प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत बड़े जोरशोर से की थी जिसके तहत हर सांसद को एक गांव को आदर्श ग्राम बनाना था। योजना यह थी कि हर सांसद 2016 तक एक गांव को आदर्श ग्राम बनाएगा और 2019 तक दो और गांवों को आदर्श ग्राम बनाएगा। इस तरह हर सांसद तीन गांवों को विकास के पैमाने पर अग्रणी बनाता तो ग्राम विकास की नई गाथा लिखी जा रही होती। अफसोस यह योजना धराशाई होने के कगार पर है। और इसी के साथ भारत के गांवों के विकास की जो अनूठी पहल शुरु की जानी थी, वह अब ठहर गई सी लग रही है।
एच. बी. सिंह
भारत सरकार की सांसद आदर्श ग्राम योजना के डॉक्यूमेंट में 18 अध्याय हैं और उसकी शुरुआत होती है आदर्श गांव को लेकर महात्मा गांधी के विजन से। उसमें साफ कहा गया है कि सामाजिक और आर्थिक नियोजन का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन जरूरी है। गांवों में जमीन के इस्तेमाल को लेकर वहां की प्रकृति व परिस्थितियों के अनुसार ही आर्थिक व सामाजिक आधार को ध्यान में रखते हुए योजना व कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए। लोगों से पूछा जाना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं, क्या किया जा सकता है और कैसे किया जा सकता है? यानी आबादी के सभी वर्गों के जीवन स्तर और जीवन गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए कार्य किन-किन माध्यमों से किए जाएंगे। ये आठ हैं जिनमें उन्नत बुनियादी सुविधाएं, अधिकतम उत्पादकता, बेहतर मानव विकास, बेहतर आजीविका के अवसर, विसंगतियों में कमी, अधिकार और हकदारी दिलाना, वृहत सामाजिक एकजुटता और समृद्ध सामाजिक पूंजी शामिल हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि सबसे पहली चीज जो नियोजन में दी गई है उसमें उल्लेख है कि पहले ग्रामवासियों के वैयक्तिक विकास के कार्यकलाप होने चाहिए। गांवों में मानव विकास, सामाजिक विकास, आर्थिक विकास, पर्यावरणीय विकास और आधारभूत सुविधाएं व सेवाएं उपलब्ध कराने के कार्यकलापों आदि की बात उसके बाद आती है। एक विस्तृत परिशिष्ट में वैयक्तिक विकास के लिए जो पहली बात लिखी गई है, वह है कार्यों में साफ-सफाई और स्वच्छता संबंधी आदतों के विकास के लिए रोजाना दांत साफ करना और शौचालयों के इस्तेमाल पर जोर दिया जाए। कार्यनीति और नियोजन में भी कई बिंदुओं को शामिल किया गया है। लेकिन हमें इसमें कई कमियां नजर आती हैं।
गांव से शहर हैं, शहर से गांव नहीं
सांसद आदर्श ग्राम योजना बनाने वाले शायद यह भूल गए कि गांव की वजह से शहर हैं, शहर की वजह से गांव नहीं हैं। हमारी सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और मात्र तीस प्रतिशत शहरों में। सांसद आदर्श ग्राम योजना के डॉक्यूमेंट की पूरी कार्यप्रणाली ऊपर से नीचे की ओर है, जबकि इसे ठीक उल्टा, नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए था। सरकार शहरी क्षेत्रों की मदद से ग्रामीण क्षेत्रों को ऊपर लाना और विकसित बनाना चाहती है जो कि नितांत गलत व अव्यावहारिक है। अर्थव्ययस्था के तीन क्षेत्र हैं- प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक क्षेत्र और तृतीयक क्षेत्र। इसमें प्राथमिक क्षेत्र के अंतर्गत गांव में होने वाली गतिविधियां आती हैं। पर सरकार द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र, जो शहरों से संबंधित हैं, के माध्यम से गांवों का विकास करना चाह रही है। सबसे पहली जरूरत यह है कि हम गांवों को सशक्त करें और उन्हें ऊपर उठाएं। फिर द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र की बातों को उनके विकास में शामिल करें। यह इस योजना की बहुत बड़ी कमी है।
शायद वे भूल गए कि गांव की वजह से शहर हैं, शहर की वजह से गांव नहीं हैं। सांसद आदर्श ग्राम योजना की पूरी कार्यप्रणाली ऊपर से नीचे की ओर जाने वाली है।
सांसद आदर्श ग्राम योजना की दूसरी सबसे बड़ी कमी वही है जो पूरे देश में चलाई जा रही ग्रामीण विकास की तमाम योजनाओं में मौजूद है। प्राथमिकताओं की बात क्रमबद्ध ढंग से नहीं की गई है। इसमें यह तक परिभाषित नहीं किया गया है कि ग्राम का विकास कैसे किया जाए, नियोजन कैसे किया जाए इसकी एक साधारण रूपरेखा साधारण भाषा में नहीं दी गई है जिसे लोग आसानी से समझ सकें। शायद यह इसलिए है कि किसी योजना में जो प्रोफेशनल टच होना चाहिए वह इसमें है ही नहीं। इसमें प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया गया है और नियोजन को पर्याप्त तवज्जो नहीं दी गई है। हो यह रहा है कि दिल्ली में बैठे लोग तय कर रहे हैं कि गांवों में क्या करना चाहिए। महात्मा गांधी ने साफ कहा था कि पहले गांवों का आर्थिक विकास होना चाहिए और इसमें कृषि, उसकी प्रकृति व तरीकों को लेकर वहां की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार रूपरेखा बनाई जानी चाहिए। केंद्र सरकार कहती तो जरूर है कि उसने गांधी जी के नजरिये को अच्छे से पढ़ा और सीखा है लेकिन ऐसा कुछ भी दिखाई तो नहीं देता। गांवों को लेकर अब तक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं उन सबमें एक बात तो समान रही। जब गांव वालों से पूछा गया कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता क्या है तो उनका जवाब होता है- आमदनी बढ़ाना, चाहे वह कृषि के माध्यम से हो या उनको रोजगार दिया जाए या कोई और तरीका अपनाया जाए। उनकी दूसरी प्राथकिता है कि उनके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो, उनकी पढ़ाई-लिखाई सुचारू रूप से हो सके और अगर उनकी लड़की है तो उसकी शादी ठीक से हो जाए। उनकी तीसरी जरूरी चीज होती है कि वे कृषि कार्य उचित रूप से कर पाएं इसके लिए उन्हें पर्याप्त सामग्री और साधन उपलब्ध हों। आवास उनके लिए चौथे नंबर की प्राथमिकता है।
ग्राम का विकास कैसे किया जाए, नियोजन कैसे किया जाए इसकी एक साधारण रूपरेखा साधारण भाषा में नहीं दी गई है जिसे लोग आसानी से समझ सकें।
इस प्रकार गांव के लोगों की, उनके जीवन की जो प्राथमिकताएं है, उनपर तो विचार ही नहीं किया गया। सरकार में बैठे लोगों या अफसरों ने जो अपने मन में सोचा वही गांव के लोगों पर लाद दिया। विकास और नियोजन का जो प्रोफेशनल इनपुट होना चाहिए वह सांसद आदर्श ग्राम योजना में कहीं नजर नहीं आता। पारिस्थितिकी आधारित अर्थव्यवस्था पर किसी का कोई ध्यान नहीं है।
प्रति व्यक्ति भूमि सबसे कम
भारत में तमाम बड़े देशों के मुकाबले प्रति व्यक्ति भूमि सबसे कम है। हमारे देश में जमीन .27 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है। जबकि दुनिया में सबसे ज्यादा आवादी वाले चीन में भी प्रति व्यक्ति .82 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध है। जमीन कम होने से हमारा जिस क्षेत्र पर सबसे ज्यादा फोकस होना चाहिए वह हो नहीं रहा। हमारे पास विश्व की केवल दो प्रतिशत भूमि है। इसी तरह पानी भी कम है। केवल चार प्रतिशत पानी है। जबकि घरेलू जानवर हमारे पास सबसे ज्यादा दुनिया के पंद्रह प्रतिशत हैं। इस तरह की बड़ी चीजें इस योजना के बनाने वालों की नजर में पड़ी ही नहीं। उनका सारा जोर उन छोटी-मोटी चीजों पर है जिससे गांव स्मार्ट बनें और परिवर्तन ऐसे हों जो पांच साल में दिखाई दें। उनकी योजना चमक-दमक से परिपूर्ण है लेकिन सोच सतही है। यही वजह है कि तमाम विकास की योजनाएं असफल होती चली गई हैं क्योंकि यह समझा ही नहीं गया कि हम आज जो कदम उठा रहे हैं और जहां तक हमें जाना है, उन दोनों में कोई सामंजस्य है कि नहीं। असल में जो गांव वाले चाहते हैं उनकी बातें नदारद हैं।
नियोजन की इकाई क्या है?
दूसरी बात यह है कि ग्रामीण नियोजन की सामाजिक इकाई क्या है। उसका आधार व्यक्ति है या परिवार है या कुछ और है। किसी भी नियोजन की पहली शर्त होती है कि उसमें उस इकाई को स्पष्टता से रेखांकित किया जाता है जिसके लिए वह किया जा रहा है। तो गांव में प्रति व्यक्ति तो हो ही नहीं सकता, वहां परिवार का ही हिसाब चलता है। और कुछ परिवार तो ऐसे होते हैं, जहां दो-तीन परिवारों को मिलाकर उनका एक ही मुखिया या कह लें कि लोकल लीडरशिप होता है। वही परिवार के सारे फैसले करता है। इस योजना में इस बात पर भी गौर नहीं किया गया। माइक्रो हैबिटेट कॉन्सेप्ट होता है ग्रामीण नियोजन में खासकर आवास के पहलू को लेकर उस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। अगर किसी विधवा को किसी सरकारी योजना के तहत हमने कहीं पर पक्का मकान बनाकर दे दिया तो क्या वह वहां रहने के लिए जाएगी? ऐसा तब तक संभव नहीं होगा जब तक उसे वह सपोर्ट सिस्टम उपलब्ध न कराया जाए जो उसके पास पहले से है।
इसके अलावा संविधान का 73वां संशोधन, जिसमें ग्रामीण विकास के नियोजन को लेकर विस्तार से चर्चा की गई है और जो वैधानिक रूप से मान्य है, उसकी भी कोई झलक इस योजना में हमें देखने को नहीं मिलती। यह सही है कि सांसद आदर्श ग्राम योजना में योजना या नियोजन और ग्रामीण विकास की सही समझ के स्तर पर तमाम छोटी-बड़ी खामियां हैं। इसीलिए इसकी कामयाबी को लेकर संदेह और संशय के बादल घने हैं। लेकिन अब भी इसे क्रियान्वयन के स्तर पर अगर उपयोगी और वास्तव में भारत के ग्रामीण विकास की एक आदर्श योजना बनाना है तो उसके लिए रास्ते बंद नहीं हुए हैं, बशर्ते खामियां दूर की जाएं, कुछ नई चीजें जोड़ी जाएं और जो गैरजरूरी बातें इसमें हैं उन्हें निकालने को सरकार पूरी मंशा के साथ तैयार हो।
मानव संसाधन और पर्यावरण में तालमेल
इसके लिए पहली जरूरत मानव संसाधन और पर्यावरण या प्रकृति से प्राप्त संसाधनों को एक साथ साधना पड़ेगा। ग्राम विकास तीन चरणों में हो। पहले चरण में मानव और प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार विकास किया जाए कि अधिकतम संभावित उत्पादकता को हम हासिल कर सकें। इसके लिए गांव की भूमि, कार्य, प्रकृति और लोगों की प्राथमिकताओं के अनुसार अर्थव्यवस्था के इस प्राथमिक क्षेत्र से हम सर्वाेत्कृष्ट उत्पादकता प्राप्त कर सकें। दूसरे चरण में ग्रामीण उत्पादन को वहीं प्रसंस्कृत किया जाए, वैल्यू एडिशन की व्यवस्था की जाए। गांव के लोगों को अतिरिक्त उत्पादन के प्रबंधन की प्रविधियों का प्रशिक्षण दिया जाए। उसे बाजार के इस्तेमाल योग्य वहीं बनाया जाए और मार्केटिंग तकनीक भी गांव के लोगों तक पहुंचाई जानी चाहिए।
अनुभवी वरिष्ठ जनों का सहयोग
सांसद आदर्श ग्राम योजना में भी कहा गया है कि मानवीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर पूरा ध्यान दिया जाए। इसके लिए ऐसी व्यवस्था अपनाई जा सकती है कि एक तरफ तो ग्रामीण विकास की बागडोर चुने गए प्रतिनिधियों के हाथ में हो, दूसरी तरफ ऐसे लोगों के समूह की भी एक संस्था हो जिसमें वरिष्ठजन हों जिन्हें अपने क्षेत्रों में विशेष दक्षता हासिल है। ये दोनों संस्थाएं मिलकर ग्राम विकास का ढांचा बनाएं तो वह जमीनी स्तर पर अधिक कारगर होगा। वरिष्ठजनों की संस्था से मेरा मतलब है कि गांव में ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो बाहर किसी काम, कारोबार या नौकरी के लिए गए होते हैं और वे अपने व्यापक अनुभव के साथ जीवन की सांध्य बेला में गांव लौट आते हैं तथा वाकई में अपने गांव के लिए कुछ करना चाहते हैं। यह मानव संसाधन अभी तक उपयोग में नहीं लाया गया है। तो ऐसे अनुभवी वरिष्ठजनों की एक सभा बनाई जानी चाहिए और ग्रामसभा चाहे तो उसे वही दर्जा दिया जा सकता है जैसा ग्राम परिषद (विलेज काउंसिल) को मिलता है। इस कमेटी में गांव के उन लोगों को भी शामिल किया जा सकता है जो काम के सिलसिले में रहते तो बाहर हैं लेकिन उनका गांव में आना-जाना और वहां के कार्याें में रुचि बराबर बनी रहती है। इसके अलावा महिला मंगल दल, युवा मंगल दल बनाकर भी उन्हें गांवों के विकास संबंधी सरोकारों से ज्यादा अच्छी तरह जोड़ा जा सकता है। गांवों के संदर्भ में तो ‘सबका साथ, सबका विकास’ तभी संभव है जब वरिष्ठजनों के अनुभवों का हम पूरा लाभ ले सकें।
फिर गांव में करना क्या है, विजन क्या है, प्राथमिकताएं क्या हैं, उसे गांवसभा के लोगों के साथ वरिष्ठजनों की परिषद तय करे। इसे केंद्र सरकार, राज्य सरकार या जिला प्रशासन के डीएम आदि अधिकारी तय नहीं कर सकते। इसे गांव के लोगों को ही तय करना होगा।
भूमि का मौके पर सर्वे जरूरी
गांवों के बारे में एक मिथक यह भी है कि खसरा खतौनी सर्वाेपरि है। वह सरकारी रिकार्ड के लिए ठीक है लेकिन उस पर आप प्लानिंग नहीं कर सकते। उसमें खेत का नंबर, मालिक का नाम, क्षेत्रफल सब लिखा है, लेकिन गांव में देखेंगे तो जमीनी स्तर पर जमीन का वही स्वरूप नहीं है जो रिकार्ड में दर्ज है। खासकर गांव की सीमा पर जो खेत होते हैं वे सब बढ़े हुए होते हैं। इसलिए जमीनी नियोजन तो गांव की भूमि की मौके पर स्थिति देखकर ही किया जा सकता है। भूमि संबंधी रिकार्ड को ज्याग्राफिकल इनफार्मेशन सिस्टम यानी जीआईएस के तहत बिल्कुल ठीक-ठीक बनाना बहुत ही जरूरी है। इसके बिना गांवों के वास्तविक विकास का कोई प्लान तैयार ही नहीं हो सकता। मैंने खुद एक प्लानर के तौर पर इसका महत्व कई प्रोजेक्टों में महसूस किया है। जब तक जमीन का सही नक्शा और सूचनाएं आपके पास नहीं होंगे आप विकास का कोई नियोजन भला कैसे कर सकते हैं।
गांवों के विकास में चकबंदी की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अभी दो प्रतिशत भूमि चकरोड के नाम पर निकाली जाती है बाद में लोग उसे भी अपनी जमीन में मिला लेते हैं। तो चकबंदी में गांव में विकास कार्य के लिए जितनी भूमि चाहिए, उतनी निकाली जा सकती है और वह सभी लोगों के हिस्से में आएगी इसलिए किसी को नाराजगी भी नहीं होगी।
कुल मिलाकर देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आशा की एक किरण हैं और उनके संकल्प पर लोगों को अभी भी भरोसा बना हुआ है। सांसद आदर्श ग्राम योजना अब भी देश के ग्रामीण विकास के लिए प्रोत्साहन और प्रेरणा का स्रोत बन सकती है, लेकिन इसे एक बार नये सिरे से परखने और गढ़ने की जरूरत है।
(ग्राम, नगर व क्षेत्रीय नियोजक एच. बी. सिंह ने जैसा अजय विद्युत को बताया)