उदय चंद्र सिंह। झारखंड के नक्सली अब नशे की खेती कर मालामाल हो रहे हैं। हथियार खरीदने में भी अफीम से होने वाली कमाई का इस्तेमाल हो रहा है। ठीक उसी तरह जैसे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकी संगठनों ने अफीम की खेती और उससे होने वाली आय का इस्तेमाल हथियारों की खरीद में किया। इतना ही नहीं ये नक्सली छोटी उम्र के युवकों को कैडर बनाने के लिए भी अफीम का इस्तेमाल कर रहे हैं। पहले उन्हें मादक पदार्थों की लत लगाई जाती है, फिर लड़ाई के लिए तैयार किया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक इस साल झारखंड में करीब तीन हजार एकड़ भूमि पर 1300 क्विंटल अफीम का उत्पादन होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसका मूल्य करीब 130 करोड़ रुपये होगा। यह स्थिति तब है जबकि राज्य में अफीम की खेती के लिए एक भी लाइसेंस अब तक जारी नहीं किया गया है।

दरअसल, नक्सल प्रभावित इलाकों में अफीम की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। प्रति एकड़ एक किसान को तीन से चार लाख रुपये का भुगतान किस्तों में हो रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 8 जिलों में अफीम की खेती धड़ल्ले से चल रही है। अकेले चतरा जिले में करीब एक हजार एकड़ जमीन पर अफीम की खेती लहलहा रही है। लातेहार के 30 से अधिक गांवों में 1000 एकड़ में अफीम के पौधे बड़े हो गए हैं। इन्हें निकालने का काम शुरू हो गया है। मजदूर रात में फलों पर चीरा लगाते हैं और सुबह उससे निकलने वाले लाल रंग के गाढ़े अफीम को एकत्र कर लेते हैं।

बीच बीच में पुलिस अफीम की फसल को नष्ट भी करती है लेकिन यह सब बहुत छोटे स्तर पर होता है या फिर ऐसे मामलों में कार्रवाई होती जो आला अफसरों की नजरों में आ जाता है। चतरा के पुलिस कप्तान अंजनी कुमार झा की मानें तो साल 2016 में अब तक तकरीबन 50 एकड़ में लगी अफीम की फसल को नष्ट किया जा चुका है। चतरा की तरह  हजारीबाग, लातेहार, पलामू, गढ़वा, खूंटी, रांची, साहेबगंज,  जामताड़ा, पाकुड़, कोडरमा, गिरिडीह, सिमडेगा जिले में भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती हो रही है।

ऐसा नहीं है कि पुलिस को इस बारे में कुछ पता नहीं है।  झारखंड  के एडीजी (आॅपरेशन) एसएन प्रधान कहते हैं कि यह सच है कि अफीम की खेती के लिए राज्य में किसी के पास लाइसेंस नहीं है। बावजूद इसके पिछले कुछ सालों में यहां इसकी खेती बढ़ी है। नक्सली इससे जुड़े हैं। पुलिस रोकथाम कर रही है। हमारी कोशिश है कि इस साल टारगेट फिक्स कर अभियान और तेज किया जाए। पुलिस जो भी दावे करे लेकिन अधिकांश इलाके में अफीम की खेती के लिए बीज से लेकर पूंजी तक नक्सली ही मुहैया कराते हैं।

रांची में तैनात पुलिस के एक आला अधिकारी बताते हैं कि नशे के इस कारोबार में लखनऊ और कोलकाता में बैठे कुछ ड्रग माफिया शामिल हैं। इनकी साठगांठ सीआईडी से लेकर नारकोटिक्स विभाग तक के अफसरों से है। इसके अलवा  छोटे स्तर के पुलिसवाले भी अपने अपने इलाके में अफीम की खेती को संरक्षण देने के नाम पर लाखों की वसूली कर रहे हैं। हालांकि सीआईडी की आईजी संपत मीणा का कहना है कि उनका विभाग नारकोटिक्स विभाग के साथ मिलकर अफीम की खेती रोकने की दिशा में लगातार काम कर रहा है। संपत मीणा कहती हैं कि पूरे राज्य के पुलिस अधिकारियों को सतर्क कर दिया गया है। उन्हें निर्देश दिया गया है कि खेती नष्ट करें और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करें। सभी आरक्षी अधीक्षकों को इस संबंध में विशेष निर्देश दिए गए हैं।

पुलिस जो भी दावे करे लेकिन हकीकत यह है कि अफीम की फसल बोने के लिए ड्रग माफिया किस्तों में नक्सलियों तक पैसा पहुंचाते हैं। नक्सलियों के हाथों से यह पैसा किसानों तक पहुंचता है। एक किस्त पहले किसानों को दी जाती है। फसल जब तैयार होने लगती है तो दूसरी किस्त जारी होती है। फिर फसल तैयार होने के बाद अंतिम किस्त दिया जाता है। किसान भी इस खेती में शायद इसलिए रूचि ले रहे हैं कि अनाज की खेती से साल में मुश्किल से प्रति एकड़ 10-15 हजार रुपये की आय होती है। जबकि जिन जिन गांवों में अफीम की खेती हो रही है वहां जीवनशैली बदलती नजर आ रही है।

चतरा का एक ग्रामीण शनिचरा दो साल पहले तक टूटे फूटे पुश्तैनी मकान में परिवार के साथ जिंदगी काट रहा था। लेकिन लावालौंग के जंगलों में उसके हाथों अफीम की खेती क्या लहलहाई, उसकी जिंदगी ही बदल गई। उसने अफीम की खेती से होने वाली आमदनी से पक्का घर बना लिया है। उसने अपने गांव के कुछ और घर दिखाए जिसके सामने गाड़ियां खड़ी दिख रही थी। चेहरे पर मासूमियत लिए शनिचरा बताता है कि उसे नहीं मालूम की अफीम की खेती गैरकानूनी है। धान और सब्जी की खेती से बच्चों को पढ़ाना और परिवार चलाना बहुत मुश्किल हो रहा था। पार्टी वाला लोग बोला अफीम उगाओ खूब पैसा मिलेगा। पैसे के साथ साथ नक्सलियों का खौफ भी किसानों को अफीम की खेती के लिए मजबूर कर रहा है। लातेहार का सुगना मुंडा कहता है, ‘का करें साहब। हमको कानून मत बताइए। नक्सली सब सीधे कहता है अफीम उगाओ नहीं तो जन अदालत में सिर कटाओ।’

इन जिलों में अधिकांश खेती सरकारी भूमि पर होती है। लिहाजा कभी पुलिस पहुंचती भी है तो अफीम की खेती नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं कर पाती। सरकारी जमीन का कोई निजी मालिक नहीं होता इसलिए किसी पर केस भी दर्ज नहीं हो पाता। वैसे भी अफीम की खेती ज्यादातर ऐसे इलाकों में होती है जहां तक पुलिस का पहुंच पाना आसान नहीं होता। अफीम के पौधों की रखवाली नक्सली खुद करते हैं। इस कारण पुलिस वाले खेतों की तरफ जाने से कतराते हैं। फसल तैयार होने पर पोस्ता और ब्राउन शुगर को बेच कर नक्सली पैसा जमा करते हैं और उससे हथियार खरीदते हैं।

वैसे अफीम का इस्तेमाल नक्सली छोटी उम्र के युवकों को कैडर बनाने के लिए भी कर रहे हैं। पहले उन्हें नशे की लत लगाई जाती है, फिर लड़ाई के लिए तैयार किया जाता है। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में झारखंड में नक्सली आंदोलन कमजोर पड़ा है। इसलिए इनसे जुड़े संगठन कई जगहों पर कैडरों की कमी से जूझ रहे हैं। झारखंड में उगाई जाने वाली अफीम उत्तर प्रदेश और कोलकाता की मंडियों में पहुंचाई जाती है। इसके लिए ड्रग माफिया नक्सलियों को लगाते हैं। नक्सली इस काम को स्थानीय दलालों की मदद से अंजाम देते हैं। अफीम निकालने का काम  शुरू होते ही नक्सलियों के दलाल खुद खेतों तक पहुंच जाते हैं। इन दलालों का काम अफीम को यहां से यूपी के गाजीपुर और कोलकाता की मंडियों तक पहुंचाने का होता है। इसके बाद बड़े ड्रग माफिया इसे चेन्नई और बांग्लादेश तक पहुंचा देते हैं।

नक्सलियों में अफीम की खेती का यह नशा एक खतरनाक संकेत है। पंजाब के पूर्व डीजीपी और नारको आतंकवाद के एक्सपर्ट शशिकांत कहते हैं, ‘नारको आतंकवाद एक बड़ा खतरा है। अगर देश में अफीम की खेती के मौके सुलभ होंगे तो आने वाले समय में हालात और खराब होंगे। देश का एक बड़ा इलाका पहले ही अशांत क्षेत्र है। नक्सली झारखंड के जिन इलाकों में सक्रिय हैं उनमें से कुछ  इलाके में सुरक्षा बलों की पहुंच भी मुश्किल है। अगर ये इलाके नशे के कारोबार का केंद्र बने तो इसका खामियाजा पूरे देश को उठाना पड़ेगा। इसलिए सरकारों को ग्रामीण इलाकों में किसानों की सामान्य खेती को लाभदायक बनाना होगा क्योंकि कई इलाकों में किसान पैसे के लोभ में भी नशे की खेती कर रहे हैं।’