एनआरसी- सांप्रदायिकता का नामोनिशां नहीं

गुलाम चिश्ती

इन दिनों देशभर में असम में जारी एनआरसी की दूसरी मसौदा सूची की खूब चर्चा हो रही है। सूची के प्रकाशन से पूर्व ऐसी आशंका जताई गई थी कि इसके प्रकाशन के बाद राज्य में हिंसा होगी। इसलिए केंद्र सरकार की ओर से बड़े पैमाने पर केंद्रीय अर्द्धसैनिक बल भेजे गए थे, परंतु देखा गया कि सूची के प्रकाशन के बाद राज्य में कहीं भी किसी भी तरह की घटना नहीं घटी। सूची में शामिल होने से वंचित 40 लाख से अधिक लोगों में चिंता जरूर दिखी, परंतु उन लोगों ने कानून को अपने हाथ में नहीं लिया।
‘ओपिनियन पोस्ट’ से बातचीत में अनवरा बीबी ने कहा, ‘एनआरसी में उसका नाम नहीं आया, परंतु पति और बच्चों के नाम आ गए हैं। ऐसे में मुझे उम्मीद है कि जब एनआरसी की फाइनल सूची बनेगी तो मेरा भी नाम उसमें शामिल होगा।’ इस सूची से सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय के नाम ही बाहर नहीं हैं, बल्कि बड़ी संख्या में यहां के धरती पुत्र कहे जाने वाले बोडो, असमिया, हिंदू बंगाली और हिंंदीभाषी समुदाय के लोगों के भी नाम बाहर हैं। फिर भी एनआरसी प्रबंधन और राज्य सरकार को उतने विरोध का सामना नहीं करना पड़ रहा है, जितना पहले कहा जा रहा था। दूसरी ओर इसको लेकर असम से बाहर जमकर राजनीति हो रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित अन्य कई नेताओं ने इस मुद्दे पर कथित राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश की, परंतु उन्हें अपनी उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली।
पेशे से शिक्षक रंजीत कलिता का कहना है, ‘असम के लोगों ने कभी भी सांप्रदायिक राजनीति को प्राथमिकता नहीं दी। किसी भी समस्या को धर्म के चश्मे से नहीं देखा। यदि कभी यहां सांप्रदायिकता के आधार पर कोई घटना घट गई तो उसे आगे बढ़ने से रोका गया।’ इस क्रम में हम नेली की घटना का जिक्र कर सकते हैं, जिसमें एक रात में लगभग 2,600 बंगाली मुस्लिम मौत की घाट उतार दिए गए थे, परंतु यह हिंसा आगे नहीं बढ़ी और उसके बदले अन्य स्थानों पर कोई सांप्रदायिक घटना नहीं घटी। दूसरी ओर कोकराझाड़ और बोडो बहुल इलाके में भी समय-समय पर आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के लोग सामूहिक रूप से मारे गए, परंतु उसके उपरांत ऐसी घटनाएं नहीं घटीं जिनसे सांप्रदायिकता का फैलाव हो। यहां के लोग सदैव ऐसी घटनाएं रोकने के लिए कार्य करते रहे हैं। इन घटनाओं के बाद जमात- उल मुजाहिद्दीन बांग्लादेश (जेएमबी) की ओर से मामले को सांप्रदायिक रूप देने के लिए तैयारी जरूर शुरू हुई थी, परंतु उन सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया जो माहौल को खराब करने की तैयारी में थे। उल्लेखनीय है कि असम श्रीमंत शंकरदेव और अजान फकीर की धरती कही जाती है। दोनों महापुरुष सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक रहे हैं। ऐसे में यहां सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन कम ही मिल पाता है।
यदि हम असम आंदोलन को याद करें, भाषा आंदोलन की गतिविधियों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलेगा कि असम आंदोलन राज्य में रह रहे अवैध बांग्लादोशियों के खिलाफ था, उसका आधार कतई धार्मिक नहीं था। इसलिए इस आंदोलन में सभी जाति और धर्म के लोग शामिल थे। भाषा आंदोलन का उद्देश्य असमिया भाषा को अपनी पहचान दिलाना था। इसलिए इस आंदोलन ने कभी भी सांप्रदायिक रूप धारण नहीं किया। साथ ही यहां के कथित जातीय संगठनों और राज्य की कथित अस्मिता के लिए हथियार उठाकर आतंक फैलाने वाले संगठनों में भी सांप्रदायिकता के लिए जगह नहीं है।
अखिल असम छात्र संघ (आसू) के मुख्य सलाहकार डॉ. समुज्जवल भट्टाचार्य सदैव कहते हैं, ‘अवैध विदेशियों के खिलाफ जारी मुहिम को धर्म और जाति के नाम नर नहीं बांटा जा सकता है। विदेशी विदेशी है, भले ही उसकी जाति जो भी हो, उसका धर्म कुछ भी हो। हम जाति और धर्म के नाम पर अवैध विदेशियों में विभाज्य रेखा खींचना नहीं चाहते हैं।’ संभवत: यही कारण है कि राज्य में नागरिकता संशोधन विधेयक को समर्थन नहीं मिल रहा है। राज्य के अधिकांश राजनीतिक, सामाजिक और छात्र संगठन धर्म के नाम पर अवैध नागरिकों के नाम पर समझौता करने को तैयार नहीं हैं। मसौदा सूची में 40 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर रखा गया है, जिसमें बड़ी संख्या में स्थानीय और भारतीय नागरिक हैं। ऐसे में मौलाना कमरुज्जमा का कहना है, ‘एनआरसी की मसौदा सूची आने के बाद उन दावों की पोल खुल गई है जिसमें कहा जाता था कि 80 लाख बांग्लादेशी हैं, 50 लाख बांग्लादेशी हैं। वर्तमान समय में 40 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर रखा गया है, उनमें से आधे से अधिक भारतीय नागरिक हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अब तक देश में बांग्लादेशियों को लेकर जो भ्रम फैलाया जा रहा था, वह सही नहीं है।’ 

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