गोपालक मुसलमान

शंभूनाथ शुक्ल ।

आज के हालात ने गाय को एक राजनीतिक पशु बना दिया है। एक आम धारणा बनती जा रही है कि गाय को सिर्फ हिंदू ही पालते हैं। और मुसलमान गाय से परहेज करते हैं। यानी गाय का मतलब हिंदू धर्म से जोड़ दिया गया है। जबकि वास्तविकता इससे एकदम उलट है। गाय एक दुधारू पशु है और वह चाहे हिंदू के घर रहे अथवा मुस्लिम के उतना ही दूध देगी और उतनी ही सेवा चाहेगी जितनी कि उसे जरूरत होगी। मुसलमानों को भी गाय का दूध पाचक और बच्चों के लिए पौष्टिक प्रतीत होता है इसीलिए वे भी गाय का दूध पीते हैं और गाय पालते भी हैं। गाय का घी पाने के लिए उनमें भी मारामारी होती है। क्योंकि गाय का घी उनके लिए भी उतना स्वास्थ्यवर्धक और बीपी व कोलेस्ट्रोल घटाने में सहायक होता है जितना कि हिंदुओं को। इसलिए गाय वे भी पालते हैं और उसके दूध का सेवन करते हैं। यह तो कुछ सिरफिरे लोगों का फितूर है जो उन्होंने गाय को एक समुदाय विशेष अथवा धर्मविशेष से जोड़ दिया है। मैंने गांवों में जाकर कुछ मुस्लिम गोपालकों से बात की तो पता चला कि उनके समुदाय में भी गाय के दूध को लेकर उतनी ही मारामारी रहती है जितनी कि हिंदुओं में। इसलिए मुसलमान पशुपालक गाय भी पालते हैं और उसका दूध बेचने का काम भी करते हैं। बल्कि कई मुस्लिम परिवारों में तो गौशालाएं बनाने को लेकर उत्साह मैंने देखा।

वैसे हिमालय की तराई के जंगलों और ऊंचे पहाड़ों पर वनगूजर (जो मुसलमान ही होते हैं) गाय ही पालते हैं क्योंकि गाय के रहते तेंदुआ उस पर हमला नहीं कर पाता। गाय अपनी सींग से तेंदुए का मुकाबला कर लेती है। इसलिए हरिद्वार, ऋषिकेश के जंगलों में इन वनगूजरों को अपनी गायों के साथ इधर-उधर घूमते देखा जा सकता है। मगर मैदानी इलाकों में भी मैंने कई ऐसे संभ्रांत मुस्लिम परिवार देखे जिन्होंने गौशालाएं बना रखी हैं। ऐसी ही एक गौशाला है बुलंदशहर की तहसील स्याना के गांव चंदियाना में जुबैदुर रहमान खान उर्फ बब्बन मियां की। बब्बन मियां की गौशाला में तीस गाएं हैं और दस भैंसे व उनके बच्चे। वे अपनी गौशाला का दूध बेचते नहीं हैं बल्कि इस दूध को या तो बांट देते हैं अथवा निजी उपयोग के लिए रखते हैं। उनका कहना है कि गाय का घी बीपी और दिल के मरीजों के लिए उपयुक्त है। यही नहीं अगर गांव में किसी के यहां शादी-विवाह अथवा अन्य कोई कार्यक्रम हुआ तो वे उसके यहां दूध फ्री पहुंचाते हैं। उस चंदियाना इलाके में जुबैदुर रहमान खान की गौशाला बब्बन मियां की मधुसूदन गौशाला के नाम से मशहूर है।

चंदियाना गंगा किनारे आबाद है। यहां पर कोई बारह गांव हैं जिन्हें बारा बस्सी कहा जाता है। इनके बारे में मान्यता है कि अफगानिस्तान से कोई ईसा खान नामक योद्धा भारत आए थे और वे शेरशाह सूरी की सेना में शामिल हुए। शेरशाह ने ऊंचा पद दिया तथा गंगा किनारे का एक बड़ा इलाका माफी में दे दिया। यही पठान आज उस बारा बस्सी में आबाद हैं। बारा बस्सी यानी बारह बस्ती। जिसे अब पठानों के 12 गांवों की बस्ती कहा जाता है। बुलंदशहर जिले की स्याना तहसील की रियासत ऊंचगांव के ये 12 गांव हैं बारा बस्सी, बुगरासी, चंदियाना, चंदियाना पूठी, घुंघरौली, सुलौली, बरहाना, बुरावली आदि।

इनमें से बस्सी बांगर गंगा के एकदम किनारे था और जब शेरशाह सूरी ने हुमायूं पर हमला किया तब उसकी सारी सैन्य सामग्री सासाराम से नाव द्वारा यहां लाई जाती और यहां से दिल्ली। इसलिए इस पूरे इलाके का न केवल सामरिक महत्त्व है बल्कि यहां के पठानों का एक इतिहास भी है। आज यह पूरा इलाका अमराई या फल पट्टी घोषित है इसलिए यहां पर प्रदूषण फैलाने वाला कोई कारखाना नहीं लगाया जा सकता। यहां तक कि र्इंट भट्ठा भी नहीं। इस इलाके के पठानों की खासियत यह है कि एक जमाने में ईसा खान के वंशजों ने दिल्ली से कन्नौज तक शासन किया मगर स्थानीय हिंदू आबादी से उनके रिश्ते अत्यंत मधुर हो गए। वे लोग हिंदू प्रतीकों को भी बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। शायद यही वजह रही कि यहां पर जितनी भी मस्जिदें बनीं सब गंगा के तट पर ही ताकि नमाजियों को गंगाजल में वजू करने में सुविधा रहे।

इसी बारा बस्सी के करीब स्थित चंदियाना गांव के हैं जुबैदुर रहमान खान उर्फ बब्बन मियां। बब्बन मियां ने इस पूरे इलाके में दो बड़े काम किए। एक तो 27 एकड़ में एक बाग लगाया जिसकी वजह से इलाके की हरियाली और निखर आई है तथा दूसरे उन्होंने पांच एकड़ में एक गौशाला बनवाई जिसका नाम रखा मधुसूदन गौशाला। बब्बन मियां बताते हैं कि उनकी मां को पशुओं से अथाह प्रेम था। जब भी पास-पड़ोस का कोई पालतू पशु वे अस्वस्थ पातीं फौरन पशु डॉक्टरों को बुलवातीं और उसका इलाज करातीं। यही नहीं उसके इलाज का पूरा खर्च उठातीं। उनकी मां हमीदुन्निसा बेगम ने बेसहारा और अनाथ लड़कियों को भी पाला उनकी शिक्षा-दीक्षा करवाई तथा उनकी शादी भी की। तब भला बब्बन मियां ऐसी नेकदिल मां का कहा कैसे टाल सकते थे। हालांकि उनका व्यापार दिल्ली में है पर वे दिल्ली से सवा सौ किलोमीटर दूर चंदियाना में आकर गौशाला की देखभाल हफ्ते में दो दिन स्वयं करते हैं और बाकी के दिन उनके कर्मचारी।

बब्बन मियां की गौशाला यहां के मुसलमानों के गाय प्रेम का नायाब नमूना है। जुबैदुर्रहमान के पिता सेना में वायरलेस आपरेटर थे और1988 में उनका इंतकाल हो गया था। उसके बाद बब्बन मियां दिल्ली आ गए और यहां पर जामिया नगर के अबुल फजल एन्क्लेव में मकान बनाकर रहने लगे। उनके अंदर पालतू पशुओं के प्रति दयाभाव है। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने बेसहारा गायों को पालने की योजना बनाई और अपने गांव की अपनी जमीन पर गौशाला बनवाई। साथ में उनके चारागाह के लिए गोचर बनाया। बेसहारा गायों को पनाह देने से लेकर उनके लिए दाना-पानी का इंतजाम वे स्वयं के खर्चे पर करते हैं। उन्होंने अपने गांव की जमीन इसी काम के लिए अर्पित कर दी। इसी का नतीजा है चंदियाना की यह गौशाला। खान साहब का यह गाय प्रेम पूरे जिले में ही नहीं बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चर्चा का विषय है। लोग कहते हैं ऐसी गौ सेवा तो वे हिंदू भी नहीं करते होंगे जो गायों को पूजते हैं।

निज की खातिर गाय पालने के बजाय उन्होंने बेसहारा हो चुकी गायों को आश्रय अपनी गौशाला में दिया हुआ है। पूरे देश में बब्बन मियां अकेले ऐसे शख्स हैं जो गैर हिंदू होते हुए भी अपनी गौशाला से गायों के भरण-पोषण का पूरा इंतजाम करते हैं।

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