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लोकसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं. कुछ पुराने गठबंधन टूट रहे हैं, तो नए गठबंधन भी बन रहे हैं. इस बीच बिहार में स्थितियां बदली हैं. पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव के समय जो दल एक साथ मैदान में उतरे थे, उनमें से कुछ एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते दिख रहे हैं. ऐसे में राज्य की 40 लोकसभा सीटों पर कब्जा करने के लिए बने नए गठबंधनों में राजग का पलड़ा भारी दिखाई दे रहा है. 

चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक दल जीत-हार का गणित लगाना शुरू कर देते हैं. खुद को मजबूत करने के साथ-साथ प्रतिद्वंद्वी को कमजोर करना भी इसी रणनीति का हिस्सा माना जाता है. आजकल अपनी ताकत बढ़ाने का एक जरिया दूसरे दलों के साथ गठबंधन करना भी हो गया है. ऐसे में सहयोगियों को बचाए रखना और नए सहयोगी बनाना, दोनों ही बड़ी चुनौती होती है. बिहार में कुछ ऐसा ही हो रहा है. साल 2014 से लेकर अब तक राजनीतिक दलों ने इतनी करवटें बदली हैं कि सामान्य तौर पर इसे याद रखना भी मुश्किल दिखाई पड़ता है. करीब एक दशक तक भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने वाले नीतीश कुमार अचानक उसे छोडकऱ चले जाते हैं. लोकसभा चुनाव में हार के बाद उसी दल के साथ गठबंधन करते हैं, जिसके विरोध को सीढ़ी बनाकर सत्ता तक पहुंचे थे. लेकिन बाद में वह फिर उसी नाव पर सवार हो जाते हैं, जिसके खेवनहार के विरोध में वह कभी उतर गए थे. यह स्थिति केवल राजग में नहीं है, बल्कि राजद के साथ जाने वाले दलों का इतिहास यही है. मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद नीतीश के घोर आलोचक बन गए जीतन राम मांझी कभी भाजपा की प्रशंसा में कसीदे गढ़ते नजर आते थे और लालू यादव के दौर की आलोचना करते थकते नहीं थे, लेकिन आज उनकी स्थिति विपरीत हो गई है. आजकल वह राजद के रथ पर सवारी कर रहे हैं और भाजपा की नीतियों की धज्जियां उड़ाते नजर आ रहे हैं.

हालांकि, उनके लगातार बदलते बयानों और व्यवहार से लगता है कि कहीं वह फिर से राजद विरोधी न बन जाएं. उन्होंने कहा कि अगर महागठबंधन में उन्हें सम्मानजनक सीटें नहीं दी गईं, तो वह लोकसभा चुनाव का बहिष्कार करेंगे. ठीक इसी तरह रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा ने भी अपना पाला बदला है. केंद्र में करीब साढ़े चार साल तक मंत्री रहे कुशवाहा ने पुराने सहयोगी भाजपा का साथ छोड़ दिया और राजद के साथ महागठबंधन में शामिल हो गए. हालांकि, राजग में शामिल दलों के बीच सीटों का बंटवारा हो चुका है और उसकी औपचारिक घोषणा भी हो गई है. लेकिन जिन दलों ने महागठबंधन में अपना विश्वास जताया है, उनके बीच सीटों की साझेदारी पर अंतिम फैसला होना अभी बाकी है. कुछ दिनों पहले ही रांची में लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव एवं रालोसपा नेता उपेंद्र कुशवाहा के बीच बैठक हुई थी. इस बैठक को भले ही औपचारिक बताया गया, लेकिन मुलाकात का मुख्य उद्देश्य लोकसभा चुनाव में सीटों की साझेदारी ही थी. लालू यादव और कुशवाहा की बैठकों के बीच महागठबंधन में कुछ दरार भी दिखाई दी. हिंदुस्तान अवाम मोर्चा की ओर से कहा गया कि अगर उसे सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं, तो लोकसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया जाएगा. ऐसे में कहा जा सकता है कि अभी महागठबंधन का अंतिम स्वरूप सामने नहीं आया है, लेकिन जिन दलों के इसमें शामिल होने की प्रबल संभावना है, उसके आधार पर नए नए समीकरणों का गणित आसानी से समझा जा सकता है.

देखा जाए तो बिहार में फिर से दो नए गठबंधन बने हैं. एक ओर भाजपा, जदयू व लोजपा है, तो दूसरी ओर राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हिंदुस्तान अवाम मोर्चा, लोकतांत्रिक जनता दल, विकासशील इंसान पार्टी व संभवत: एनसीपी है. विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) मुकेश सहनी की है, जो निषाद समाज के नेता हैं और इस वर्ग को न्याय दिलाने की बात करते नजर आते हैं. उन्होंने पहले राजग और महागठबंधन, दोनों के लिए अपने दरवाजे खोल रखे थे, लेकिन जब राजग की ओर से कोई संकेत नहीं मिला, तो उन्होंने राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन से संपर्क साधा और उसका हिस्सा बन गए. उसी तरह बिहार में फिर से भाजपा जदयू से नाराज होने के बाद नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले शरद यादव ने लोकतांत्रिक जनता दल का गठन किया और वह भाजपा विरोधी गुट में शामिल हैं. राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन रहा और लोकसभा चुनाव के लिए भी अलग-अलग राज्यों में उनके भाजपा विरोधी गुटों के साथ जाने की पूरी उम्मीद है. अब राजग और महागठबंधन की बदलती स्थितियों का बिहार की 40 लोकसभा सीटों के परिणाम पर क्या असर होने वाला है, यह तो समय बताएगा, लेकिन अगर पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में सभी दलों को मिले वोटों पर एक नजर डालें, तो वर्तमान गठबंधनों की स्थिति का मोटे तौर पर अनुमान लगाया जा सकता है. सबसे पहले बात करते हैं लोकसभा चुनाव 2014 की. इस चुनाव से पहले जदयू ने भाजपा का साथ छोडकऱ अकेले लडऩे का निर्णय लिया था. इस चुनाव में राजद और जदयू के बीच गठबंधन नहीं हुआ था. दोनों ने अलग अलग चुनाव में जाने का निर्णय लिया था. जदयू से गठबंधन टूटने के बाद भाजपा ने एक नया गठबंधन बनाया, जिसमें लोजपा और रालोसपा शामिल थीं.  राज्य की 40 सीटों में से राजग को कुल 31 सीटों पर जीत मिली थी, जिसमें भाजपा को 22, लोजपा को छह और रालोसपा को तीन सीटें मिली थीं. वहीं जदयू को दो, राजद को चार, कांग्रेस को दो और एनसीपी को एक सीट मिली थी. अगर नए समीकरण की बात करें, तो अब भी राजग के पास 30 सीटें हैं, जबकि महागठबंधन के पास रालोसपा की दो सीटों (अरुण कुमार के बाहर होने के बाद) को मिलाकर नौ सीटें हैं.

अगर वोटों की हिस्सेदारी की बात करें, तो पिछली बार भाजपा को 29.40 प्रतिशत, लोजपा को 6.40 प्रतिशत और जदयू को 15.80 प्रतिशत वोट मिले थे. यानी इस बार के गठबंधन के अनुसार, राजग के पास 51.60 प्रतिशत वोट हैं, जबकि महागठबंधन के सहयोगियों यानी राजद के 20.10, कांग्रेस के 8.40, एनसीपी के 1.20 और रालोसपा के तीन प्रतिशत वोटों के साथ वोटों की हिस्सेदारी 32.7 प्रतिशत बनती है. अगर पिछले लोकसभा चुनाव में मिले जनसमर्थन को आधार बनाएं, तो वर्तमान में राजग की स्थिति महागठबंधन से बेहतर दिखाई पड़ रही है. लोकसभा चुनाव में चूंकि राजद और जदयू का गठबंधन नहीं था, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि जदयू को राजद समर्थकों ने भी वोट दिए थे. ऐसी स्थिति में माना जा सकता है कि जदयू को वोट देने वाले उसके अपने समर्थक थे, जिनके खिसकने की आशंका बहुत कम है. हालांकि, भाजपा समर्थकों में कुछ बदलाव की गुंजाइश हो सकती है, क्योंकि उस समय भाजपा विपक्ष में थी और कहीं अधिक आक्रामक थी. लेकिन अब पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद विपक्ष के पास कई मुद्दे हैं. इसके अलावा नरेंद्र मोदी का जादू कम होने की बात भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती. सत्ता विरोधी लहर का असर दिखने के आसार बरकरार हैं. बावजूद इसके राजग और महागठबंधन के बीच के करीब 19 प्रतिशत वोटों का अंतर पाटना मुश्किल दिखाई पड़ता है.

इसी तरह विधानसभा चुनाव 2015 की बात करें, तो यहां भी राजग की स्थिति महागठबंधन से अच्छी है. पिछले विधानसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस एवं जदयू ने महागठबंधन बनाया था और राजद को 18.4 प्रतिशत, जदयू को 16.8 प्रतिशत एवं कांग्रेस को 6.7 प्रतिशत वोट मिले थे. यानी महागठबंधन को कुल 41.70 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. वहीं राजग में भाजपा को 24.4 प्रतिशत, लोजपा को 4.8 प्रतिशत, रालोसपा को 2.6 प्रतिशत एवं हिंदुस्तान अवाम मोर्चा को 2.3 प्रतिशत वोट मिले थे. यानी राजग को तब कुल 34.1 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. लेकिन अब गठबंधनों की स्थिति बदल गई है. राजग में जदयू शामिल हो गया है, जबकि महागठबंधन में रालोसपा और हम. ऐसे में राजग का वोट प्रतिशत अब 46 हो गया है, जबकि रालोसपा और हम के शामिल होने के बावजूद महागठबंधन का वोट प्रतिशत केवल 30 है. मतलब यह कि नए गठबंधन के बाद राजग का वोट प्रतिशत महागठबंधन से करीब 16 ज्यादा है. चार साल से अधिक समय में मुद्दे बदले हैं और लोकप्रियता में बदलाव हुआ है, जिसके चलते वोट प्रतिशत में भी बदलाव होने की उम्मीद है. लेकिन, अगर राजग का पांच प्रतिशत वोट इधर उधर होता है, तो भी महागठबंधन से उसकी स्थिति अच्छी बनी रह सकती है.