पंजाब की बदहाली पर वोट की खेती (पंजाब पर स्पेशल रिपोर्ट)

संध्या दिवे्दी।

पंजाब में अगले साल चुनाव होने हैं। सत्तारूढ़ अकाली दल फिलहाल नशे के मुद्दे को लेकर घिरा नजर आ रहा है। आम आदमी पार्टी हो चाहे कांग्रेस, नशे को मुद्दा बनाकर अकालियों के हाथ से सत्ता उड़ा लेने के सारे जतन करने में जुटे हैं। लेकिन थोड़ा भीतर जाकर जब हम गांव की तरफ रुख करते हैं तो साफ नजर आता है कि मुद्दा नशे से ज्यादा किसान कर्ज का है। आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवारों की कहानियां सुनने के बाद पता चलता है कि पंजाब में असल मुद्दा किसानों के कर्ज का है। उरगाहां संगठन के धरने पर आए सुरेंद्र सिंह कहते हैं कि अभी चुनाव दूर हैं। किसान संगठन तैयारी में लगे हैं। उरगाहां संगठन बेमियादी धरने पर बैठा है तो भारतीय किसान यूनियन भी सरकार से कर्ज माफी समेत किसानों के सभी मुद्दों को लेकर बात करने की तैयारी में है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि फिलहाल नशे के मुद्दे पर सवार आम आदमी पार्टी का हाथ सबसे ऊंचा है। दीवारों पर लगे पोस्टरों में पंजाबी में लिखा गया है ‘झाड़ू वालयां दी बनेगी सरकार, 100 सीटां आपनूं, 10 कांग्रेस नूं होर 7 सीटं अकाली नूं‘ लेकिन ‘आप’ को आजमाने का इशारा करने वाले लोग भी यह जरूर कह रहे हैं कि अभी ऊंट किस करवट बैठेगा इसका सही सही अंदाजा लगाना मुश्किल है। लोगों की बातों को सुनकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन का 1964 में दिया गया वक्तव्य याद आता है- ‘विपक्षी चुनावी हवा देखकर मदमस्त हैं, लेकिन राजनीति में फेरबदल करने के लिए एक सप्ताह बहुत होता है।’ फिर यहां पंजाब के पास तो अभी करीब आठ महीने हैं।

किह्दे हत्थ लग्गेगा उड़दा पंजाब
बठिंडा के माही नांगल गांव के अट्ठावन साल के किसान निछत्तर सिंह ने 18 मार्च 2016 को अमरूद के पेड़ से लटककर अपनी जान दे दी। साल 2004 में एक आढ़तिये से चालीस हजार कर्ज लिया था। साल 2013 में उन पर उसी आढ़तिए ने पैसा न लौटाने का केस कर दिया। निछत्तर सिंह के परिवार के लोगों ने बताया कि उन्होंने पैसा कब का लौटा दिया था। आढ़तिए के पास मौजूद कागज के अनुसार किसान पर दस लाख से भी ज्यादा कर्ज बकाया है। निछत्तर के भाई महेंद्र सिंह पर भी ओरियंटल बैंक आफ इंडिया का दो लाख और आढ़तिये का एक लाख का कर्ज बकाया है। उनके पास तीन एकड़ खेत है। यह किसी एक किसान की कहानी नहीं है बल्कि यहां हर किसान कर्जदार है। कर्ज बैंक का, आढ़तियों, कोआपरेटिव सोसायटी और रिश्तेदारों का। आढ़तियों के कर्ज में डूबे हर किसान की एक ही कहानी है। कर्ज देते वक्त आढ़तिये खाली कागज पर किसान का अंगूठा लगवा लेते हैं। कर्ज वसूलने के वक्त मनचाही राशि भरकर किसानोंं को आत्महत्या के लिए मजबूर करते हैं। भारतीय किसान यूनियन के वाइस प्रेसिडेंट राम करन सिंह रामा पूछते हैं, ‘अब आप ही बताइए कि ड्रग्स बड़ा मुद्दा है या फिर किसानों का कर्ज।’ यहां तो हर किसान कर्ज में डूबा है, कुछ आत्महत्या कर चुके हैं तो कुछ आत्महत्या करने की तरफ बढ़ रहे हैं।
बठिंडा के गांव चक फतेह सिंह वाला में जिला बरनाला, गांव उगोक की बलबिंदर कौर अपनी बेटी से मिलने आई थीं। सामने बेहोश पड़ी बेटी को दिखाते हुए बताती हैं कि चार महीने पहले ही दामाद ने पेस्टीसाइड खाकर जान दे दी। उसके ऊपर सात-आठ लाख रुपए का कर्ज था। आढ़तियों से भी कर्ज लिया था। ठीक ठीक पता नहीं कितना था। मगर आढ़तिये लगातार दबाव बना रहे थे। चारपाई पर लेटी परमिंदर कौर की तरफ इशारा करके बलबिंदर ने बताया कि बेटी तब से ही सदमे में है। उसे दौरे पड़ने लगे हैं। परमिंदर की बेटी को भी तभी से दौरे पड़ने शुरू हो गए थे। सामने परमिंदर कौर की छोटी बहन जिसकी शादी उसके ही देवर के साथ हुई है, वह बड़ी बहन की तीमारदारी में लगी थी। उसने भी बताया कि उसके पति पर भी पांच लाख का कर्ज है। तीसरे भाई गुरनाम सिंह पर भी आठ-नौ लाख का कर्ज है। कर्ज चुकाने के चक्कर में दो एकड़ जमीन भी बिक गई। लेकिन कर्ज नहीं चुक पाया। आढ़तिये ने इनसे भी खाली कागज पर अंगूठा लगवा रखा है। हमें खड़ा देखकर गुरजर सिंह भी सामने आ जाते हैं। उन्होंने बताया कि उन पर भी छह लाख का कर्ज है। गुरजर सिंह कहते हैं कि इस गांव में कोई ऐसा किसान नहीं मिलेगा जिस पर कर्ज न हो। बठिंडा के मालावाल गांव के हरविंदर ने भी 4 मार्च 2016 को पेस्टीसाइड पीकर जान दे दी। उन पर 95 हजार आढ़ती और 75 हजार कोआपरेटिव सोसायटी का कर्ज था। बैंक से लोन लेकर उन्होंने साढ़े चार लाख का ट्रैक्टर भी खरीदा था। हरविंदर अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। लेकिन कर्ज चुका न पाने की हताशा ने उन्हें भी फांसी लगाने पर मजबूर कर दिया। अब उनके तीन भाई हैं। उन पर भी दो-दो लाख का बैंक का कर्ज है। हरविंदर की मां की उम्र अस्सी साल से ज्यादा है। खाना बनाने की तैयारी में लगी बूढ़ी मां ने बताया कि हरविंदर बत्तीस साल का था। खेती तो ज्यादा है नहीं। चार भाइयों में बड़े भाई की ही शादी हुई थी। दो की नहीं हो पाई। न हमारे पास खेती है और न ही ये दोनों कुछ काम करते थे। हरविंदर मशीन का काम करता था। उसके लिए रिश्ते आ रहे थे। सोचा था इस सर्दियों में शादी कर दूंगी। बहू आ जाएगी। लेकिन… इतना कहकर वह अपने आंसू पोछने लगती हैं। चलने में भी लाचार मां ने बताया कि बड़ा भाई साथ रहता नहीं। अब इन दोनों के लिए खाना पीना बनाना मेरी जिम्मेदारी है। कल रिश्तेदार आए थे आलू प्याज दे गए, नहीं तो कई महीनों से हम मिर्च और नमक से ही रोटी खा रहे थे। आढ़तिये कर्ज चुकाने के लिए लगातार परेशान कर रहे हैं।
बठिंडा के बाद हमारा अगला पड़ाव बरनाला था। बरनाला में हम सीधे जोधपुर गांव में गए जहां मां और बेटे की आत्महत्या ने अप्रैल महीने में सनसनी मचा दी थी। उनके पास साढ़े तीन एकड़ जमीन थी। आढ़तिये का तीन-चार लाख का कर्ज उन पर था। आढ़तिये ने उन पर मुकदमा कर दिया। कर्ज चुकाने में असमर्थ बेटे और मां को आढ़तिया लगातार जमीन पर कब्जा करने की धमकी दे रहा था। गांव के लोगों ने बताया कि जब दोनों को लगा कि उनकी जमीन पर कब्जा हो जाएगा तो दोनों ने पेस्टीसाइड खाकर जान दे दी। कर्ज में डूबे किसानों की न खत्म होने वाली कहानियों को लिखने की पुरजोर कोशिश के बीच ही 25 जून को मानसा के उगराहां किसान संगठन के जोगिंदर सिंह का फोन आया कि कल यहां कर्ज में डूबे तीन और किसानोंं ने आत्महत्या कर ली। एक ने फंदा लगाया, एक ने जहर खाया और एक ने नदी में छलांग लगाकर जान दे दी।
बार्डर से लगे गांव अटारी के सत्तर वर्षीय जसविंदर पूरी तस्वीर को थोड़ा साफ करते हुए बताते हैं, ‘किसान कर्ज और नशा दोनों साथ साथ चल रहे हैं। सीमा पर के गांव में तस्करी के चलते खुलेआम नशा बिक रहा है, यह सच है। लेकिन किसान कर्ज में मर रहा है यह भी सच है। लेकिन मीडिया ने यहां खासतौर पर बार्डर वाले गांव में नशे को ही मुद्दा बनाया। कोई पूछता ही नहीं कि किसान की क्या हालत है।’ जसविंदर कहते हैं कि मेरे ऊपर भी दस लाख का कर्ज है। इसी गांव के सुरेंद्र और महेंद्र भी बातचीत के दौरान आ जाते हैं। उनसे पूछने पर पता चला कि उनके ऊपर भी छह-छह लाख का कर्ज है। वे भी कहते हैं कि सीमा पर के किसान तो दोहरी मार झेल रहे हैं, नशा और कर्ज। महावा गांव के हरिनाम और सुखविंदर कहते हैं कि यहां पर किसानोंं ने आत्महत्या नहीं की। मालवा क्षेत्र में किसान आत्महत्या ज्यादा कर रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि कर्ज ऐसे ही बढ़ता गया तो यहां भी जल्द किसान आत्महत्या की तरफ बढ़ेंगे। खेती में कोई मुनाफा नहीं। बच्चों को पढ़ाएं तो कहां से? पूरे गांव में आपको बारहवीं से ज्यादा पढ़ा एकाध बच्चा ही दिखेगा। इसलिए वे नशा नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? पंजाब में खेती ही लोगों का पहला व्यवसाय है, अगर वही चौपट हो गई तो लोग पैसों के लिए नशे का व्यापार भी कर सकते हैं। महावा गांव के करीब ही बैलगड़ियां गांव है। उस गांव के गुरदास बताते हैं कि हम पर भी तीन लाख का कर्ज है। उन्होंने बताया कि इस गांव के कई किसान नशे का व्यापार करने लगे हैं। उनके खेतों से होता हुआ नशा लोगों तक पहुंचता है। ये वही किसान हैं जो कर्ज तले बुरी तरह से दबे हैं। कर्ज चुकाने के लिए और घर चलाने के लिए कई किसान नशे के कारोबार में शामिल हो रहे हैं। इससे ज्यादा वह कुछ भी बताने को राजी नहीं होते। थोड़ा जोर डालने पर वह इतना भर कहते हैं, ‘मैडम किसान को मुनाफा हो तो वह किसी का हथियार क्यों बनेगा?’

हम तो जीते जी मरने को मजूबर….

punjab-ladiesबरनाला की सुखदेव कौर- ‘मरने वाले तो मर गए, लेकिन पीछे छूट गए हम। एक दिन हम भी दवाई खाकर जान दे देंगे।’ महीनों हुए सुखदेव कौर की आंखों से नमी खत्म ही नहीं होती। उन्होंने कागज दिखाते हुए बताया कि मेरे पति ने सहकारी बैंक दि पंजाब शेड्यूल कास्ट लैंड डवलपमेंट एंड फाइनेंस कॉरपोरेशन से एक लाख सत्तर हजार रुपये लोन लिया। जिसमें से सत्तर हजार रुपया भर दिया था। उन्होंने कर्ज जमा की रसीदें संभाल कर रखीं हैं। वह कहती हैं, ‘इन रसीदों को कोई मान ही नहीं रहा। बैंक वाले कह रहे हैं कि तुम्हारा कर्ज उतने का उतना ही है। मेरे पति ने भी उन्हें रसीदें दिखाई थीं। वे नहीं माने। एक दिन बैंक वाले उन्हें घर से ले गए। शाम को छोड़ा। वह घर नहीं लौटे। रास्ते में ही मेरे पति ने शराब में जहर मिला कर पी ली। मेरे दो बेटियां और तीन बेटे हैं। बेटों ने पढ़ाई अधूरी छोड़ दी। तीनों कपड़े की दुकान पर काम करते हैं।’
बठिंडा के गांव पिथो की हरसिमरत बताती हैं कि मेरे ससुर ने चार लाख रुपये लोन लिया था। कर्ज तो ससुर ने लिया था उनसे उतारा नहीं गया तो मेरे पति के सिर आ गया लेकिन उनसे भी कर्ज नहीं उतारा गया तो उन्होंने आत्महत्या कर ली। गांव में अपने किसी रिश्तेदार के घर आई प्रीतो भी झट से आकर हमारे पास बैठ गर्इं और अपनी कहानी बताने लगीं। संगरूर के गांव उगराहां की प्रीतो ने बताया कि उनके बीस साल के बेटे ने पेस्टीसाइट खाकर दो साल पहले जान दे दी थी। उस पर पांच लाख रुपये कर्ज था। गांव सीनियाकलां की सीतो कौर के पति ने बैंक से एक लाख रुपये कर्ज लिया था। पति की मौत हो गई बेटा कर्ज नहीं चुका पाया। तो उसने भी फांसी चुन ली। मानसा जिले के गांव ललुआना में रजिंदरजीत सिंह ने दो जून को नहर में छलांग लगाकर जान दे दी थी। उनके ऊपर चार पांच लाख का कर्ज था। ट्रैक्टर भी कर्जे में ही लिया था। कर्ज न चुका पाने के कारण ट्रैक्टर भी चला गया। उनके दो बेटे हैं। एक 17 और दूसरा 21 साल का। तीन एकड़ जमीन है। रजिंदरजीत सिंह की विधवा बलजीत कौर बताती हैं, ‘बड़े ने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी ताकि पिता का हाथ बंटा सके। छोटा पढ़ रहा था। लेकिन अब छोटे को भी पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी। कर्जदार भी कर्ज मांग रहे हैं। समझ नहीं आता कभी कभी लगता है कि दोनों बच्चों, बहू और पोते को जहर देकर मार दूं। और फिर खुद भी जान दे दूं।’ बलजीत कहती हैं कि मरने वाले अपने पीछे औरतों को मरने के लिए छोड़ गए हैं। वह आस भरी नजरों से हमारी तरफ देखकर कहती हैं कि कुछ ऐसा कीजिए की हमारा कर्ज माफ हो जाए। नहीं तो अभी तो घर के मर्द ही मर रहे हैं। अब दूसरा नंबर हम औरतों का होगा।
मानसा जिले के मोसा गांव की जसविंदर कौर के पति ने दो साल पहले आत्महत्या कर ली थी। उनके पास दो एकड़ जमीन थी लेकिन वह कर्ज के चक्कर में बिक गई। अब न पति हैं और न ही जमीन। वह अपने भाई के साथ रह रही हैं। इसी गांव की बलविंदर कौर की कहानी तो और भी तड़पा देने वाली है। पचहत्तर साल की बलविंदर कौर पर उनकी बहू और तीन साल का एक पोता आश्रित हैं। बहू को पैरालिसिस हो गया है। वह काम कर नहीं सकती। बेटे ने दो महीने पहले ही फांसी लगाकर जान दे दी। वह कहती हैं, समझ नहीं आता कैसे रोटी खिलाऊं बहू और पोते को। वह बताती हैं, ‘एक हफ्ते से मैं भी बीमार हूं। नमक मिर्च के साथ रोटी खा रहे हैं हम। लेकिन शायद दो चार दिन बाद वह भी नसीब नहीं होगा। अच्छा होता बलविंदर इन दोनों को भी साथ ही ले जाता।’

असल मुद्दा ड्रग नहीं जहरीली हो चुकी खेती है…

Farmer-punjabसामाजिक कार्यकर्ता उमेंद्र दत्त पंजाब की बीमारी और बदहाली को कुछ इस तरह बयां करते हैं। पंजाब के लोगों ने खेती को धंधा बना दिया। जबकि खेती धंधा नहीं धर्म है। बाजार खेतों के भीतर तक घुस गया है। बीज के लिए बाजार, खाद के लिए बाजार। किसान ने स्वालंबन खो दिया। सब्जी-भाजी किसान बाजार से खरीदने लगा है। पंजाब के लोगों ने अपनी संस्कृति खो दी है। संवेदनहीन समाज की देन हैं बीमारियां। लेकिन मुद्दा बनाया जा रहा है ड्रग को। क्यों? क्योंकि यह बिकाऊ मुद्दा है। नशे की लत पंजाब में आज की नहीं बल्कि बहुत पुरानी है। इसे किसी खास पार्टी से जोड़ना ठीक नहीं है।
कैंसर हो चाहे हेपेटाइटिस-सी, या कोई और बीमारी। सारी बीमारियों की जड़ ही खेती का बाजार पर निर्भर हो जाना है। रसायनों का इतना ज्यादा प्रयोग किया गया यहां कि खेत जहरीले हो गए। नदियों का पानी प्रदूषित होता गया। जब जहरीला खाना खाएंगे, पानी पिएंगे तो बीमारियां होंगी ही। इसलिए यहां के लोग खासतौर पर किसान अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं। पेस्टीसाइड जैसा जहर हम अपने खेतों में भरते जा रहे हैं। जब खेती को धंधा बनाएंगे तो ऐसा ही होगा। किसान के लिए तो धर्म है खेती। धर्म बनाएंगे तो संवेदनाएं जुड़ेंगी, उसे संस्कृति का हिस्सा मानेंगे हम। इसलिए राजनेता तो जिम्मेदार हैं ही पंजाब की दुर्दशा के लिए, पर लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियां ड्रग को इसलिए मुद्दा बना रही हैं क्योंकि यह मुद्दा दिखता है, या यों कहें बिकता है। इसलिए मुद्दा यहां के लोगों का अपनी माटी और संस्कृति से मोहभंग होना है। पंजाब का हर नौजवान विदेश जाना चाहता है। अपना देश उसे बेकार लगता है। राजनेताओं ने इन्हीं भटके हुए युवाओं को अपना शिकार बना लिया। इसलिए ड्रग जैसा मुद्दा केवल राजनीति चमकाने के लिए उठाया गया है। इससे भी गंभीर समस्याएं हैं। पंजाब बीमार हो रहा है।
बठिंडा से रोजाना चलने वाली एक ट्रेन है। इस ट्रेन का कभी सर्वे करो तो पाओगे इसमें कैंसर से पीड़ित लोग अपना इलाज कराने राजस्थान जाते हैं। इस ट्रेन को मैंने ही ‘कैंसर ट्रेन’ का नाम दिया था। मगर मुद्दा केवल ड्रग को बनाया जा रहा है। क्यों? सीधी सी बात है क्योंकि इसमें सीमापार से हो रही तस्करी का जिक्र है। इसमें युवाओं का जिक्र है। इसमें पाकिस्तान का जिक्र है। इसमें किसी खास नाम को जोड़कर विरोधी पार्टियां वोट बटोरने का सियासी जतन करने में लगी हैं। यह कहना बिल्कुल गलत है कि मौजूदा सरकार की देन है, ड्रग। क्या कांग्रेस के समय नहीं था नशा? क्या दिल्ली में नशा बंद हो गया?

स्थानीय नेताओं के अपने दावे
भले ही पंजाब में चुनाव प्रचार अभी शुरू नहीं हुआ है। मगर चुनावी हलचल खूब है। मुक्तसर में कांग्रेस के जिला अध्यक्ष गुरुमीत सिंह खुडियां भी नशाखोरी को ही सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। हालांकि दूषित पानी के कारण कैंसर और हेपेटाइटिस सी के मुद्दों का जिक्र करना भी वह नहीं भूलते। बातचीत के दौरान उन्होंने सबसे ज्यादा बार चिट्टे (हेरोइन का स्थानीय नाम) का ही नाम लिया। गुरमीत पॉपी हस्क यानी भुखी के ठेकों को लाइसेंस देने के पक्षधर हैं। वह दावा करते हैं कि लोग कांग्रेस को चुनेंगे। कांग्रेस की लड़ाई आप से बताते हुए वह कहते हैं कि अबकी पंजाब में अकाली तो आ ही नहीं सकते।
मगर जब अकाली दल के स्थानीय नेता कंवलजीत से चुनावी मुद्दे के बारे में पूछा जाता है तो उनका जवाब बिल्कुल उलट होता है। वह कहते हैं कि नशे को प्रचारित ज्यादा किया गया जबकि पंजाब का किसान सबसे ज्यादा परेशान है। देश में हमारी ही सरकार है जो किसानोंं को बिजली मुफ्त दे रही है। दूसरी समस्याएं भी दूर की जाएंगी। अभी चुनाव होने में वक्त है। चुटकी लेते हुए कहते हैं कि पंजाब को नशे में उड़ाने वाली पार्टी खुद उड़ती नजर आएगी। कुल मिलाकर एक बात साफ है कि यहां हर दल नशे को मुद्दा बनाने पर तुला है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जहां नशे को जमीनी हकीकत से बड़ा मुद्दा करार देने में जुटे हैं, वहीं अकाली दल इसके महत्व को छोटा बताने की पुरजोर कोशिश कर रहा है।
आम आदमी पार्टी के नेता सुच्चा सिंह छोटेपुर भी नशे और खासतौर पर चिट्टे की नशाखोरी को पंजाब का सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। हालांकि सुच्चा सिंह कहते हैं कि ‘पंजाब में जिथे देखोगे उत्थे समस्यां दा भंडार लगा सी।’ आम आदमी पार्टी सबसे पहले नशे पर रोक लगाएगी। लेकिन उसके अलावा, दूषित पानी, गिरते हुए पानी के स्तर और किसानोंं की समस्याओं का हल भी खोजेगी। सुच्चा सिंह साफ कहते हैं कि ‘पहले नंबर पर हम, दूसरे पर कांग्रेस और अकाली तीसरे नंबर पर रहेंगे।’ वह पूरे भरोसे के साथ कहते हैं दिल्ली की तरह ही पंजाब को जीतेंगे।

चिट्टा दा बाई वन गेट वन आॅफर
हेरोइन मतलब नशा… एक खतरनाक नशा। बठिंडा के सिविल अस्पताल के डिएडिक्शन सेंटर में पिछले कुछ महीनों से तैंतीस साल के कुलदीप अपना इलाज करा रहे हैं। वह कहते हैं कि मुंह में जबान के नीचे दिन में एक बार टिकिया रखो और फिर पूरे दिन नशे की याद भी नहीं आती। संजीव उस टिकिया को मुंह के नीचे दबाते हुए बडेÞ मजे से यह बताते हैं। संजीव ने करीब पंद्रह साल पहले नशा करना शुरू किया था। उनके पिता माने जाने वकील हैं। नशे की लत ने संजीव को बारहवीं कक्षा के आगे पढ़ने नहीं दिया। संजीव बताते हैं कि जैसे कुछ लड़के मल्टी टैलेंटेड होते हैं वैसे ही मैं मल्टी ड्रग एडिक्ट हूं। यह नशा दारू से शुरू होता है। फिर भुक्की यानी पॉपी हस्क, अफीम, स्मैक के रास्ते होता हुआ चिट्टा यानी हेरोइन तक पहुंचता है। करीब चार साल पहले एक बार हेरोइन का नशा क्या किया कि बस सब भूल गए। अपनी लंबी गाड़ी से आए संजीव बड़े मजे में कहते हैं कि यहां हर राजनीतिक पार्टी के तार नशे के कारोबारियों से जुड़े हैं। यही हाल हरमिंदर का भी है। वह भी सुधरना चाहते हैं। 26 साल के हरमिंदर ने तो 13-14 साल की उम्र में स्मैक का स्वाद ले लिया था। फिर पॉपी हस्क, अफीम और सबसे आखिरी में हेरोइन। वह भी यहां कुछ महीनों से नशे को छोड़ने के लिए इलाज करवा रहे हैं। मोहित, नरेंद्र, गुरमिंदर समेत हर उस लड़के की कहानी एक सी है जो अब नशा छोड़ना चाहता है। मगर हरमिंदर थोड़ा चुप होने के बाद कहते हैं, ‘मैडम यहां का हर दूसरा लड़का और हर चौथी लड़की नशे का शिकार है।’ डिएडिक्शन सेंटर में सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह था कि इन लड़कों की भीड़ में एक पुलिस वाला भी था। पुलिस की गाड़ी में बैठकर आए इस पुलिस वाले को देखकर सभी लड़कों ने चिल्लाकर कहा- देखिए मैडम, जब पुलिस वाले ही नशे के आदी हैं तो फिर पंजाब के युवाओं को कौन बचाएगा? रिहैबिटिलेशन सेंटर के मैनेजर रूप सिंह मान से जब आंकड़े जानने की कोशिश की गई तो उन्होंने बताया कि यहां फिलहाल 190 लोग इलाज करवाने आ रहे हैं। सकुचाते हुए उन्होंने यह भी बताया कि इनमें करीब 20 प्रतिशत पुलिस के लोग हैं। क्या यहां चिट्टा आसानी से मिल जाता है, हमारे पूछने पर कुलदीप मुस्कराते हुए जवाब देते हैं कि तुसी जहां चाहोगे त्वाडे नाल नशा पहुंच जाएगा। यहां हर चौराहे में नशे के एजेंट मौजूद हैं। पहले तो ये लोग किसी अमीर लड़के को फांसते हैं। मुफ्त में नशा देते हैं। फिर कुछ दाम बढ़ाते हैं। आखिर में तो चार-साढ़े चार हजार रुपए प्रति ग्राम दाम हो जाता है। जब वह लड़का कंगला हो जाता है तो उसे आॅफर दिया जाता है ‘बाई फाइव, गेट वन’। यानी अगर आप पांच ग्राहक दिलाओगे तो ‘आपनूं, मुफत में चिट्टा पावांगे।’ नशा करने वाला कब एजेंट बन जाता है पता ही नहीं चलता। अटारी गांव के एकन सिंह सिद्धू भी कहते हैं कि बुरा हाल है नशे से लोगों का। सबसे आखिरी अवस्था होती है इंजेक्शन लगाना। और इंजेक्शन से चिट्टा लेने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
सीमा पर बीएसएफ वाले खुद ड्रग के कारोबार में साझीदार हैं। ‘उड़ता पंजाब’ फिल्म का विरोध भले ही यह कहकर किया जा रहा हो कि इससे पंजाब की छवि खराब होगी। यह भी कि फिल्म में ड्रग के नशे को बढ़ा चढ़ाकर बताया गया है। लेकिन नशे को छोड़ने की जद्दोजहद में लगे लोगों को देखेंगे तो लगेगा कि यह समस्या जितनी फिल्म में दिखाई गई है उससे कहीं बड़ी है। कुलदीप कहते हैं कि नशे के व्यापारियों को खोजना उतना ही आसान है जितना मैक्डी की शॉप को। युवाओं को टारगेट कर नशे के व्यापारियों का नंबर उन तक पहुंचाया जाता है। बिना पुलिस और नेताओं की मिलीभगत के क्या यह संभव है? पुलिस वाले नशे के व्यापारियों को नहीं बल्कि नशे के ही शिकार लोगों को पकड़कर कहते हैं कि नशे का धंधा करने वाला एक लड़का पकड़ा गया। कुलदीप गुस्से में कहते हैं कि ‘जी, उड़ता पंजाब सच्चाई है। युवाओं की जिंदगियां बर्बाद हो रही हैं लेकिन पंजाब की छवि को सबकी पड़ी है।’ रिहैबिटिलेशन सेंटर के मैनेजर रूप सिंह मान खुद कुछ नहीं कहते मगर इतना जरूर कहते हैं, ‘जी पंजाब दा गबरू नशे में पड़कर अपनी जवानी खो रहा है।’ वह ठंडी सांस भरकर कहते हैं- ‘साड्डे पंजाब नूं जाने की होया?’ सीमा से लगे बाघड़िया गांव के सुरेंद्र बेहद कहते हैं कि ‘यहां पर 12-13 साल के लड़कों में भी नशे की लत लग रही है। महावा, हुसैनी वाला, अटारी और नेस्टा गांव तो लगभग बर्बाद हो चुके हैं।’ वह एक ट्यूबवेल की तरफ इशारा करके कहते हैं कि ‘अंधेरा होते ही लड़के यहां जमघट लगा लेते हैं। सुबह इंजेक्शन और पन्नियां यहां खूब मिलती हैं।’ महावा गांव के प्रीत कहते हैं कि यहां दो दिन पहले ही पांच लड़कों की मौत हो गई। इंजेक्शन गलत ढंग से लगाने की वजह से। अटारी गांव में भी चार महीने पहले दो लड़के नशे के कारण ही मरे थे। सीमा से सटे गांवों की हालत तो बुरी है लेकिन बठिंडा, मानसा और मुक्तसर के गांवों में भी कम बुरी हालत नहीं है। इन जिलों के गांवों के बड़े तो इस बात से इनकार करते हैं कि चिट्टा की पहुंच उनके गांवों तक है। लड़कों से पूछो तो वे भी पहली बार में मना करेंगे लेकिन फिर सकुचाते हुए कहते हैं- ‘हां, भूरा पाउडर यानी चिट्टा कुछ कुछ लड़के लेते हैं।’

…तो भुक्की और अफीम के खुलेंगे ठेके
मुक्तसर कांग्रेस जिला अध्यक्ष गुरमीत सिंह कहते हैं कि हमारी सरकार आई तो हम कोशिश करेंगे कि अफीम और भुक्की के ठेकों को लाइसेंस दिए जाएं। चिट्टे से सस्ती होने के अलावा अफीम और भुक्की उससे कम नुकसानदायक भी हैं। यहां लोग इसे बहुत पहले से लेते आ रहे हैं। इन दोनों पर सरकारी रोक भी चिट्टे को बढ़ावा दे रही है।
हालांकि वह चिट्टा, भुक्की और अफीम के बाद कानून व्यवस्था का भी जिक्र करते हैं। वह कहते हैं कि पंजाब का दूषित पानी कैंसर और हेपेटाइटिस-सी फैला रहा है। इस पर तो सरकार का ध्यान अभी तक गया ही नहीं। पानी का स्तर नीचे जाना भी उनके लिए बड़ी समस्या है। लेकिन आखिर में वह फिर कहते हैं कि देखिए यहां शराब को तो कोई नशा मानता ही नहीं। भुक्की यानी पॉपी हस्क और अफीम तो बहुत पहले से चल रहा है, लेकिन अब हिरोइन यानी चिट्टे की बिक्री खुलेआम हो रही है। यह हमारी युवा नस्लों को निगल रहा है। मंजे सियासतदां की तरह अंत में यह भी जोड़ते हैं कि नशा तो कोई भी हो खराब ही है।

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सरकारी और निजी डीएडिक्शन सेंटरों की राय अलग अलग
अमृतसर में नशे का बढ़ना चिंताजनक है। लेकिन राहत की बात यह है कि 2014 के बाद से नशे के आंकड़ों में कमी आई है। 2015 से आंकडे स्थिर होना शुरू हो गए हैं। अमृतसर में स्वामी विवेकानंद डिएडिक्शन एंड ट्रीटमेंट सेंटर के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर डा. पी.डी. गर्ग का यह बयान थोड़ा राहत देता है। लेकिन अमृतसर में करीब एक किलोमीटर दूरी पर बने भाटिया डिएडिक्शन सेंटर की क्लिनकल साइकोलॉजिस्ट डा. श्वेता साफ कहती हैं कि ‘हमारे यहां तो नशे के शिकार लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इस महीने हमारे पास 30-32 लोग आ चुके हैं। पिछले कई सालों से यही सिलसिला चल रहा है। चिंताजनक यह है कि लड़कियां तेजी से यहां आ रही हैं। यह तब है जबकि ज्यादातर लड़कियां-औरतें समाज के डर से बाहर नहीं आतीं।’ हालांकि डा. श्वेता ने अभी पूरी रिपोर्ट तैयार न होने के कारण फिलहाल इस साल के आंकड़े देने में असमर्थता जताई। मगर उन्होंने कहा 10 दिन के भीतर आप हमसे आंकड़े ले सकते हैं। सरकारी और निजी आंकड़ों का अंतर मन में कई सवाल खड़े करता है। डा. गर्ग का एक जवाब भी आंकड़ों में आई कमी को शक के घेरे में डालता है। उनसे पूछा गया कि आपको क्या लगता है, साल के आखिर तक नशे के मामलों में कई आएगी तो वह कहते हैं कि ‘हां लगता तो है। लेकिन सरकार नशे के व्यापारियों को नहीं बल्कि नशा करने वालों को पकड़ रही है।’ इसके आगे डा. गर्ग कुछ भी नहीं बोलते। डा. गर्ग ने बताया कि नशे के पूरे आंकड़ों में से पचास से साठ प्रतिशत लोग हेरोइन के शिकार हैं। बड़ी चिंता यह है कि लड़कियां भी इस ओर तेजी से बढ़ रही हैं। पूरे आंकड़ों में से 10-15 प्रतिशत आंकड़े लड़कियों के हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या पुलिस और बीएसएफ के लोग भी यहां इलाज करवाने आते हैं तो उन्होंने बताया कि मोटे तौर पर करीब बीस प्रतिशत पुलिस और सेना के लोग हैं। संस्थान के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2012 में कुल मामले 1346, साल 2013 में 4855, साल 2014 में 9462 साल 2015 में 3628 और साल 2016 में अब तक 1564 लोग आए हैं।

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