उदय चंद्र सिंह
उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके शुकरा उरांव की जिंदगी बेंत की बनी टोकरी में जैसे उलझ कर रह गई है। बीते 20 वर्षों से उसके लिए यही टोकरी रोजी रोटी का जरिया है। सुबह होते ही शुकरा बेंत की टोकरी उठाकर स्वर्णरेखा नदी के तट पर पहुंच जाता है और जुट जाता है अपने काम में। उसकी ठहरी आंखों को इंतजार रहता है बालुओं के बीच चमचमाते सोने के कणों की। हफ्ते भर की कड़ी मेहनत के बाद वह सोने के कुछ कण इकट्ठा कर पाता है, जिसे स्थानीय व्यापारी साप्ताहिक हाट में औने पौने दाम में खरीद ले जाते हैं।
दो साल पहले शुकरा को कुछ ज्यादा ही सोने के कण हाथ लग गए थे। यह बात जंगल की आग की तरह इलाके में फैल गई और देखते ही देखते उसके घर पर व्यापारियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। शुकरा उस दिन को याद करते हुए एक ट्रांजिस्टर दिखाते हुए कहता है, ‘टोकरिया में उह दिन एगो बड़का गो सोना कर पत्थर रहे। एगो बाबू हमरा के एक रेडियो पकड़ाई के उ पत्थरवा ले गेलस (टोकरी में उस दिन एक बड़ा सोने का कण मिला था जिसे एक आदमी मुझसे ले गया। बदले में वह मुझे एक रेडियो दे गया)।’ शुकरा का रेडियो अब नहीं बोलता। वह बंद है। शायद बैटरी खत्म हो गई है।

सोना निकालने के लिए नदी की मिट्री छानती आदिवासी महिलाएं
सोना निकालने के लिए नदी की मिट्री छानती आदिवासी महिलाएं

झारखंड की राजधानी रांची से करीब 17 किलोमीटर दूर रत्नगर्भा में शुकरा जैसी कहानी सुनाने वाले कई आदिवासी हैं। इस इलाके के सैकड़ों आदिवासी परिवारों की जिंदगी स्वर्णरेखा नदी के सहारे ही कट रही है। यहां इस नदी का शुरू से ही विशेष महत्व रहा है। इस क्षेत्र के आदिवासी इसे नंदा भी कहते हैं। यह नदी रांची स्थित अपने उद्गम स्थल से निकलने के बाद किसी नदी में न मिलकर सीधे बंगाल की खाड़ी में गिरती है। आदिवासी सोने के कणों को छानने के लिए मछलियां पकड़ने वाली बेंत की टोकरी का प्रयोग करते हैं जिसकी पेंदी में कपड़ा लगा होता है। ये आदिवासी दिनभर यही काम करते हैं तब जाकर कुछ ग्राम सोना इकट्ठा कर पाते हैं।
कई बार स्थानीय व्यापारी खुद ही इन आदिवासियों के पास पहुंच जाते हैं और औने पौने दाम पर नदी से निकाला गया सोना खरीद लेते हैं। इस क्षेत्र के दलाल और बिचौलिए सोने का व्यापार करते हुए करोडों में खेल रहे हैं जबकि लाचार आदिवासी कड़ी मेहनत से इकट्ठा किए सोने से केवल दो जून की रोटी ही जुटा पाते हैं। सोने के कण मिलने के कारण ही इस नदी का नाम स्वर्णरेखा नदी पड़ा। पिछले कई दशकों से सरकार का ध्यान इस तरफ खींचने की कोशिश कर रहे स्वतंत्र पत्रकार आरके वर्मा निराशा के साथ कहते हैं, ‘हैरतअंगेज बात यह है कि स्वर्णरेखा नदी में जो सोने के कण मिल रहे हैं उसके बारे में राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारों ने निगाहें फेरी हुई है। सरकारी मशीनरी अभी तक यह मालूम नहीं कर सकी कि इस नदी में रेत के साथ बहने वाले सोने के कण कहां से आते हैं।’
हालांकि मुख्यमंत्री रघुवर दास इससे सहमत नहीं हैं। वो कहते हैं, ‘भूगर्भ सर्वेक्षण का काम लगातार चल रहा है। जल्द ही रांची के पास तमाड़ में पांच वर्ग किलोमीटर के इलाके में ड्रिलिंग का काम शुरू किया जाएगा। यहां पहले भी ड्रिलिंग की जा चुकी है। तब वैज्ञानिकों को सोने का भंडार होने के लक्षण मिले थे। वे नमूने राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक ही थे।’ मुख्यमंत्री की इन बातों में दम तो है लेकिन इस इलाके में सर्वे का काम 2006 और 2010 में भी हो चुका है। सर्वेक्षण का काम जियोलॉजिकल सर्वे आॅफ इंडिया ने किया था। तब भी स्वर्ण अयस्क में सोने का अंश अधिक मिला था लेकिन गंभीरता से खनन पर विचार कभी नहीं हुआ।

स्वर्णरेखा नदी
स्वर्णरेखा नदी

20 दिसंबर, 1991 को तत्कालीन खान मंत्री बलराम सिंह यादव ने भी लोकसभा में इस तथ्य को स्वीकार किया था कि रांची जिले के कुछ क्षेत्रों में सोना होने का संकेत मिला है। लेकिन उसके बाद बात आगे नहीं बढ़ी। 18 सौ करोड़ रुपये की लागत से जब चांडिल में स्वर्णरेखा परियोजना शुरू हुई तो सैकड़ों गांव और हजारों एकड़ जमीन के साथ अंग्रेजों के जमाने की दो स्वर्ण खदानें भी डूब गई। चांडिल के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि आजादी से पहले अंग्रेज इन दोनों खदानों से बड़ी मात्रा में सोना निकालते थे। अखिल भारतीय नवजागरण परिषद के उपाध्यक्ष अनूप कुमार राय कहते हैं, ‘1990 में स्वर्णरेखा परियोजना की शुरुआत के समय ही हमनें इन दो खदानों के अस्तित्व की रक्षा के लिए सरकार से गुहार लगाई थी। हमने कई पत्र विभिन्न विभागों को लिखा लेकिन कुछ नहीं हुआ।’
झारखंड के पूर्व भूतत्व निदेशक जेपी सिंह का तो दावा है कि झारखंड में अकूत स्वर्ण का भंडार है। उनका अनुमान है कि अकेले झारखंड के तमाड़ में एक लाख टन सोना दबा हुआ है जिसकी कीमत लगभग 25000 करोड़ रुपये है। बताया जाता है कि टाटा के इस्पात कारखाने के निर्माण के दौरान चांडिल और तिरुलडीह के बीच बिछाई जा रही रेल लाइन के दौरान ही अंग्रेजों को इस क्षेत्र में सोना होने का संकेत मिला था। चांडिल क्षेत्र में आज भी कई ऐसे आदिवासी हैं जो अंग्रेजों के लिए मोईसाडा और लावा माइंस से सोना निकालने का काम कर चुके हैं। भारत छोड़ते समय अंग्रेजों ने लावा खदान के मुहाने को कंक्रीट से भरकर ढक दिया था ताकि भारतीय सोने की खान तक न पहुंच सकें। जबकि मोईसाडा खदान से आजादी के बाद 1958-60 में कैंप लगाकर सोना निकालने का काम शुरू किया गया था। सोना निकासी के लिए झारखंड से बाहर के मजदूर लाए गए थे जो यहां के आदिवासियों की तरह न तो भोले भाले थे और न ही ईमानदार। कैंप के दौरान स्वर्ण खुदाई में लगे मजदूरों द्वारा ही उचित सुरक्षा व्यवस्था के अभाव में आधे से अधिक सोना चुराकर बेच दिया जाता था। इसका नतीजा यह हुआ कि यह खदान नुकसानदायक साबित हुई और इसे बंद कर देना पड़ा था। यह खदान भी अब स्वर्णरेखा परियोजना की भेंट चढ़ चुकी है।

स्वर्णरेखा परियोजना पर कलंक

झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के लिए बेशक महत्वपूर्ण स्वर्णरेखा परियोजना पर न सिर्फ सोने के खान को निगल जाने का धब्बा है बल्कि इस पर विस्थापन का कलंक भी है। 1982 में शुरू की गई इस परियोजना के लिए 116 गावों की कुल 40 हजार एकड़ जमीन सरकार ने ग्रामीणों से ली। इससे 15 हजार परिवारों की 70 हजार अबादी विस्थापित हो गई। ये परिवार आज भी विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं। जिन इलाकों का अधिग्रहण किया गया उनमें वो क्षेत्र भी था जहां कभी मोईसाडा खदान से सोना निकालने का काम होता था। परियोजना का काम शुरूहोने के कुछ साल बाद ही यह इलाका डूब क्षेत्र में समाता चला गया।
इस परियोजना को 2015 में पूरा होना था लेकिन राशि का आवंटन समय पर नहीं होने की वजह से इसका काम अब 2018 तक पूरा होने की उम्मीद है। झारखंड सरकार ने इस योजना के अगले चरण के काम को पूरा करने के लिए केंद्र से करीब एक हजार करोड़ रुपये की मांग की थी। सितंबर 2015 में भेजे गए झारखंड सरकार के अनुरोध पर अब तक केंद्रीय जल संसाधन विभाग ने कोई फैसला नहीं लिया है। केंद्र की तरफ से झारखंड के प्रस्ताव पर कुछ जानकारियां मांगी गई थी जिसे दिसंबर में ही झारखंड की तरफ से भेजा जा चुका है। अब तक स्वर्णरेखा परियोजना पर करीब चार हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुका है। दरअसल, केंद्र स्वर्णरेखा परियोजना के लिए सिर्फ 75 फीसदी राशि देने के मूड में है। उसका कहना है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 25 फीसदी राशि राज्यों को खर्च करने का नियम बनाया गया है। वहीं झारखंड का कहना है कि उसका इस योजना के लिए केंद्र के साथ 90 फीसदी राशि देने का समझौता है। इसलिए वह इससे कम राशि नहीं लेगा। इस बहुद्देशीय परियोजना से न सिर्फ बिजली बनाई जानी है बल्कि तीनों राज्यों में सिंचाई के लिए पानी भी मुहैया कराया जाना है।

इस नदी के आसपास के क्षेत्रों में पाई जाने वाली लाल मोरंग मिट्टी में भी सोने के कण पाए जाते हैं। चट्टानों और पत्थरों के बीच पाई जाने वाली मोरंग मिट्टी को खोदकर आदिवासी अपने घर ले जाते हैं। मिट्टी को बड़े बर्तनों में घोलकर उसे बारीक कपड़ों में छाना जाता है। फिर विशेष प्रक्रिया द्वारा मिट्टी से सोने के बारीक कण अलग कर लिए जाते हैं। सरकार द्वारा खदान वाले इलाके को घेरे जाने से पहले आदिवासी वहां से रोज सोना निकाला करते थे। लेकिन अब यह काम वह चोरी छिपे करते हैं। यहां से निकाले गए सोने को वह हल्दीपोखर के बाजार में बेच देते हैं। अनपढ़ और सीधे-साधे आदिवासियों को एक तोला सोना के बदले एक साइकिल तक लेते देखा गया है। कई आदिवासी सोना के बदले शराब की बोतल भी लेकर चले जाते हैं। हल्दीपोखर बाजार में आज भी सोने की खरीद फरोख्त मिट्टी के मोल की जाती है। इस कारोबार से यहां के सुनार करोड़पति हो गए और आदिवासी जैसे पहले थे आज भी वैसे ही हैं।
भूगर्भशास्त्री डॉ. नीतिश प्रियदर्शी इतिहास का हवाला देते हुए बताते हैं कि झारखंड हमेशा से ही सोने की चिड़िया रहा है। झारखंड के लोक गीत हीरा नागपुर यह संकेत करते हैं कि यहां के लोगों को पता था कि झारखंड रत्नगर्भा धरती है। मुगलों के शासनकाल में तो गुमला की नागफेनी नदी में हीरा निकालने का काम होता था। शंख नदी में भी हीरा मिलता था और सिंहभूम तो गोल्ड बेल्ट कहलाता ही है।
स्वर्णरेखा नदी से सोना निकालने का काम प्राचीन काल से होता रहा है। इसलिए झारखंड में बड़ी मात्रा में स्वर्ण भंडार मिलना स्वभाविक है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि झारखंड में कई ऐसे खनिज हैं जो विश्व में बहुत कम मिलते हैं। इसकी वजह भूगर्भीय है। एक तो झारखंड की चट्टानें सबसे प्राचीन हैं, वहीं यहां हुए ज्वालामुखी विस्फोटों से भी भारी मात्रा में खनिज पदार्थों के होने की स्थिति बनी है। प्राचीन काल से ही यहां लोग सोना और हीरे की खोज में आते थे लेकिन दुर्गम स्थान होने के कारण यहां आना कठिन था। पर अब स्थिति अलग है। इन खनिजों की खोज का काम तेज करना जरूरी हो गया है।