प्रदीप सिंह/जिरह

हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या की घटना ने भारतीय समाज में दलितों और कमजोर वर्गों की स्थिति को राष्ट्रीय विमर्ष में ला दिया है। रोहित सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक व्यवस्था की कुरीतियों और संवेदनहीनता का शिकार हुए। आजादी के सत्तर साल बाद भी भारतीय समाज में छुआछूत दूसरे रूप में विद्यमान है। ज्यादा चिंता की बात यह है कि यह सब शिक्षा के उच्च केंद्रों में हो रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह खाई कितनी गहरी है। रोहित की आत्महत्या को मामूली आत्महत्या की घटना के रूप में नहीं देखा जा सकता। इस घटना के बाद राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया चिंता को बढ़ाने वाली है। उनकी नजर में व्यक्ति के जीवन का मोल उसके समाज के वोट से जुड़ा है। राजनीतिक दलों के नेता वोट से इतर कुछ सोच ही नहीं पाते। वरना क्या कारण है कि रोहित की आतमहत्या के बाद हैदराबाद पहुंच कर फोटो में दुखी दिखने का स्वांग करने वाले किसी नेता को इस समाज के युवकों की परेशानी समझने और उसका हल निकालने की फुर्सत कभी नहीं मिली। हमारी शिक्षा संस्थाओं में समाज के कमजोर तबकों के साथ भेदभाव होता है यह कहने के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। यह कड़वी सच्चाई सबको पता है लेकिन कोई कुछ करता नहीं।

हैदराबाद की ही शिक्षण संस्थाओं में 2007 से 2013 के बीच ग्यारह दलित छात्रों ने आत्महत्या की। 2013 में एक दलित छात्र की हत्या की अखबार में छपी खबर का स्वत: संज्ञान लेते हुए आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने विश्वविद्यालय को निर्देश दिया कि वह इसके पीछे के कारणों का पता लगाए और सुधार के उपाय करे। सुनवाई के दौरान उनतीस एकेडमिशीयन्स ने अदालत को बताया कि दलित/आदिवासी छात्रों की आत्महत्या का कारण मुख्यत: असफलता, असफल होने का डर, प्रशासनिक संवेदनहीनता, अपमान, सामाजिक व अकादमिक कलंक और बहिष्कार या अस्वीकार किया जाना है। मामला इतना ही नहीं है कि छात्र समुदाय इस वर्ग के अपने  साथियों के साथ भेदभाव करता है, उन्हें नीची नजर से देखता है। शिक्षक और विश्वविद्यालय व विद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों का व्यवहार भी ऐसा ही होता है। एक दलित और आदिवासी को जिस सामाजिक अपमान से गुजरना पड़ता है उसकी कल्पना कोई गैर दलित नहीं कर सकता और न ही उसके दर्द को समझ सकता है। आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के निर्देश के बावजूद विश्वविद्यालय प्रशासन ने कुछ नहीं किया। यदि किया होता तो शायद रोहित आज जीवित होता। रोहित के मामले में भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के पत्र और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की प्रतिक्रिया दोनों में संवेदना की बजाय राजनीति नजर आती है।

इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और भाजपा का रुख भ्रम पैदा करता है। बंडारू दत्तात्रेय रोहित और उसके साथियों को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त बताते हैं। स्मृति ईरानी चाहती हैं कि इस पूरे मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन कार्रवाई करे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लखनऊ में कहते हैं कि देश ने एक बेटा खो दिया है। यह कहते हुए उनका गला रुंध जाता है और आंखें नम हो जाती हैं। प्रधानमंत्री जिसे देश का बेटा बता रहे हैं उनकी मंत्रिपरिषद का एक सदस्य उसी को राष्ट्र विरोधी बता रहा है। अपने बयान के बाद प्रधानमंत्री बंडारू दत्तात्रेय के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं करते, इससे क्या निष्कर्ष निकाला जाय। दरअसल, पिछले कुछ सालों और खासतौर से लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से भाजपा दलितों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रही थी। रोहित वेमुला की घटना से उसके प्रयास को धक्का लगा है। प्रधानमंत्री का बयान उस नुकसान को कम करने की कोशिश थी। लेकिन विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसरों में भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के आक्रामक तेवर से भी पार्टी को नुकसान हो रहा है। क्योंकि दलित छात्र अपने अपमान के खिलाफ अब ज्यादा मुखर और राजनीतिक रूप से सक्रिय हो रहे हैं। इसलिए आने वाले दिनों में यह टकराव बढ़ सकता है।

केंद्र सरकार और भाजपा यदि चाहते हैं कि कम से कम शिक्षा परिसर में दलितों/आदिवासियों के साथ होने वाला अपमानजनक व्यवहार रुके तो इसके लिए एक नया कानून बनाना चाहिए। शिक्षा परिसर में कानून के जरिए सुधार हो सकता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण रैगिंग के खिलाफ बना कानून है। इस कानून के बनने और सख्ती से लागू होने के बाद से रैगिंग लगभग खत्म हो गई है। सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि किसी दलित छात्र की आत्महत्या के बाद वहां पहुंचकर फोटो खिंचवाने के अवसर का इंतजार करने की बजाय आम राय से इस संबंध में कानून बनवाएं। सरकारों, राजनीतिक दलों और सरकारों की दूसरी समस्या यह है कि वे बदलते समय के साथ शिक्षा परिसरों में बदलाव  के लिए तैयार नहीं हैं। उच्च शिक्षण संस्थाओं में ही नए विचार पनपते हैं। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर कहा कि असहमति ही जनतंत्र की विषेशता है। इसलिए लोग शिकायत करना, मांग करना और बगावत करना जारी रखें। इसलिए छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी को कम करने की कोई भी कोशिश सत्ता प्रतिष्ठान के लिए हमेशा घाटे का सौदा होगा।