प्रदीप सिंह/ओपिनियन पोस्ट

कहते हैं कि राजनीति में कभी कोई वैक्यूम (खालीपन या शून्य) नहीं रहता। इसलिए राजनीतिक दलों को हमेशा सन्नद्ध रहना चाहिए कि जहां भी कोई जगह खाली हो या खाली होने की संभावना हो उसे भरने की तैयारी रहे। पिछले चार सालों की राजनीतिक स्थिति या चुनावी राजनीति देखें तो साफ हो जाएगा कि कांग्रेस की इस दुर्दशा और भाजपा के विजय रथ के आगे बढ़ते रहने का कारण क्या है। कांग्रेस जो जगह खाली कर रही है उसे भरने के लिए भाजपा हमेशा तैयार नजर आती है। भाजपा या दूसरे दल जो जगह खाली कर रहे हैं या खाली होने की संभावना हो सकती है उसे भरने के लिए कांग्रेस तैयार नहीं है। कांग्रेस बार बार अवसर गंवा रही है और भाजपा कठिन परिस्थितियों को भी अवसर में बदलने में कामयाब हो रही है। कांग्रेस सामने अवसर होने पर भी लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रही। यही वजह है कि देश में कांग्रेस शासित राज्यों की संख्या घटकर चार रह गई है और भाजपा शासित राज्यों की संख्या बढ़कर इक्कीस हो गई है। नरेन्द्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बने तो सिर्फ छह राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब और गोवा में भाजपा की सरकारें थीं। चार साल में भाजपा ने केवल पंजाब खोया है और सोलह नए राज्यों में उसकी सरकार बनी है। यह तथ्य भाजपा के लगातार विकास और कांग्रेस के ह्रास की कहानी बयां करता है।

इन चार सालों में भाजपा और कांग्रेस ने क्या किया है इसे हाल में हुए दो राज्यों के विधानसभा चुनाव से समझा जा सकता है। गुजरात में भाजपा पिछले तेइस साल से सत्ता में है। राज्य में दो ही पार्टियां हैं भाजपा और कांग्रेस। ऐसे में सत्ता विरोधी रुझान के वोटों के बंटवारे का भी कोई खतरा नहीं था। राज्य से भाजपा के सबसे कद्दावर नेता नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री के रूप में नहीं थे। कांग्रेस का मुकाबला विजय रूपानी से था। चुनाव में कोई धार्मिक मुद्दा भी नहीं था जिससे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो सके। जीएसटी लागू करने से हुई मुश्किलों के कारण भाजपा का पारम्परिक समर्थक व्यापारी वर्ग उससे नाराज था। किसानों में राज्य सरकार के प्रति भारी नाराजगी थी। इस सबके बावजूद कांग्रेस मतदाता का भरोसा जीतने में नाकाम रही। उसकी सीटें जरूर बढ़ीं पर इतनी नहीं कि वह भाजपा को सत्ता से हटा सके। दूसरा राज्य है त्रिपुरा। त्रिपुरा में 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 1.58 और कांग्रेस को पैतीस फीसदी वोट मिले थे। भाजपा के सिर्फ एक उम्मीदवार की जमानत बची थी। कांग्रेस के दस विधायक थे। कांग्रेस के विधायकों को ताजा विधानसभा चुनाव से एक डेढ़ साल पहले ही समझ में आ गया था कि राज्य में राजनीतिक बयार सत्तारूढ़ दल के खिलाफ बह रही है। अपनी पार्टी के राज्य और शीर्ष नेतृत्व के रवैये से निराश होकर छह विधायक तृणमूल कांग्रेस में चले गए। पर ममता बनर्जी भी तो कांग्रेस की संस्कृति की देन हैं। उन्होंने त्रिपुरा की ओर भी कदम बढ़ाने की बजाय पश्चिम बंगाल तक ही अपने को महदूद रखना बेहतर समझा। नतीजा यह हुआ कि ये छह और एक और कांग्रेसी विधायक भाजपा में शामिल हो गए। यह जानते हुए कि भाजपा आजतक राज्य में एक भी सीट नहीं जीती है। तत्कालीन मुख्यमंत्री माणिक सरकार की सरकार के प्रति आम लोगों की बढ़ती नाराजगी, कांग्रेस और तृणमूल के रवैये के मद्देनजर भाजपा ने अपने लिए अवसर देखा। साढ़े तीन साल पहले सुनील देवधर को प्रदेश का प्रभारी बनाकर भेजा गया। उन्होंने शून्य से अपनी चुनावी यात्रा शुरू की और बूथ स्तर तक कार्यकर्ता समर्थक जोड़े। प्रदेश वनवासियों की अस्मिता की राजनीति को भी साधा। वनवासियों और बांग्ला भाषी लोगों के बीच से मतभेद, संदेह दूर किए। माणिक सरकार के खिलाफ लोगों को गोलबंद किया। त्रिपुरा की जीत भाजपा की विचारधारा की जीत है। उसने पहली बार किसी राज्य में वामपंथियों को हराकर सत्ता हासिल की है।

इस नतीजे से माकपा में भारी उथल पुथल है। पार्टी में पहले से ही सीताराम येचुरी और प्रकाश करात या कहें कि बंगाल बनाम केरल लाइन का संघर्ष चल रहा है। बंगाल में विधानसभा में तो नहीं पर जमीन पर भाजपा माकपा को हटाकर नम्बर दो की पार्टी बन गई है। त्रिपुरा की जीत से पश्चिम बंगाल और केरल में उसके नेताओं व कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं। इन दोनों राज्यों में भाजपा की स्थिति त्रिपुरा से बेहतर है। पर लड़ाई त्रिपुरा से बहुत ज्यादा कठिन। माकपा समझ नहीं पा रही है कि वह कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़े या नहीं। मुश्किल यह है कि साथ चुनाव लड़े तो केरल में क्या होगा। केरल में तो कांग्रेस और माकपा ही आमने सामने हैं। कांग्रेस की मुश्किल है कि वह पश्चिम बंगाल में ममता के साथ रहे या माकपा के। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी साथ आए। नारा लगा यूपी को साथ पसंद है और यूपी के दो लड़के। पर प्रदेश के मतदाताओं को न तो साथ पंसद आया और न ही लड़के। अब दो लोकसभा सीटों गोरखपुर और फूलपुर के लिए उप चुनाव में यूपी के दो लड़के अलग अलग लड़े। इस बार बूआ और भतीजा साथ हो गए।

भाजपा के इस विस्तार से कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। चुनाव में हार जीत तो होती रहती है। एक चुनाव हारने से कोई पार्टी खत्म नहीं हो जाती। पर कांग्रेस की स्थिति अलग है। वह जहां चुनाव हार रही है उनमें ज्यादातर जगहों पर उसका सफाया हो रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि पार्टी के बड़े नेताओं को जैसे इसका इल्म ही नहीं है। लोकप्रिय कवि दुष्यंत की एक गजल का शेर याद आता है- ‘तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं।’ पिछले दिनों एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में सोनिया गांधी ने कहा कि 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शाइनिंग इंडिया जैसा ही नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिन का हश्र होगा। उन्हें लग रहा है कि 2004 की तरह बिना कुछ किए ही कांग्रेस फिर से सत्ता में आ जाएगी। उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं है कि पिछले चार सालों में देश की नदियों में बहुत पानी बह चुका है। 2019 में 2004 की उम्मीद दिवा स्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं है। उस समय की कांग्रेस की ताकत और जनाधार की तुलना आज की कांग्रेस से नहीं की जा सकती। और उस समय की भाजपा और आज की भाजपा में तो कोई तुलना ही नहीं है।

राजनीति में बाजी पलटते देर नहीं लगती। पर यह भी सही है कि बिना परिश्रम के बाजियां नहीं पलटतीं। कांग्रेस के सामने भाजपा को चुनौती देकर हराने से पहले ढलान से उठकर समतल जमीन पर आने की चुनौती है। अनुकूल परिस्थितियों में भी अगर बाजी हाथ से निकल जा रही है तो जाहिर है कि कुछ बुनियादी खामी है। भाजपा की इस समय चढ़दी कलां है। उसके साथ जीत का आवेग है। जमीन पर सबसे नीचे खड़े कार्यकर्ता तक पहुंचकर काम करने वाला अध्यक्ष है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में एक ऐसा लोकप्रिय नेता है जिसकी संवाद की क्षमता के सब कायल हैं। तमाम नकारात्मक खबरों के बावजूद जिसकी विश्वसनीयता कम नहीं हो रही है। इसके बरक्स कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसके नेता पर लोगों का भरोसा जम ही नहीं पा रहा है। राहुल गांधी की आम छवि एक अगंभीर राजनेता के तौर पर स्थापित हो गई है। वे अपनी इस छवि को तोड़ने का कोई सतत गंभीर प्रयास नहीं कर रहे हैं। बीच बीच में अचानक उनका राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो जाना उनकी अगंभीरता की छवि को और पुष्ट करता है। एक बात तो तय है कि 2019 के किसी भी सूरत में 2004 होने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आ रहे।