गुवाहाटी से रविशंकर रवि की रिपोर्ट

गृह सचिव एलसी गोयल को अचानक हटा दिया गया और रिटायर होने जा रहे राजीव महर्षि को गृह सचिव बना दिया गया तो नगा शांति समझौता एक बार फिर चर्चा में आ गया। कहा जा रहा है कि उन्हें इसलिए हटना पड़ा क्योंकि गोयल ने इस समझौते के बारे में खुद के अंधेरे में रखे जाने की बात कही। नगा सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड के खापलांग गुट के संघर्ष विराम से अलग हो जाने और सुरक्षाबलों पर हमले की घटनाओं से उत्पन्न परिस्थिति की पृष्ठभूमि में भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे तामझाम के साथ नगा सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड के इशाक-मुइवा गुट के शांति समझौते की घोषणा कर दी और इसे ऐतिहासिक घोषित कर दिया, लेकिन इस समझौते के भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं। अब तक यह साफ नहीं हुआ कि आखिर समझौते के तहत किन बातों पर दोनों पक्षों में रजामंदी हुई है और इस बात को इतना गुप्त क्यों रखा जा रहा है। यह बात नगालैंड के लोगों के साथ वहां के सामाजिक संगठन भी जानना चाहते हैं और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोग भी। यहां यह बताना जरूरी है कि नगा बागी की मांगों से मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश प्रभावित हो सकते हैं। जब यह सवाल घनीभूत होने लगा, तब यह बात साफ होने लगी कि असली समझौता तो अभी होना बाकी है। अभी तो समझौते के फ्रेमवर्क पर सहमति बनी है। समझौते की शर्तें अभी तय नहीं हुई हैं और जल्द ही उन्हें तय कर लिया जाएगा।
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने गत आठ अगस्त को राष्ट्रीय जांच एजेंसी के गुवाहाटी कार्यालय की आधारशिला रखते हुए स्वीकार किया कि यह महज एक फ्रेमवर्क समझौता है। एनएससीएन (आईएम) के साथ अभी अंतिम समझौता होना बाकी है। जब अंतिम समझौता होगा तो सभी पक्षों को साथ में लिया जाएगा। जब समझौते की सारी बातें तय ही नहीं हुई हैं तो समझौता करने की जल्दीबाजी क्यों थी? असम के पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत कहते हैं कि हर समझौते के पहले तस्वीर साफ हो जाती है। उन्होंने मिजो नेशनल फ्रंट के साथ हुए मिजो समझौते का हवाला देते हुए कहा कि समझौते के पहले सारी बातें तय हो गई थीं। लालडेंगा के साथ समझौता होने के बाद उसे लागू करने प्रक्रिया आरंभ हो गई। इसलिए मिजो उग्रवाद पूरी तरह समाप्त हो गया।
उन्होंने बताया कि असम में बोडो लिबरेशन टाइगर्स और वाजपेयी सरकार के बीच समझौता हुआ। सारी बातें पहले से तय कर दी गईं और समझौता होते ही उसे लागू कर दिया गया। तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की मौजूदगी में बीएलटी नेताओं को बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद की ताज सौंप दी गई। लेकिन यह तो समझौते के नाम पर वाहवाही लेने का प्रयास मात्र है।
मालूम हो कि गत चार अगस्त को प्रधानमंत्री ने अपने सरकारी आवास पर पूर्वोत्तर के प्रमुख बागी संगठन नगा सोसलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड के इशाक-मुइवा गुट के साथ भारत सरकार के शांति समझौते की घोषणा की तो लोग चौंक गए क्योंकि यह अप्रत्याशित था। शांति वार्ता पिछले 16 वर्षों से चल रही थी, लेकिन अचानक एनएससीएन के इशाक-मुइवा गुट के साथ शांति समझौते ने लोगों को अचरज में डाल दिया। प्रधानमंत्री और नगालैंड के मुख्यमंत्री की मौजूदगी में समझौते पर एनएसआइएन (आईएम) के महासचिव टी मुइवा और नगा बागी समूहों के लिए भारत सरकार के अधिकृत वार्ताकार आरएन रवि ने हस्ताक्षर किए। आमतौर पर समझौते पर संगठन के प्रमुख का हस्ताक्षर होता है, लेकिन किन्हीं कारणों से इस ऐतिहासिक मौके पर एनएससीएन (आईएम) के अध्यक्ष इशाक शू नहीं थे। बताया जा रहा है कि वह बीमार होने के कारण आने की स्थिति में नहीं थे।
जब नगा शांति समझौते की खबर पूर्वोत्तर में आई तो लोगों ने राहत की सांस ली।
पूर्वोत्तर के लोग उग्रवाद की मार से मुरझा चुके हैं। नगालैंड बागी संगठनों और सुरक्षाबलों के बीच जारी खूनी संघर्षों से रक्तरंजित होता रहा है।
लिहाजा इस खबर ने शांति की दिशा में एक मीठा अहसास दिया क्योंकि सोलह वर्षों से जारी शांति वार्ता के दौरान अस्सी दौर की बातचीत हो चुकी थी। कई वार्ताकार बदल गए। लेकिन दोनों तरफ से गतिरोध बना हुआ था। उसमें सबसे बड़ी समस्या असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल इलाके को ग्रेटर नगालैंड में शामिल करने पर थी। इसके लिए ये राज्य किसी भी हालत पर तैयार नहीं हैं। नगा बागियों ने स्वतंत्र नगालैंड की मांग को छोड़ने का संकेत बहुत पहले दे दिया था। इसके साथ ही नगा बागी संगठन नगालैंड के लिए विशेष स्वायत्तता की मांग करते रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने इस समझौते को ऐतिहासिक बताते हुए पूरी वाहवाही लेने की कोशिश की। उन्होंने ट्विट करके बताया कि हम एक ऐसी घटना के गवाह बनेंगे, जो महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ मील का पत्थर भी साबित होगी। समझौते के बाद उन्होंने दावा किया कि इस समझौते से सबसे बड़ी नगा समस्या का अंत हो गया। यह भी कि आज से एक नए युग का आरंभ हो रहा है।
स्वाभाविक तौर पर एनएससीएन नेता टी मुइवा ने भी इसे बड़ी उपलब्धि बताया और इसके लिए प्रधानमंत्री की प्रशंसा की। मुइवा ने कहा- कई साल की कोशिशों के बाद दोनों पक्ष समझौते पर पहुंचे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह शांति की दिशा में कदम बढ़ाया है, उसके लिए आप का नेतृत्व बधाई का पात्र है। उम्मीद है कि आप नगालैंड के लोगों की उम्मीदों खरे उतरेंगे।
लेकिन सबसे खास बात को दोनों ही पक्ष छिपाए रहे। लोग, खासकर पूर्वोत्तर के लोग यह जानने के लिए बेचैन थे कि उस समझौते के तहत कौन-कौन सी मांगे मानी गई हैं। नगा सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड (इशाक-मुइवा) और भारत सरकार के बीच ऐतिहासिक शांति समझौते होना एक सुखद घटनाक्रम है, लेकिन समझौते के विवरण पर पूर्वोत्तर का माहौल तय होगा। इस बारे में दोनों पक्ष चुप्पी साधे हैं। यह अब तक साफ नहीं हुआ कि समझौता किन शर्तों पर हुआ है। इसलिए इस समझौते के बाद खासकर मणिपुर में बेचैनी है और विवरण की प्रतीक्षा है। बागी नगा नेता भले ही सार्वभौम नगालैंड छोड़ने को राजी थे, लेकिन ग्रेटर नगालैंड के गठन के लिए मणिपुर के चार पहाड़ी जिले पर उन्होंने अपना दावा नहीं छोड़ा था। ग्रेटर नगालैंड के तहत मणिपुर के चार पहाड़ी जिलों के अलावा अरुणाचल प्रदेश के चांग्लांग और तिराप तथा असम के कार्बी आंग्लोंग व डिमा हसाउ जिले के बड़े इलाके को शामिल करने की मांग करते रहे हैं।
बागी नगा नेताओं और भारत सरकार के बीच समझौते हो चुके हैं और समझौते के बहाने बागी नगा नेता और प्रधानमंत्री भावनात्मक बातें कर रहे हैं, लेकिन समझौते के विवरण पर चुप्पी से कई सवाल खड़े हो रहे हैं। यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि समझौते में एनएससीएन (आईएम) की यह प्रमुख मांग पूरी की गयी है। सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि इस समझौते के अंतर्गत विवरण और कार्ययोजना जल्द बताई जाएगी। यानी कुछ छिपाया जा रहा है।
असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं कि वे इस शांति समझौते का स्वागत करते हैं, लेकिन समझौते को पूरी तरह सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सच्चाई को छिपाने से संदेह बढ़ता है। पूरा देश, खासकर पूर्वोत्तर जानना चाहता है कि समझौते के तहत किन-किन बातों पर सहमति बनी है।
यही स्थिति मणिपुर की है। मणिपुर के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह बार समझौते की तस्वीर साफ करने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि स्थिति तत्काल साफ नहीं हुई तो मणिपुर में उबल सकता है। इस समझौते की धाराओं से पूर्वोत्तर का उग्रवाद प्रभावित होगा। दूसरे बागी नगा गुटों, खासकर खापलांग की प्रतिक्रिया देखने वाली होगी। इसलिए केंद्र सरकार को पूरी पारदर्शिता बरतते हुए सारी स्थिति को जनता के सामने रख देना चाहिए।
समझौते की स्थिति साफ करने के लिए मणिपुर में आंदोलनों का दौर आरंभ हो गया है। इस शांति समझौते से सबसे ज्यादा आशंका मणिपुर को है। इसके पहले भी अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में नगा बागियों के साथ जारी संघर्ष विराम के दायरे को नगालैंड से बढ़ाकर मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगाबहुल जिलों तक करने देने के बाद मणिपुर जल उठा था। आंदोलनकारियों ने मणिपुर विधानसभा में आग लगी दी थी। भारी विरोध को देखते हुए संघर्ष विराम के दायरे को सिर्फ नगालैंड तक सीमित कर दिया गया था। मणिपुर घाटी के लोग किसी भी स्थिति में अपने राज्य का विभाजन होने देने के पक्ष में नहीं। इस सवाल पर अक्सर मणिपुर और नगालैंड के बीच वैमनस्य बना रहता है। नगा बागियों की तरफ से मणिपुर के नगा बहुल इलाके के स्कूलों को नगालैंड शिक्षा परिषद के अधीन लाने की मांग भी होती रही है, जिसके लिए मणिपुर राजी नहीं है।
मणिपुर के लोगों की चिंता को देखते हुए वहां के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की। राजनाथ सिंह ने उन्हें आश्वासन दिया कि अंतिम समझौते पर हस्ताक्षर करने के पहले सभी संबंधित राज्य सरकारों को विश्वास में लिया जाएगा। यानी यह तो साफ हो गया है कि अब तक एनएससीएन (आईएम) के साथ अंतिम समझौता नहीं हुआ है। जो समझौता हुआ है, उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि जब तक दोनों पक्षों के बीच सहमति नहीं बन जाती है, समझौता होना मुश्किल है। यदि कांग्रेस की तरफ से दबाव नहीं बढ़ता तो शायद केंद्र सरकार समझौते की वास्तविक स्थिति को स्पष्ट ही नहीं करती। संयोग से नगा समझौते से प्रभावित होने वाले राज्य-मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। इसलिए, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने समझौते की आड़ में केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा कर दिया। इसके बाद केंद्र ने स्थिति साफ की है।
सवाल यह उठ रहा है कि यदि अब तक समझौते की शर्तों पर सहमति बनी ही नहीं है तो यह ऐतिहासिक समझौता कैसे हो गया। बागी नगा नेता ने स्वतंत्र नगालैंड की मांग भले ही छोड़ दी है, लेकिन ग्रेटर नगालैंड की मांग त्यागना उनके लिए मुश्किल है। इसके लिए बागी नगा नेताओं को समझौते के पहले अपने लोगों को विश्वास में लेना होगा। यदि उन्होंने यह मांग भी छोड़ दी तो अन्य राज्यों के नगा बहुल इलाके में नगा स्वायत्त परिषद की मांग उठ सकती है, लेकिन इसके लिए वहां के राज्य शायद ही तैयार हों। यह काफी जटिल मसला है और इस पर आम राय तैयार करना टेढ़ी खीर है। तब एनएससीएन का खापलांग गुट और अन्य बागी नगा संगठन भी इस समझौते के औचित्य पर सवाल खड़े करेंगे।
यह भी सवाल उठ रहा है कि कहीं इस समझौते की परिणति अन्य नगा समझौते की तरह न हो। मालूम हो कि इसके पहले 31 जनवरी, 1980 को शिलांग में भारत सरकार और फिजो के नेतृत्व वाले नगा सोशलिस्ट काउंसिल बीच समझौता हुआ था। लेकिन उस समझौते से नाखुश एसएस खापलांग, टी मुइवा और इशाक शू ने नगा सोशलिस्ट काउंसिल से नेता तोड़कर नगा सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड (एनएससीएन) बना लिया था। यह अलग बात है कि बात में एनएससीएन में भी विभाजन हुआ तथा 30 अप्रैल, 1988 को यह संगठन दो धड़े में बंट गया। तब से एक धड़े का नेतृत्व टी मुइवा और इशाक शू कर रहे हैं, जबकि दूसरे धड़े का नेतृत्व एसएस खापलांग के पास है। साठ साल पुराना नगा उग्रवाद इस वक्त नाजुक मुकाम से गुजर रहा है। इसलिए संभलकर आगे बढ़ना होगा। लेकिन जिस तरह की जल्दबाजी प्रधानमंत्री दिखा रहे हैं, उससे हालात बिगड़ सकते हैं और मामला जटिल हो सकता है।
इस समझौते को खापलांग गुट को कमजोर करने की रणनीति से भी देखा जा रहा है। म्यांमार में शरण लिए खापलांग को कमजोर करने के लिए इशाक-मुइवा गुट की मदद ली जा सकती है। म्यांमार से खापलांग को खदेड़ने के लिए भारत म्यांमार पर कूटनीतिक दबाब बनाए हुए है और भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल वहां की सरकार के संपर्क में है। यह माना जा रहा है कि इस समझौते के पीछे उन्हीं का दिमाग काम कर रहा है। लेकिन इसका परिणाम क्या होगा, आने वाला समय बताएगा।