपना आंदोलन छोड़ दिया। मरते दम तक अफस्पा को हटाने की मेरी मांग जारी रहेगी। हां, मैंने तरीका जरूर बदल दिया है। अब मैं संसदीय लोकतंत्र का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ूंगी और अपनी मांग को सदन से सड़क तक उठाऊंगी।’ ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इरोम शर्मिला अपना मकसद हासिल करने में नाकाम रहीं। जानकार कहते हैं कि इरोम की भूख हड़ताल जितना असर छोड़ सकती थी, उतना वह कर चुकी हंै। उनका अनशन पर बैठे रहना अब एक रूटीन खबर बन गई थी। इससे ऐसा कोई नैतिक दबाव नहीं बन रहा था जिससे सरकार उनकी मांग मानने के लिए प्रेरित होती। इसके मद्देनजर चुनाव लड़ने के उनके फैसले को संघर्ष की रणनीति बदलने के रूप में भी देखा जा सकता है।

शर्मिला के आंदोलन पर नजर रखने वाले इंफाल के रणवीर सिंह का कहना है कि एक बड़ा बदलाव हाल में अफस्पा के बारे में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि देश के जिन इलाकों में अफस्पा लागू है वहां से किसी नागरिक के मौलिक अधिकार के हनन की शिकायत अगर कोर्ट के सामने आती है तो वह उस पर सुनवाई करेगा। इसका अर्थ यह माना जा रहा है कि अशांत घोषित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों को मिला असीमित संरक्षण अब समाप्त हो गया है। गौरतलब है कि यह फैसला मणिपुर से संबंधित मामलों में ही आया है। यह इरोम शर्मिला के लिए संतोष का एक पहलू हो सकता है। इस सीमित न्यायिक सफलता के बाद वो शायद अपने मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाने की बेहतर स्थिति में हैं। शर्मिला की शख्सियत अब इतनी बड़ी हो चुकी है कि लोग उनकी बातों पर अवश्य ध्यान देंगे।
शर्मिला ने जेल से बाहर आने के बाद शादी करने की भी घोषणा की है। उनके करीबी का कहना है कि उन्हें यहां तक सोचने में उनके ब्रिटिश मूल के प्रेमी की अहम भूमिका है जिससे वह शादी करना चाहती हैं। शर्मिला में यकायक आए परिवर्तन ने उनके आंदोलन में रूचि रखने वाले लोगों को अचंभित कर दिया है। अचंभित होने वालों में उनके समर्थक ही नहीं बल्कि उनके परिजन और सगे-संबंधी भी हैं। उनके इस फैसले ने उनके परिवार के सदस्यों और सहयोगियों से लेकर हर किसी को अचंभे में डाल दिया। पूरे संघर्ष में इरोम के साथ रहे उनके बड़े भाई सिंघजीत का कहना है कि उन्हें इसका अंदाजा नहीं था कि वह अपना अनशन खत्म करने जा रही हैं। उन्होंने कहा कि अपनी खराब सेहत की वजह से पिछले कुछ दिनों से उनसे मेरी बात नहीं हो सकी। मैंने उनके फैसले के बारे में दूसरे लोगों से सुना है।

गैर सरकारी संगठन ह्यूमन राइट्स अलर्ट मणिपुर के निदेशक और इरोम के लंबे समय से सहयोगी बबलू लोइतोंगबा का भी कहना है कि वह भी अचंभित हैं लेकिन वह उनके फैसले के पीछे का कारण समझ सकते हैं। उन्होंने कहा कि अगर उनके 15 साल के अनशन से अफस्पा नहीं हटाया जा सका तो यह अगले 30 साल में भी अंजाम तक नहीं पहुंचेगा। परंतु इसका कतई मतलब नहीं है कि मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में उनके समर्थकों की कमी है। इस कानून के भुक्तभोगी हमेशा मांग करते रहे हैं कि इसे हटा दिया जाए। प्रसिद्ध मानवतावादी विचारक व लेखक संदीप पांडेय, कृषक मुक्ति संग्राम समिति के प्रमुख अखिल गोगोई सहित पूर्वोत्तर के कई छात्र व मानवतावादी संगठन शर्मिला के आंदोलन का समर्थन करते रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2011 में कृषक मुक्ति संग्राम समिति के बैनर तले गुवाहाटी में आयोजित एक समारोह में गांधीवादी नेता अन्ना हजारे ने शर्मिला के आंदोलन का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था। बताते चलें कि इस समारोह में अन्ना के तब सहयोगी रहे दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और पुडुचेरी की मौजूदा राज्यपाल किरण बेदी भी मौजूद थीं। इन सभी ने अन्ना के सुर में सुर मिलाते हुए अफस्पा हटाने की मांग की थी। शर्मिला की दृढ़ता की मुरीद ईरान की नोबेल पुरस्कार विजेता शिरीन इवादी भी रह चुकी हैं। वह ईरान से सिर्फ उनसे मिलने ही मणिपुर आर्इं थीं। शिरीन ने तब कहा था कि मैंने सिर्फ शर्मिला के बारे में कहा था मगर अब मिलकर एहसास हो गया कि वह अपनी दृढ़ शक्ति से बड़ी से बड़ी शक्तियों को परास्त कर अपनी मांग मनवा सकती हैं।

बताते चलें कि इरोम ने वर्ष 2000 में जब अपना अनशन शुरू किया था तो उन्होंने यह भी संकल्प लिया था कि जब तक सरकार सशस्त्र बल विशेष बल अधिनियम को खत्म नहीं करती वह अपने घर में दाखिल नहीं होंगी और न ही अपनी मां से मुलाकात करेंगी। उसके बाद से वह अपनी मां सखी देवी से बस एक बार ही मिलीं जब दोनों एक ही अस्पताल में भर्ती थीं। इरोम के भाई सिंघजीत ने बताया कि भूख हड़ताल के शुरुआती दिनों में वह हमेशा उन्हें समझाने की कोशिश करते थे कि वह अपना अनशन खत्म कर दे लेकिन उन्होंने कभी मेरी बात नहीं सुनी। आखिरकार भाई ने उन्हें समझाना छोड़ दिया और वादा किया कि उनके संघर्ष में हमेशा उनके साथ रहेंगे। शर्मिला के एक अन्य सहयोगी ने बताया कि वह काफी निराशा थीं कि सरकार लोगों की मांगों पर ध्यान नहीं दे रही है। इसलिए उन्होंने रास्ता बदलना बेहतर समझा। अब वह आंदोलन से सियासत का रुख कर रही हैं।

शर्मिला के इस फैसले से पूरे पूर्वोत्तर में सक्रिय उग्रवादी संगठनों और अतिवादी वामपंथी गुटों को गहरा आघात लगा है। अफस्पा का विरोध करने वालों में ये संगठन भी हैं जिनकी वजह से केंद्र सरकार इस कानून को समाप्त नहीं कर पा रही है। 