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कांग्रेस के लिए हालिया मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली जीत बहुत खास है. यह राज्य गुजरात के बाद भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ माना जाता है, जहां शिवराज सिंह चौहान जैसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे और जिनका जनसंघ के जमाने से अच्छा-खासा प्रभाव है. भाजपा इसे विकास के एक मॉडल के तौर पर पेश करती रही है. शिवराज सिंह पिछले 13 सालों से सत्ता पर काबिज थे और उन चुनिंदा मुख्यमंत्रियों में शामिल थे, जो पार्टी में मोदी-शाह के वर्चस्व के इस दौर में भी अपनी पहचान व जमीन को बचाए रखने में कामयाब रहे. उनकी विनम्रता और सहज-सरल छवि प्रभावित करने वाली है. विधानसभा चुनाव के नतीजों से यहां लगातार हार की हैट्रिक बना चुकी कांग्रेस को भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में मदद मिली है. कांग्रेस ने भाजपा को हराकर सत्ता तो हासिल कर ली है, लेकिन यह बहुत करीबी जीत है. अब उसके सामने अपने वचन पत्र में किए गए वादे पूरा करने की चुनौती है, साथ ही कुछ महीनों बाद लोकसभा चुनाव का सामना करना है. इसके अलावा पार्टी संगठन की अंदरूनी कलह भी उसके लिए लगातार परेशानी का सबब बनी रहेगी. मई 2018 में जब कमल नाथ को मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी गई थी, तो उनके सामने पंद्रह सालों से सुस्त पड़े संगठन को सक्रिय बनाने की चुनौती थी. वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार अभियान एवं दिग्विजय सिंह को पर्दे के पीछे रहकर कार्यकर्ताओं को एकजुट करने की जिम्मेदारी मिली थी. तीनों ने अपने दायरे में रहते हुए टीम भावना से काम किया, नतीजतन कांग्रेस की सत्ता में वापसी तो हो गई, लेकिन पूर्ण बहुमत नहीं मिला और सरकार बनाने के लिए उसे बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी एवं निर्दलीयों का सहयोग लेना पडा.

कमल की कमान

अपने चार दशक लंबे राजनीतिक करियर में यह पहला मौका था, जब कमल नाथ मध्य प्रदेश की राजनीति में सक्रिय भूमिका में थे. इससे पहले राज्य की राजनीति में उनकी भूमिका किंगमेकर की रही है और वह हमेशा छिंदवाड़ा तक सीमित रहे. बहरहाल, शिवराज के बाद अब मध्य प्रदेश को कमल नाथ के रूप में नया मुख्यमंत्री मिला है. उनके पास संसदीय राजनीति का लंबा अनुभव है, साथ ही उन्हें समय के साथ चलने वाला माना जाता है. मैनेजमेंट और समन्वय उनकी सबसे बड़ी खूबी है. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उन्होंने जिस तरह ताबड़तोड़ फैसले लिए, उससे साफ है कि उन पर उम्मीदों पर खरा उतरने का कितना दबाव है. शपथ ग्रहण के कुछ ही घंटों के भीतर उन्होंने उस फैसले पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसके तहत किसानों द्वारा 31 मार्च 2018 तक लिया गया दो लाख रुपये का कर्ज माफ होना था. बाद में अवधि का दायरा बढ़ाते हुए उसे 12 दिसंबर 2018 कर दिया गया. इसी तरह कन्या विवाह योजना के तहत दी जाने वाली धनराशि 28 से बढ़ाकर 51 हजार रुपये कर दी गई.

तस्वीर बदलने की कवायद

कमल नाथ सरकार ने सभी निगम मंडल, प्राधिकरण, बोर्ड, राज्य सफाई कर्मचारी आयोग, केश शिल्पी मंडल, सिलाई कला मंडल एवं कृषि विपणन बोर्ड से पदाधिकारियों की नियुक्तियां निरस्त कर दी हैं. सरकारी कॉलेजों की जनभागीदारी समितियां भंग करने के साथ ही नगर पालिकाओं/नगर परिषदों में नियुक्त एल्डरमैन भी तत्काल प्रभाव से पदमुक्त कर दिए गए हैं. नई सरकार आने के बाद बड़े पैमाने पर अधिकारियों के तबादले भी हुए हैं. कई योजनाओं के नाम बदलने और संबंधित विभाग बंद करने की कवायद जारी है, ताकि भाजपा/संघ का प्रभाव कम किया जा सके. इसी कड़ी में कुछ इस्तीफे भी सामने आए. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने ने इस्तीफा दे दिया. उपासने संघ के करीबी माने जाते हैं. उनके इस्तीफे को राज्य में हुए सत्ता परिवर्तन से जोडकऱ देखा जा रहा है. आपातकाल के दौरान जेल जाने वालों को मीसा बंदी के नाम पर मिलने वाली पेंशन भी बंद कर दी गई. इसका ज्यादातर लाभ भाजपा और संघ से जुड़े लोग उठा रहे थे. इसी तरह हिंदू पहचान पर भाजपा का एकाधिकार तोडऩे के लिए आनंद विभाग एवं धर्मस्व विभाग को मिलाकर एक नया आध्यात्म विभाग बनाया गया है, जिसके तहत राम वन गमन पथ में पडऩे वाले क्षेत्र के विकास और नर्मदा, शिप्रा, ताप्ती व मंदाकिनी आदि नदियों के न्यास बनाने की योजना है.

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तस्वीर बदलने की हड़बड़ी में कई दांव उल्टे भी पड़े हैं. ताजा उदाहरण ‘वंदे मातरम्’ के नाम पर हुआ विवाद है. दरअसल, लंबे समय से भोपाल स्थित वल्लभ भवन में ‘वंदे मातरम्’ के गायन की परंपरा रही है, जिस पर कमल नाथ सरकार ने एक जनवरी से रोक लगाने के निर्देश दिए थे. इस पर भाजपा जबरदस्त तरीके से हमलावर हो गई, नतीजतन सरकार को यह नियम दोबारा लागू करते हुए कहना पड़ा कि अब पुलिस बैंड और आम जनता की सहभागिता के साथ ‘वंदे मातरम्’ का गायन होगा. कमल नाथ सरकार के इस यूटर्न को शिवराज अपनी जीत मानते हैं.

चुनौतियों का अंबार

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जीत भले ही महत्वपूर्ण हो, लेकिन बराबरी के मुकाबले ने इसे फीका और चुनौतीपूर्ण बना दिया है. कमल नाथ सरकार के सामने चुनौतियों का पहाड़ है, उन्हें कामचलाऊ बहुमत भी नहीं मिला और सरकार बनाने के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़ा, जो तलवार की धार पर चलने की तरह है. 230 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को 114 सीटें मिलीं, जो बहुमत से दो कम हैं. जबकि भाजपा को 109 सीटें मिलीं और पिछली बार के मुकाबले उसे 56 सीटों का नुकसान हुआ. कांग्रेस बसपा के दो, समाजवादी पार्टी के एक और चार निर्दलीयों की मदद से 121 सीटों के साथ किसी तरह अपनी सरकार बनाने में कामयाब हो सकी. सीटों का अंतर बहुत कम होने और बहुमत के लिए दूसरों पर निर्भरता के चलते कमल नाथ सरकार की स्थिरता को लेकर अटकलें जारी हैं. कांग्रेस के कुछ विधायकों के नाराज होने की खबर भी सामने आ चुकी है, ऐसे में कमल नाथ सरकार के कभी भी अल्पमत में आने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. शायद इसी कारण दिग्विजय सिंह भाजपा पर खुले तौर पर आरोप लगाते हुए दिखाई पड़े कि वह कमल नाथ सरकार को अस्थिर करना चाहती है. दिग्विजय सिंह का कहना था, भाजपा हॉर्स ट्रेडिंग करके सत्ता में वापस आना चाहती है. उन्होंने शिवराज सरकार में मंत्री रहे नरोत्तम मिश्रा एवं भूपेंद्र सिंह के नाम लेकर कहा कि वे निर्दलीयों और सपा-बसपा विधायकों को खरीदने की जुगत में हैं. कांग्रेस के भी कुछ विधायकों को बरगलाने की कोशिश की जा रही है.

कमल नाथ की दूसरी बड़ी चुनौती पार्टी की अंदरूनी खींचतान से निपटने की है. राज्य में कांग्रेस नेताओं के बीच गुटबाजी एक पुरानी समस्या है, जो सत्ता हासिल करने के बाद भी बरकरार है. सभी गुटों के निजी हित हैं, जिन्हें साधने के लिए वे एक दूसरे के खिलाफ भी चले जाते हैं, जिसका खामियाजा अंत में पार्टी को भुगतना पड़ता है. खींचतान के चलते ही कमल नाथ को मुख्यमंत्री का पद ग्रहण करने के बाद मंत्रिमंडल के गठन में एक सप्ताह से ज्यादा का वक्त लग गया और फैसला राहुल गांधी के दखल के बाद हो सका. बावजूद इसके कई विधायक सार्वजनिक रूप से असंतोष जाहिर करते नजर आए. मंत्रियों को विभाग आवंटित करने के लिए भी हाईकमान यानी दिल्ली का मुंह देखना पड़ा. लंबे समय बाद मध्य प्रदेश कांग्रेस में यह संयोग बना कि इसके सभी प्रमुख नेता राज्य की राजनीति में रुचि ले रहे हैं. कमल नाथ मुख्यमंत्री बन चुके हैं, नर्मदा यात्रा के बाद से दिग्विजय यहीं पर जमे हुए हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी काफी मुखर दिखाई पड़ रहे हैं. ऐसे में कमल नाथ के लिए अपने ढंग से काम करना आसान नहीं होगा. फिलहाल, दिग्विजय सिंह उनके संकट मोचक बने हुए हैं, मुख्यमंत्री बनवाने में भी उनका खासा योग्यदान माना जाता है. नई सरकार में पर्दे के पीछे दिग्विजय की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इससे सत्ता के दो केंद्र बन सकते हैं और यह संदेश जाने का भी खतरा है कि कमल नाथ कठपुतली मुख्यमंत्री की तरह काम कर रहे हैं.

कमल नाथ को कर्ज में डूबी सरकार मिली है, सरकारी खजाने की हालत बहुत खस्ता है. राज्य पर लगभग पौने दो लाख करोड़ रुपये का कर्ज पहले से था, ऊपर से विधानसभा चुनाव नतीजे आने से ठीक पहले निवर्तमान सरकार द्वारा 500 करोड़ रुपये और कर्ज लेने की खबर आई थी. ऐसे में कमल नाथ के सामने संसाधन जुटाने और खर्चों में कटौती करने की चुनौती है, जिससे निपटने के लिए कांग्रेस सरकार प्रदेश की वित्तीय स्थिति को लेकर श्वेतपत्र ला सकती है, ताकि खजाने की हालत से जनता को अवगत कराया जा सके. फिजूलखर्ची रोकने के लिए भी कवायद शुरू हो गई है. शिवराज सरकार की ब्रांडिंग पर सालाना तकरीबन 400 करोड़ रुपये खर्च किए जाते थे. कमल नाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद कई बड़े फैसले लिए, लेकिन उनके प्रचार-प्रसार को लेकर कोई विज्ञापन जारी नहीं हुआ. कांग्रेस सरकार को एक मजबूत विपक्ष भी मिला है. शिवराज सिंह चेता चुके हैं, राज्य की जनता ने हमें एक चौकीदार की भूमिका सौंपी है, हम एक सशक्त और जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएंगे. ऐसे में कांग्रेस के लिए अपने वादों से किनारा करके आगे निकलना आसान नहीं होगा. जाहिर है, कांग्रेस के सामने अपने वादों की लंबी फेहरिस्त, खाली खजाना और मजबूत विपक्ष की चुनौती है. 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान उसकी परीक्षा भी होने वाली है. उसके पास राज्य की 29 लोकसभा सीटों में से सिर्फ तीन सीटें हैं, ऐसे में उस पर सीमित समय में अपनी स्थिति मजबूत करने का दबाव है.