उमेश सिंह

अग्रिधर्मी मिजाज के क्रांतिकारी कवि शलभ श्रीराम सिंह की एक कविता का यह अंश ‘वतन की राह पर हुए हैं शौक से जो बेवतन, उन्हीं की आह बेअसर, उन्हीं की लाश बेकफन’ हृदय में शूल की तरह चुभता रहा, बेधता रहा और दर्द देता रहा। जंग-ए-आजादी के शूरवीरों की शहादत को नमन करने के लिए ‘आजादी के डगर पर पांव’ यात्रा के दौरान। तकरीबन साढ़े बाइस सौ किलोमीटर के मार्ग में क्रांतिकारी चेतना की प्रसवभूमि सिसकती-सुबगती मिली। आजादी के यज्ञ में अपनी जवानी को होम कर देने वाले, ताउम्र सागर मंथन कर आजादी रूपी अमृत का घूंट पिलाने वालों को आखिर मिला क्या? सूरत-ए हाल देख महसूस हुआ कि जब बहारों के दिन आए तो इन्हें अमृत की जगह विष मिल गया। जिस माटी को चंदन की तरह पूजित होना चाहिए, वहां ध्वंसों का इतिहास शिलापट्टों में बिखरा पड़ा है। उदासी है, बेबसी है और मानो आजादी की जंग से जुड़े ये स्थान अपने कायाकल्प के लिए टकटकी लगाए किसी का इंतजार कर रहे हैं। बरहज से निकली आजादी की डगर पर पांव यात्रा चौरीचौरा, गोरखपुर, सहजनवा, गोंडा, लखनऊ, कोकोरी, शाहजहांपुर, बरेली, हरदोई, फतेहगढ़, बेवर, औरैया, कानपुर, बदरका, इलाहाबाद होते हुए ‘आधा जल में, आधा मंत्र में’ वाले शहर काशी पहुंची। सत्तावनी क्रांति के केंद्र फैजाबाद में पहुंच समाप्त हो गई।

बरहज में रामप्रसाद विस्मिल की अस्थियां संत राघवदास ले गए थे और वहां पर समाधि बनवाई थी। आश्रम परिसर में ही समाधि है जहां पर विस्मिल की मूर्ति पर माल्यार्पण हुआ। यात्रा का अगला पड़ाव चौरीचौरा था जो इतिहास में ‘चौरीचौरा कांड’ के रूप में मशहूर है। यहां पर दो स्तंभ स्थापित हैं। एक किसानों का स्मारक है जो थाने के बाहर है और दूसरा स्मारक थाने के भीतर है जो उन पुलिसकर्मियों को समर्पित है जो इस कांड में मारे गए थे। यह देख आश्चर्य हुआ कि आजादी के 70 साल बाद भी गुलामी को संरक्षित करने वालों का स्मारक खड़ा है जिसे वार फंड से हर माह छह सौ रुपये मिलता है जो यहां के माली को दिया जाता है। अगले चरण में दीन दयाल विश्वविद्यालय, गोरखपुर में यात्रा में शामिल लोगों का भाषण हुआ और फिर यह कारवां गोरखपुर जेल की ओर चल पड़ा, जहां पर राम प्रसाद विस्मिल को फांसी दी गई थी। जेल में शहीद कक्ष 12 बाई 8 फुट का है। इसी तनहाई बैरक में विस्मिल को कैद किया गया था। फांसी घर के सामने खड़े होकर लोगों ने शहीदों के सपनों का भारत बनाने का संकल्प लिया। यहीं पर पहले मोती जेल भी थी, जिसे गिरा दिया गया। यहीं पर खूनी कुंआ भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी में क्रांतिकारियों को फेंक दिया जाता था। पास में ही वटवृक्ष है जिसकी शाखाओं में टांग दिया जाता था। कोतवाली गोरखपुर में तीन शहीदों की मजारों पर भी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। ये सभी 1857 में शहीद हुए थे। वर्ष 1942 में सहजनवा के डोहियाकला गांव में चल रही किसानों की सभा पर अंधाधुंध फायरिंग हुई जिसमें 19 किसान शहीद हुए थे। सहजनवा में उस स्मृति पर उपेक्षा का जंग लग गया है क्योंकि यहां पर जो वाचनालय/पुस्तकालय है, उसमें खिड़की दरवाजे तक नहीं हैं और घास-फूस से घिरा हुआ है।
गोंडा राजेंद्र लाहिड़ी की शहादत स्थली है। जेल का फांसीघर वैसे तो अब जेल के बाहर है और वहां पर शहीद राजेंद्र लाहिड़ी की मूर्ति लगी है लेकिन इसके चारों ओर लकड़ी, मिट्टी, मोरंग और मलबा बिखरा हुआ हैै। ‘आजादी की डगर पर पांव’ लखनऊ पहुंचा। यहीं के जीपीओ में काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा चला था। यहां पर काकोरी स्तंभ जरूर स्थापित है लेकिन इसे अदृश्य सा कर दिया गया है। खोजने पर ही इसके मिलने की संभावना है। वक्ताओं ने इसे काकोरी पार्क घोषित किए जाने की मांग भी की। लखनऊ में ही सिटी मांटेसरी स्कूल है, जिसका गहरा रिश्ता जंग-ए-आजादी के शूरवीरों को खाद-पानी देने वाली दुर्गा भाभी से रहा है। यहां पर स्थापित उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण हुआ। गौरतलब है कि क्रांतिकारियों के बारे में यहां पर खूब दस्तावेज हैं। क्रांतिकारी इतिहास के लेखन में इन दस्तावेजों के अध्ययन से बड़ी मदद मिल सकती है। स्वतंत्रता आंदोलन में काकोरी जितना चमकदार रहा, आजादी के बाद की सरकारों के कार्यकाल में यह उतना ही भौतिक रूप से धूमिल हो गया। यहां पर सिर्फ एक हाल है जिसमें काकोरी के शहीदों की मूर्तियां लगी हुई हैं। काकोरी कांड में 10 वर्ष की सजा पाए रामकृष्ण खत्री के पुत्र उदय खत्री भी यहां पर हुए कार्यक्रम में पहुंचे थे। यह यात्रा शहीदों के शहर शाहजहांपुर पहुंची। यहां के शहीद पार्क स्थित राजेंद्र लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खां, रोशन और विस्मिल की मूर्तियों पर माल्यार्पण के बाद अंग्रेजी हुकूमत की ओर से उनके साम्राज्य का नबंर एक दुश्मन घोषित किए गए मौलवी अहमद उल्ला शाह ‘डंका शाह’ की मजार पर पहुंची। यह मजार शहर से बाहर है। अशफाक की मजार पर भी लोग गए जहां पर अशफाक के पौत्र अशफाक उल्लाह खां भी मौजूद थे। इन दोनों मजारों पर चादरपोशी व गुलपोशी की गई। यात्रा का अगला मुकाम बरेली का बारहट पार्क था जहां का आर्य समाज मंदिर हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए नजीर के रूप में पेश किया जाता है। यहीं पर विस्मिल और अशफाक साथ-साथ रहते थे और एक ही थाली में भोजन करते थे। हरदोई शहर से दो किलोमीटर दूर ख्यातिलब्ध सेनानी जयदेव कपूर के वंशज रहते हैं। जयदेव कपूर के पौत्र सुयश कपूर ने कीमती घड़ी व जूता दिखाते हुए दावा किया कि यह भगत सिंह का है। जब वह असेंबली में बम फेंकने जा रहे थे तो उन्होंने ये दोनों सामान जयदेव कपूर को दे दिए थे। जयदेव कपूर का जूता पुराना व फटा था जिसे उन्होंने पहन लिया था। फतेहगढ़ सेंट्रल जेल में भी यात्रा पहुंची, जहां पर बड़ी तादात में क्रांतिकारियों को कैद किया गया था। मैनपुरी के बेवर स्थित शहीद मंदिर मेंं 25 मूर्तियां स्थापित हैं। भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों की गोली से यहां की माटी लाल हो गई थी। शहीद वंशज राज त्रिपाठी शहीदों की याद में हर वर्ष 19 दिन का शहीद मेला आयोजित करते हैं जिसमें शहादत के जज्बे को नमन किया जाता है। औरैया चौराहे पर विस्मिल के गुरु माने जाने वाले गेंदालाल दीक्षित की मूर्ति के सामने सिर झुकाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।

गौरतलब है कि चंबल बीहड़ के डकैतों को लेकर कुख्यात रहा लेकिन मातृवेदी संगठन के शिल्पी गेंदालाल ने उसे क्रांतिकारियों की भूमि के रूप में नई पहचान दिलाई। अंग्रेजी शासन की शोषणकारी प्रवृत्तियों के खिलाफ अग्रिधर्मी शब्दों के जरिये उनको पसोपेश में डाल देने वाला प्रताप प्रेस भी काल के क्रूर थपेड़ों से नहीं बच सका। गणेशशंकर पांडेय का जर्जर प्रताप प्रेस भवन तीन मंजिला है जिसमें चार जीना है। यहां पर तकरीबन ढाई सौ परिवार मौके पर आबाद है। गणेश शंकर पांडेय की मूर्ति के ऊपर छत नहीं है जिसे यहां की जनता बनवा रही है।
यहां से यात्रियों का जत्था चंद्रशेखर आजादी के गांव बदरका (उन्नाव) की ओर चल पड़ा। यहां पर अनगिनत शिलापट्ट जहां तहां लगे हैं। ये सभी शिलापट्ट तस्दीक करते हैं कि देश के बड़े से बड़े से नेता यहां पर आए और पत्थर लगाकर भूल गए। आजाद के नाम पर पार्क है लेकिन वह छुट्टा जानवरों का बसेरा है। पुस्तकालय है लेकिन खिड़की और दरवाजा जर्जर स्थिति में है। गांव में ही आजाद की मां जगरानी देवी का कच्चे घर का मकान था। यहां पर जगरानी देवी की मूर्ति और स्मारक है। आजाद के गांव के बाद उनकी शहादत स्थली इलाहाबाद के शहीद पार्क में प्रवेश के लिए पांच रुपये शुल्क की व्यवस्था के प्रति यात्रियों ने विरोध जताया। यहीं साउथ मलाका स्थित शहीद रोशन सिंह की मूर्ति के पास पहुंचे, जो कि उपेक्षित स्थिति में है। पहले यहां पर जेल हुआ करती थी और यहीं पर रोशन सिंह को फांसी दी गई थी। संगमनगरी से ‘आधा जल में, आधा मंत्र में’ कही जाने वाली काशी की ओर प्रस्थान हुआ जहां पर भारत माता मंदिर व बीएचयू के सिंह द्वार पर कार्यक्रम हुआ। एक अगस्त को बरहज से निकली यात्रा सात अगस्त को सत्तावनी क्रांति के प्रमुख केंद्र फैजाबाद पहुंची जहां पर जेल स्थित फांसी घर में अशफाक उल्लाह खां की मूर्ति पर माल्यार्पण के साथ ही समापन हो गया। अशफाक उल्लाह खां शहीद शोध संस्थान, शहीद मेला समिति और अवाम का सिनेमा ने ‘आजादी की डगर पर पांव’ यात्रा का आयोजन किया था जिसमें प्रमुख रूप से सूर्यकांत पांडेय, इंजीनियर राज त्रिपाठी और शाह आलम के नेतृत्व में एक अगस्त से सात अगस्त तक यात्रा चली जिसमें शहीदों के वंशज बड़ी तादात में जगह-जगह शरीक हुए। सूर्यकांत पांडेय ने तल्खी भरे स्वर में कहा कि आजादी के बाद शहीदों को विस्मृत करने की सत्ता की साजिशें चल रही हैं। चौरीचौरा में दो स्तंभ हैं, एक किसानों का तो दूसरा उन पुलिसकर्मियों का जो आजादी की राह में रोड़ा बने और मार डाले गए। आश्यर्च है कि जिन्होंने गुलामी को बचाए रखने की कोशिश में मारे गए, उनके स्मारक को वार फंड से आज भी छह सौ रुपये प्रतिमाह मिलता है।

क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य की स्मृतियां सहेजने की कोशिश
क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य और विस्मिल के गुरु कहे जाने वाले औरैया के गेंदालाल दीक्षित ‘गिंदन’ की स्मृतियों को सहेजने के लिए सतत प्रयासरत डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य मनोज दीक्षित को थोड़ी सी सफलता मिली है। उनके कई वर्षों के अथक प्रयास के बाद गिंदन साहित्य मंदिर डालीबाग की ओर से 1959 में प्रकाशित गिंदन स्मारक माला-तृतीय पुष्प के सिर्फ 64 पन्ने मिले जिसे उन्होंने डिजिटल रूप में कराकर सुरक्षित कर दिया है। आचार्य मनोज दीक्षित ने कहा कि स्मृतियां मनुष्य को रचती हैं। समाज और देश को भी। स्मृतिविहीन राष्ट्र हिंसक, क्रूर और दुस्साहसी हो जाने-अनजाने में वह पथ पकड़ लेता है जिसकी मंजिल पर अंधेरे से भरा कूप होता है और वह उसी में गिर जाता है। देश में शहीदों की स्मृतियों को उपेक्षित कर दिया गया। उस पर पड़ी वक्त की धूल को साफ करने की जरूरत है जिससे नई पीढ़ी आजादी के मूल्य को जान सके।

काकोरी एक्शन डे पर बिखरीं आंदोलन की यादें
अवध विश्वविद्यालय में काकोरी एक्शन डे पर शहीदों की याद में तीन दिवसीय आयोजन हुआ। कुलपति आचार्य मनोज दीक्षित ने अवाम के सिनेमा की ओर से आयोजित ग्यारहवें अयोध्या फिल्म फेस्टिवल का पोस्टर रिलीज किया जिसमें काकोरी कांड के शहीदों की तस्वीरें प्रदर्शित थीं। काकोरी केस से जुड़े दस्तावेजों की प्रदर्शनी, सेमिनार, पुस्तक विमोचन, फोटो प्रदर्शनी, चंबल पोस्टर प्रदर्शनी, नाटक और फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। अवाम के सिनेमा के संयोजक शाह आलम ने कहा कि हमारा प्रयास सांस्कृतिक यथार्थ को सामने लाना है। फिल्म महोत्सव के संयोजक ओमप्रकाश सिंह महोत्सव से संबंधित तथ्यों से लोगों को रूबरू कराया। कार्यक्रम में तात्या टोपे के वंशज विनायक राव टोपे गेंदालाल दीक्षित के प्रपौत्र डॉ. मधुसूदन दीक्षित, रोशन सिंह की प्रपौत्री सरिता सिंह आदि सेनानी वंशज शरीक हुए।