प्रदीप सिंह (प्रधान संपादक/ओपिनियन पोस्ट)।

उत्तर प्रदेश राजनीतिक संस्कृति की गिरावट की प्रयोगशाला बन गया है। कौन कितना गिर सकता है इसकी कोई सीमा नहीं रह गई है। नेता अपने बारे में कही गई बातों, टिप्पणियों के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। वही नेता दूसरों के बारे में सोच समझकर ऐसी बातें बोलते हैं कि सुनने वाले को शर्म आए। भाजपा नेता दयाशंकर सिंह ने बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के बारे में जो कहा उससे उनकी पार्टी को शर्मिंदा होना पड़ा। उसके जवाब में मायावती ने राज्यसभा में और उनकी पार्टी के नेताओं ने लखनऊ की सड़कों पर जो कहा उससे पूरा समाज शर्मिंदा हुआ। अपने प्रति शर्मनाक बयान पर मायावती जितनी उद्वेलित थीं दयाशंकर सिंह के परिवार के बारे में की गई टिप्पणियों से उतनी ही प्रफुल्लित। इससे स्पष्ट है कि मानवीय संवेदना जैसा कोई भाव उनके मन में नहीं है। दोनों मामलों में उन्हें राजनीतिक लाभ नजर आया। पहले मामले से उन्हें लगा कि उनका खिसकता दलित जनाधार अब कमजोर होने की बजाय मजबूत हो जाएगा। क्योंकि दलित समाज दलित की बेटी के अपमान का बदला तो लेगा ही। इसलिए उन्होंने इस मुद्दे को हवा दी। उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता चौबीस घंटे में आक्रामक मुद्रा में सड़क पर उतर आए। मायावती ने अपनी खुशी को छिपाने की कोशिश किए बिना कहा कि यह दयाशंकर सिंह के परिवार को एहसास दिलाने के लिए था कि ऐसी टिप्पणी पर कैसा महसूस होता है। वह कहने से चूकी नहीं कि उनके लोग उन्हें देवी मानते हैं। उन्हें अच्छा लग रहा था कि संसद से सड़क तक लोग उनके आगे नतमस्तक थे। देवी प्रसन्न थीं। मायावती की प्रसन्नता उसी समय तक रही जब तक दयाशंकर सिंह की पत्नी अपनी सास और बेटी के बचाव में मैदान में नहीं उतरी थीं। एक सामान्य महिला जिसे उसके पहले परिवार, मित्रों और पड़ोसियों के अलावा किसी ने देखा नहीं था, एक देवी के मुकाबले में खड़ी हो गई। फिर चौबीस घंटे बीते नहीं कि मायावती का एक नया रूप सामने आया। देवी अचानक याचना की मुद्रा में थी। स्वभाव की हेठी ने माफी तो नहीं मांगने दिया पर आक्रामकता काफूर हो चुकी थी। एक सामान्य गृहिणी ने देवी के तिलिस्म को ध्वस्त कर दिया। अगले दिन यानी 25 जुलाई को पूरे उत्तर प्रदेश में बसपा का विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। मायावती और नसीमुद्दीन के खिलाफ लखनऊ की हजरतगंज कोतवाली में शिकायत दर्ज हो चुकी थी। मायावती उत्तर प्रदेश पुलिस को संविधान बता रही थीं कि संसद में कही बात पर कोई वाद दर्ज नहीं कराया जा सकता। पहली बार उन्हें भतीजे की याद आई। वे गेस्ट हाउस कांड भी भूल गर्इं। कानून और राजनीति के मोर्चे पर उनके सामने नई समस्या थी। दलितों का जो हिस्सा उनसे छिटक गया है वह इस घटना के बाद जुड़ेगा कि नहीं यह चुनाव के बाद ही पता चलेगा लेकिन सर्वजन का साथ तो उन्होंने खो ही दिया।

सवाल है कि स्वाति सिंह जैसी आम महिला को इतना समर्थन क्यों मिल रहा है। इसका एक ही जवाब हो सकता है कि जब आप सच के साथ खड़े होते हैं तो आपकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है। आज भी लोग असली और नकली का भेद करना जानते हैं। लोगों को पता चल जाता है कि कौन अपने निजी स्वार्थ के लिए नैतिकता को ढाल बना रहा है और कौन सच के साथ खड़ा है। इसीलिए स्वाति को किसी से समर्थन मांगने की जरूरत नहीं पड़ी। यह भारतीय समाज की बहुत बड़ी ताकत है। वह सच के साथ खड़े होने वालों पर भरोसा करने को तैयार है। स्वाति सिंह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ रही हैं। इसलिए मायावती उनके सामने कमजोर नजर आ रही हैं। यह लड़ाई एक मां की अपनी किशोर बेटी के सम्मान की रक्षा की लड़ाई है। वोट, बंटवारे, गाली गलौच की राजनीति सच के सामने हमेशा हारेगी। स्वाति सच और संघर्ष की प्रतीक बन गई हैं। उन्होंने एक बार भी अपने पति का बचाव नहीं किया। क्योंकि वे उस राजनीति में उलझकर अपनी लड़ाई को कमजोर नहीं करना चाहतीं।
मायावती स्वाति से नैतिक ही नहीं राजनीतिक लड़ाई भी हार गई हैं। लोगों को साफ नजर आ रहा है कि कौन कहां खड़ा है। जिस राजनीतिक फायदे के लिए मायावती राजनीतिक विमर्श को इतना नीचे ले गर्इं वह भी उनके हाथ से फिसलता नजर आ रहा है। आगामी विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की जीत का रास्ता सर्वजन के मतदाताओं के समर्थन से होकर ही गुजर सकता था। वह रास्ता उन्होंने और उनके सिपहसालारों ने बंद कर दिया है। अपनी इस गलती का मलाल उन्हें जीवन भर रहेगा। भले ही वे सार्वजनिक रूप से इसे कभी स्वीकार न करें। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में यों तो बहुत से मुद्दे उठेंगे लेकिन एक अहम मुद्दा स्वाति भी होंगी। इस मुद्दे पर मायावती को रक्षात्मक ही रहना पड़ेगा। अपने रास्ते स्वाति नाम का पहाड़ मायावती ने खुद ही खड़ा किया है। कम से कम इस चुनाव में तो वे इसे हटा नहीं पाएंगी। कोई संवेदनशील व्यक्ति और खासतौर से महिलाएं इस मुद्दे पर मायावती का समर्थन तो करने से रहीं।