जिरह-

प्रदीप सिंह/प्रधान संपादक/ओपिनियन पोस्ट

चीन से 1962 के बाद भले ही भारत का कोई युद्ध न हुआ हो पर दोनों देशों की सीमा पर निरन्तर तनाव की स्थिति रहती है। उसका एक बड़ा कारण है कि इतने दशकों बाद भीदोनों देशों के बीच सीमा विवाद हल नहीं हुआ है। तनाव बढ़ाने के लिए किसी तात्कालिक कारण का होना जरूरी नहीं है। यह चीन की सामरिक रणनीति का हिस्सा है। वह अपने शत्रु, प्रतिद्वन्द्वी या पड़ोसी पर हमेशा दबाव बनाए रखना चाहता है। चीन हर समय एक मनोवैज्ञानिक खेल खेलता रहता है। वह साम दाम दंड भेद हर हथकंडा आजमाने के लिए तैयार रहता है। चीन भूटान की सीमा पर मौजूदा विवाद चीन की इसी रणनीति का हिस्सा है। उस स्थान पर भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे भौगोलिक स्थिति में कोई बदलाव आया हो। चीन को यह पता है। चीन की इस रणनीति को समझाने के लिए एक श्रीलंकाई अखबार ने अदालत का एक काल्पनिक संवाद बहुत साल पहले छापा था। जिसे केएन मेनन की किताब ‘चाइनीज बिट्रेयल आॅफ इंडिया’ (1962) में उद्धृत किया गया है।

संवाद इस तरह है- ‘वकील- तुमने बैंक में घुसकर, चौकीदार को मारने के बाद वहां की सम्पत्ति हथियाई या नहीं। अभियुक्त- बिल्कुल नहीं। मैंने तो पहले ही यह बयान प्रकाशित करवा दिया था कि मैं बैंक को अपनी सम्पत्ति मानता हूं। चूंकि चौकीदार ने मुझे रोकने की कोशिश की, मुझे आत्म रक्षा के लिए उसे मारना पड़ा। मजिस्ट्रेट- लेकिन क्या बैंक और अन्य अधिकारियों ने तुम्हारा दावा माना था कि बैंक तुम्हारी सम्पत्ति है। अभियुक्त- यही तो बात है। वे बात न मानकर यथास्थिति को बिगाड़ना चाहते थे। मैं हिंसा बिल्कुल नहीं चाहता था। लेकिन पहला शत्रुतापूर्ण कदम चौकीदार ने ही उठाया था। उसने मुझे वहां घुसने नहीं दिया जिसे मैं पहले ही अपनी सम्पत्ति घोषित कर चुका हूं। मैं तो खून खराबे को अंतिम उपाय मानता था। यदि वे शांत रहते तो मैं वहां से बिना किसी कठोर भाव या खून खराबे के जाने वाला था।’ चीन दूसरे देश के भूभाग पर दावा करने के लिए पहले अपने नक्शे में उसे अपना दिखा देता है। फिर विवाद के जरिए दबाव बनाता है।

इससे पहले होता यह था कि चीन की ऐसी हरकत पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया भी उसी तरह आक्रामकता से आती थी। पहली बार ऐसा हुआ कि चीन उकसाता रहा और भारत चुप रहा। जी-बीस देशों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के शी जिनपिंग के बीच द्विपक्षीय बातचीत का कोई तय कार्यक्रम नहीं था पर चीन ने एकतरफा यह घोषणा करके दबाव बनाने की कोशिश की कि उसने इस बातचीत को रद्द कर दिया है। इससे पहले वह भारत को 1962 की हार और उसकी बात न मानने पर युद्ध की धमकी तक दे चुका था। दरअसल यह वितंडा खड़ा करने के पीछे कई कारण हैं। एक तो यह कि वह चाहता है कि भूटान भारत को अपनी सुरक्षा और विदेश नीति का जिम्मा न दे और उसके साथ सीधे राजनयिक संबंध स्थापित कर ले। दूसरे, चीन को भूटान के उस भूभाग पर कब्जा करने के इरादे से ज्यादा इस बात की खुंदक है कि भारत ने उसके अब तक के सबसे महत्वाकांक्षी आर्थिक कार्यक्रम वन बेल्ट वन रोड योजना में शामिल होने से इनकार कर दिया। भारत के इनकार करने की बहुत साफ और वाजिब वजह है। चीन की इस महत्वाकांक्षी योजना में पाक अधिकृत कश्मीर का हिस्सा शामिल है। भारत के हां करने का मतलब होगा कि उसने उस हिस्से पर अपना दावा छोड़ दिया है। चीन की नाराजगी का दूसरा कारण मालाबार नौसैनिक अभ्यास है। जिसमें भारत के अलावा अमेरिका और जापान की नौसेना शामिल है। चीन इसे अपनी घेरेबंदी के रूप में देखता है। वह पहले भीभारत, अमेरिका और जापान के गठजोड़ पर एतराज जता चुका है। उसने कहा भीकि उम्मीद है कि यह अ•यास किसी और देश के लिए नहीं है। चीन की परेशानी यह है कि एशिया में चीन हेजिमनी को भारत से ही चुनौती मिलती है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जी बीस देशों के सम्मेलन के साथ ही हुए ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में चीन के प्रति अपने रवैए से शी जिनपिंग को भारत की तारीफ करने पर मजबूर कर दिया। जर्मनी में दोनों देशों के बीच तनाव को हल्का करने के बावजूद भारत ने भूटान में अपने रुख में किसी तरह की नरमी नहीं आने दी। बल्कि भातीय सेना ने वहां कैम्प लगाकर बता दिया कि यह सचमुच 1962 का भारत नहीं है। चीन अभीतक इस मुद्दे पर भारत को उकसाने या अपनी बात मनवाने में नाकाम रहा है। उसकी यह नाकामी उसे चैन से बैठने नहीं देगी, यह तो तय है। चीन को पता है कि वह भारत को धमकी तो दे सकता है पर उसके आगे कोई कदम नहीं उठा सकता। क्योंकि उसकी महत्वाकांक्षा दुनिया का नेतृत्व संभालने की है। अमेरिका अपने संरक्षणवादी नीतियों के रुझान की वजह से नेतृत्व से हट रहा है। भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश से लड़कर उसे नुकसान ज्यादा होने वाला है। उसकी बढ़ती बौखलाहट का यह भी एक बड़ा कारण है।