वामपंथ के किले में सुराख बहुत पहले हो गया था, जिसने धीरे-धीरे उसकी नींव ही खोखली कर दी. कमजोर नींव पर फिर से इमारत खड़ी करना एक दुरुह कार्य है. ऐसे में, कई बड़े वामपंथी नेताओं को दरकिनार करके कन्हैया कुमार को उभारने की कोशिश का आधार क्या है? आखिर इतने सारे धुरंधर वामपंथी उम्मीदवारों को पटल से गायब करके कन्हैया जैसे नए चेहरे को मोदी विरोध का चेहरा बनाने के पीछे कौन सी ताकत और रणनीति काम कर रही है?

वामपंथी दल आज सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई को केवल एक सीट पर जीत मिली थी, जबकि सीपीएम को नौ सीटों से संतोष करना पड़ा था. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने वाम दुर्गध्वस्त कर दिया है. त्रिपुरा में भाजपा ने लाल झंडे को झुका दिया और अब सिर्फ केरल में वामपंथी दलों की सरकार बची हुई है. अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे वामपंथी दलों की स्थिति अत्यधिक कमजोर नजर आ रही है. वामपंथी दलों के पतन का एक बड़ा कारण जमीन से उनका जुड़ाव खत्म होना रहा है, लेकिन इसके साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के उभार ने भी उनकी कमर तोड़ दी. इस चुनाव में भी कुछ ऐसी ही स्थिति देखने को मिल रही है. जिन राज्यों में वामपंथी दलों का थोड़ा-बहुत आधार बचा हुआ है, वह भी खिसकता दिखाई दे रहा है. पश्चिम बंगाल में टीएमसी, कांग्रेस एवं भाजपा ने मिलकर उसका आधार बेहद कमजोर कर दिया है, तो केरल में भी कांग्रेस एवं भाजपा ने वामपंथ को उखाड़ फंेकने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है. राहुल गांधी का अमेठी के साथ-साथ केरल के वायनाड से चुनाव लडऩा भी वामपंथियों को भारत के राजनीतिक पटल से गायब करने की रणनीति का ही हिस्सा है. त्रिपुरा में जिस तरह भाजपा ने वामपंथी दलों को सत्ता से बेदखल किया, उसी तरह केरल के वाम शासन को खत्म करने की रणनीति कांग्रेस बना रही है. अब वामपंथी दलों की इतनी खराब स्थिति के बावजूद आखिर सीपीआई के नेता एवं बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे कन्हैया कुमार को मोदी विरोध का चेहरा बनाने की कोशिश क्यों की जा रही है? लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही कन्हैया कुमार को प्रचारित करने का अभियान शुरू हो गया था. जेएनयू में एक आयोजन के दौरान भारत विरोधी नारेबाजी का आरोप लगने के बाद से ही कन्हैया के समर्थन में अभियान शुरू कर दिया गया था. उसे अचानक नायक बना दिया गया. ऐसा माहौल बनाया जाने लगा कि कन्हैया ही एकमात्र ऐसा नेता है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खुलकर विरोध कर सकता है. मीडिया ने कन्हैया को भरपूर मौका दिया. विभिन्न मंचों पर उन्हें चर्चा करने के लिए बुलाया जाने लगा, मोदी विरोधी मंचों पर जगह दी जाने लगी.

हालांकि, शुरुआत में लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाए जाने को लेकर भी सीपीआई के भीतर एक संशय की स्थिति थी. कई नेताओं ने कन्हैया की उम्मीदवारी का विरोध किया था, लेकिन उस समय भी उनके समर्थन में मीडिया और सोशल मीडिया में एक माहौल तैयार किया गया. ऐसा बताया जाने लगा कि सीपीआई के बड़े नेताओं को कन्हैया से खतरा है. सीपीआई के नेताओं ने भी मुख्य धारा के मीडिया एवं कन्हैया प्रायोजित सोशल मीडिया के प्रोपेगेंडा के सामने घुटने टेक दिए और अंतत: कन्हैया को बेगूसराय से सीपीआई का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. कन्हैया के राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाने के लिए चलाया जाने वाला अभियान यहीं तक नहीं रुका. चुनाव के समय भी बेगूसराय को मीडिया के प्रचार का केंद्र बनाया गया. ऐसा दिखाया गया कि बेगूसराय से चुना जाने वाला सांसद ही सत्ता का रुख तय करेगा या फिर सत्ता विरोध का प्रतीक बनेगा. वामपंथी दलों के किसी दूसरे उम्मीदवार को मीडिया में थोड़ी भी जगह नहीं मिल पाई, जबकि कन्हैया को मीडिया का लाडला बनाकर पेश किया जाता रहा. लोगों से अपील करके चुनाव खर्च के लिए पैसा जुटाने को भी प्रचार का बहुत बड़ा माध्यम बनाया गया. कन्हैया कुमार को चुनावी खर्च के लिए लोगों ने 70 लाख रुपये का चंदा दिया, जिसे मीडिया में काफी प्रचारित किया गया. सवाल यहां भी यही उठता है कि आखिर सीपीआई के किसी अन्य उम्मीदवार को इतना चंदा क्यों नहीं मिल पाया? कन्हैया को किसने कितना चंदा दिया, इसकी जानकारी तो नहीं दी गई, लेकिन यह बात जोर-शोर से प्रचारित की गई कि पूरे देश से उन्हें समर्थन मिल रहा है और अगर चुनाव के लिए 70 लाख रुपये खर्च करने की सीमा नहीं होती, तो अभी और भी चंदा मिल सकता था. सीपीआई एवं सीपीएम के दूसरे सभी उम्मीदवारों के बारे में मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया में भी चर्चा नहीं है, लेकिन कन्हैया के बारे में रिपोट्र्स की बाढ़ आ गई.

बेगूसराय से चुनाव लडऩे वाले कन्हैया के लिए झूठे प्रचार का सिलसिला यहीं नहीं रुका, बल्कि उसे आगे भी जारी रखा गया. कुछ चुनावी विश्लेषकों, बुद्धिजीवियों एवं मीडिया में शीर्ष पर बैठे पत्रकारों ने बेगूसराय के चुनाव को कन्हैया बनाम गिरिराज करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी. उन्होंने अपने विश्लेषण का तरीका बदल दिया. बिहार की राजनीति को अच्छी तरह समझने वाले बुद्धिजीवी एवं पत्रकार, जो राज्य के दूसरे लोकसभा क्षेत्रों का चुनावी विश्लेषण इस आधार पर कर रहे थे कि वहां किस जाति के कितने वोट हैं और किस जाति के कितने उम्मीदवार, बेगूसराय के लिए विश्लेषण का उनका तरीका बदल गया. वहां एक ही जाति के दो उम्मीदवार थे और तीसरा उम्मीदवार महागठबंधन का वह नेता था, जो पिछले दो दशकों से अधिक समय से राजनीति में सक्रिय है. विश्लेषण के इस पैटर्न के आधार पर गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार के बीच भूमिहार वोट बंटने का स्पष्ट फायदा राजद के तनवीर हसन को मिलता दिखाना चाहिए था. साथ ही महागठबंधन का उम्मीदवार होने के कारण भी उनकी दावेदारी कन्हैया कुमार से ज्यादा बड़ी है. अगर कांग्रेस का आधार वोट अलग कर दिया जाए, तो भी  बिहार में राजद का मुस्लिम-यादव समीकरण ध्वस्त करना इतना आसान नहीं है, लेकिन सोशल मीडिया के साथ-साथ मुख्य धारा के मीडिया ने भी तनवीर हसन को दरकिनार कर दिया और बेगूसराय के बाहर बैठे लोगों ने कन्हैया के प्रचार की जिम्मेदारी उठा ली.

यहां तक कि खुद को निष्पक्ष और मोदी विरोध का चेहरा बताने वाले एक मीडिया हाउस के तथाकथित बड़े पत्रकार ने जब बेगूसराय की रिपोर्टिंग की, तो उनका सारा फोकस कन्हैया के ऊपर रहा. उन्होंने कन्हैया एवं उसकी मां की निर्धनता समेत कई भावनात्मक पहलुओं पर एक रिपोर्ट तैयार की, लेकिन जनता के बीच जाकर सही स्थिति जानने की जहमत नहीं उठाई. यह कन्हैया का प्रचार था, न कि किसी टीवी चैनल की रिपोर्टिंग. यही नहीं, कन्हैया के प्रचार तंत्र ने एक से बढक़र एक झूठी कहानियां प्रचारित कीं. बताया गया कि राजद नेता तेजस्वी यादव को भी कन्हैया के उभार से डर है, इसीलिए उन्होंने बेगूसराय में गठबंधन नहीं किया और तनवीर हसन को स्पष्ट निर्देशों के साथ उम्मीदवार बनाया कि वह पूरी ताकत के साथ कन्हैया को रोकें. जब इस चाल का कोई बड़ा फायदा होता नहीं दिखा, तो सोशल मीडिया में एक झूठी खबर चलाई गई कि राजद उम्मीदवार तनवीर हसन ने कन्हैया का समर्थन किया है और वह लोगों से कन्हैया को वोट देने के लिए कह रहे हैं. मुख्य धारा का जो मीडिया कन्हैया का जोर-शोर से प्रचार कर रहा था, उसने भी इस झूठी खबर का न तो खंडन किया और न कभी इस बारे में तनवीर हसन की राय जानने की कोशिश की. इस तरह चुनाव के पहले से कन्हैया के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने वाला एक वर्ग पूरे चुनाव के दौरान उसके लिए माहौल तैयार करता रहा.

अब सवाल यह उठता है कि आखिर वे कौन लोग हैं, जो कन्हैया को नायक की तरह पेश करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं. दरअसल, कन्हैया एक नकारात्मक कारण से चर्चा में आए और उनका समर्थन भी इसी का परिणाम है. जेएनयू में एक कार्यक्रम के दौरान देश विरोधी नारे लगाने का आरोप कन्हैया एवं उनके सहयोगियों के ऊपर लगा. नतीजतन, मीडिया दो धड़ों में बंट गया. एक धड़ा उन्हें राष्ट्रद्रोही साबित करने में लगा हुआ था, तो दूसरा धड़ा उनका बचाव करते हुए केंद्र सरकार पर हमला कर रहा था. दोनों धड़ों ने अपने फायदे के लिए कन्हैया का प्रचार किया. एक धड़े ने इसे देश में चल रही राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का उदाहरण बनाया, तो दूसरे ने केंद्र सरकार का षड्यंत्र बताकर भाजपा पर हमला करने के लिए इसका इस्तेमाल किया. लेकिन, मीडिया के दो धड़ों के बीच चल रही इस जंग में राजनीतिक दल भी शामिल हो गए. भाजपा के कुछ नेताओं ने इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की, जिसके बाद विपक्षी दलों ने कन्हैया एवं उनके सहयोगियों का साथ देकर भाजपा को षड्यंत्रकारी बताना शुरू कर दिया. कन्हैया उनके लिए एक हथियार बन गया, जो भाजपा की राष्ट्रवादी विचारधारा की राजनीति से चिढ़े हुए हैं. ये वही लोग हैं, जिनकी राष्ट्रभक्ति पर किसी न किसी रूप में सवाल उठते रहे हैं. उन्हें एक ऐसा मुद्दा मिल गया, जिसे आधार बनाकर वे भाजपा का विरोध कर सकते थे. हालांकि, राष्ट्रद्रोह का आरोप न तो पहली बार लगा था और न इस दौर में पहली बार लगाया गया था.

कांग्रेस के शासन में भी लेखिका अरुंधती राय, मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. बिनायक सेन एवं कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के साथ-साथ कई अन्य लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा चला था. यही नहीं, अकेले तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ किए गए आंदोलन के दौरान करीब 55 हजार लोगों पर केस दर्ज किया गया था, जिनमें से करीब 23 हजार लोगों की गिरफ्तारी हुई और उनमें से करीब नौ हजार लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया था. रिपोर्ट के अनुसार, दस सालों के यूपीए शासन में दस हजार से अधिक लोगों पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया. इसी तरह भाजपा शासन के दौरान भी सैकड़ों लोगों पर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ, लेकिन किसी के पक्ष में इतनी पुरजोर आवाज नहीं उठी और यहां तक कि यूपीए शासन में लगाए गए देशद्रोह के आरोपों को सरकार का षड्यंत्र नहीं बताया गया. लेकिन, जेएनयू का मामला जोर-शोर से उठाया गया, क्योंकि केंद्र में सरकार भाजपा की थी और मकसद, किसी न किसी रूप में प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा करना था. एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2014 से 2016 के बीच 179 लोगों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ, जिनमें से सिर्फ 18 को दोषी पाया गया. बाकी लोग छूट गए या फिर उनके खिलाफ चार्जशीट ही दाखिल नहीं हुई. ऐसे में, सवाल उठता है कि आखिर इतने लोगों के बीच कन्हैया कुमार पर इतना फोकस क्यों किया गया?

अगर कन्हैया के राजनीतिक योगदान की बात करें, तो देशद्रोह का आरोप लगने से पहले कितने लोगों को उनके बारे में जानकारी थी? छात्र नेताओं को कॉलेज से बाहर के लोग जानते तक नहीं हैं.छात्र राजनीति से निकल कर मुख्य धारा की राजनीति में आने तक सालों लग जाते हंै, लेकिन कन्हैया को अचानक नायक बना दिया गया और उन्हें उम्मीदवार बनाने से लेकर जिताने तक के लिए माहौल तैयार करने में नामी-गिरामी लोग शामिल हो गए. उनके प्रचार में मीडिया के अलावा फिल्म जगत की कुछ हस्तियों ने भी अपनी भूमिका निभाई. हालांकि, कन्हैया की पार्टी के किसी बड़े नेता ने उनके लिए प्रचार नहीं किया, लेकिन वामपंथी विचारधारा से जुड़े बौद्धिक वर्ग और पत्रकारों ने उनका पुरजोर साथ दिया. इसके पीछे एक मानसिकता काम कर रही थी. यह मानसिकता देश विरोधी टैग लगने से परेशान हस्तियों से लेकर अगड़ी जाति के पत्रकारों की थी. यह ऐसी मानसिकता है, जिसे अपने जैसे लोगों का समर्थन करके अपने विचारों को बल मिलता है. कन्हैया पर देशद्रोह का आरोप साबित हो या नहीं, लेकिन उन्हें इसका भरपूर फायदा मिला और इसी ने उन्हें नायक भी बनाया.